बीजेपी और मोदी पर सवाल से भड़क क्यों जाते हैं आरिफ़ मोहम्मद ख़ान
आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने शाहबानो मामले में मंत्रिमंडल और कांग्रेस से इस्तीफ़ा दे दिया था. शाहबानो इंदौर की एक मुस्लिम महिला थीं, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने तलाक़ के मामले में पति को हर्जाना देने का आदेश दिया था लेकिन राजीव गांधी ने संसद के ज़रिए इस फ़ैसले को पलट दिया था. राजीव गांधी पर आरोप लगा कि शाहबानो मामले में उन्होंने मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने घुटने टेक दिए थे.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लगता है कि कांग्रेस ने मुसलमानों को छला है.
राजीव गांधी की सरकार में मंत्री रहे आरिफ़ मोहम्मद ख़ान को भी लगता है कि 1986 में राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए अयोध्या और शाहबानो मामले में जो रुख़ अपनाया उसकी प्रतिक्रिया में देश सांप्रदायिकता की आग में झुलसा.
आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने शाहबानो मामले में मंत्रिमंडल और कांग्रेस से इस्तीफ़ा दे दिया था. शाहबानो इंदौर की एक मुस्लिम महिला थीं, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने तलाक़ के मामले में पति को हर्जाना देने का आदेश दिया था लेकिन राजीव गांधी ने संसद के ज़रिए इस फ़ैसले को पलट दिया था. राजीव गांधी पर आरोप लगा कि शाहबानो मामले में उन्होंने मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने घुटने टेक दिए थे.
आरिफ़ का कहना है कि जब उन्होंने इस्तीफ़ा दिया तो कांग्रेस के बड़े नेताओं ने इस्तीफ़ा वापस लेने के लिए मनाने की कोशिश की थी और इसी सिलसिले में तब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पीवी नरसिम्हा राव भी उन तक पहुंचे थे.
आरिफ़ ने दावा किया है कि पीवी नरसिम्हा राव ने उनसे कहा था, "तुम इस्तीफ़ा क्यों दे रहे हो? तुम्हारा अभी लंबा करियर है. इस मामले में तो अब शाहबानो भी मान गई है. हम कोई समाज सुधारक नहीं हैं. अगर मुसलमान गटर में रहना चाहते हैं तो रहने दो."
आरिफ़ के इसी दावे का पीएम मोदी ने पिछले हफ़्ते संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण के बाद धन्यवाद प्रस्ताव पर उल्लेख किया था. संसद में मोदी कहा था कि कांग्रेस मुसलमानों का किस क़दर हितैषी रही है इसी से अंदाज़ा लगा लीजिए. इसके बाद से आरिफ़ मोहम्मद ख़ान चर्चा में हैं.
आरिफ़ कहते हैं कि पीवी नरसिम्हा राव ज़िंदा थे तभी उन्होंने ये बात कही थी लेकिन उन्हें राव की प्रतिक्रिया के बारे में कोई जानकारी नहीं है. पीएम मोदी ने संसद में न तो नरसिम्हा राव का नाम लिया था और न ही आरिफ़ मोहम्मद का, लेकिन बाद में चीज़ें सामने आईं.
दिलचस्प यह है कि पीवी नरसिम्हा राव ने मुसलमानों के बारे में गटर वाली बात कही थी लेकिन संसद में मोदी ने ये बात भी कही कि कांग्रेस ने पीवी नरसिम्हा राव को भारत रत्न नहीं दिया.
मोदी एक तरफ़ राव की टिप्पणी को कांग्रेस की मुसलमानों के प्रति सोच के रूप में पेश कर रहे हैं तो दूसरी तरफ़ उन्हें भारत रत्न भी देने की मांग कर रहे हैं. क्या यह अपने आप में विरोधाभास नहीं है?
इस सवाल पर आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में कहा कि यह जाकर मोदी जी से ही पूछिए और वो इस बारे में कुछ नहीं कहना चाहते हैं. आरिफ़ कहते हैं कि उन्हें भारत रत्न की मांग पर कोई हैरानी नहीं है.
वो कहते हैं, "इससे मैं बिल्कुल हैरान नहीं हूं. मोदी ये बता रहे हैं कि कांग्रेस में काम करने का तरीक़ा क्या है. अगर आप निष्पक्ष होकर देखेंगे तो यह इल्ज़ाम तो कांग्रेस वाले भी अपनी पार्टी के ऊपर लगाए हैं. पार्टी के सदस्यों ने ये आरोप लगाए हैं कि नरसिम्हा राव जी को याद नहीं करते हैं. यह इल्ज़ाम तो ख़ुद कांग्रेसी लगा चुके हैं, मोदी जी तो बहुत बाद में लगा रहे."
लेकिन बीजेपी और मोदी को नरसिम्हा राव पर प्यार क्यों आ रहा है? आरिफ़ कहते हैं, ''ये सवाल मेरे लिए नहीं है. आपको मैं बता दूं कि मैं पिछले 12-13 साल से चुनावी राजनीति से अलग हूं. मैं टिप्पणीकार नहीं हूं, यह मेरा काम नहीं है."
सांप्रदायिक राजनीति के जनक राजीव गांधी?
आरिफ़ मोहम्मद ख़ान मानते हैं कि देश में सांप्रदायिक राजनीति की जननी 1986 में राजीव गांधी की नीतियां हैं.
आरिफ़ मानते हैं कि 1986 में राजीव गांधी ने शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को निष्प्रभावी और राम मंदिर के ताला खुलवाने का जो फ़ैसला लिया उसकी प्रतिक्रिया में सारी चीज़ें हुईं.
इसके साथ ही आरिफ़ ये भी मानते हैं कि राजीव गांधी को लोगों ने ऐसा करने पर मजबूर किया क्योंकि वो राजनीति में नए थे. लेकिन सच तो ये है कि भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में राजीव गांधी को लोकसभा चुनाव में जितनी सीटें मिलीं उतनी आज तक किसी को नहीं मिलीं. ऐसे में एक मज़बूत सरकार मजबूर सरकार कैसे बन गई?
आरिफ़ ख़ान कहते हैं, "मैं ये नहीं कह रहा हूं कि वो मजबूर थे. मेरा कहना ये है कि उस वक़्त जो मजबूरी और लाचारी दिखाई गई, उसी ने देश के अंदर इतनी प्रतिक्रिया पैदा की. आपको 400 से ज़्यादा सीटें मिली थीं और आप एक कमज़ोर समूह के सामने, उनकी हिंसात्मक भाषा के आगे, उनकी धमकियों के आगे आपने घुटने टेक दिए."
"देश के हर नागरिक ने आपमानित महसूस किया. यही वजह है कि 1986 के बाद कांग्रेस को संसद में 200 सीटें भी नहीं मिल पाईं. उत्तर प्रदेश विधानसभा में कभी 100 सीटें नहीं मिल पाईं.''
फिर आरिफ़ को भाजपा क्यों पसंद आई?
आरिफ़ मोहम्मद ख़ान कांग्रेस छोड़ने के बाद जनता दल में आ गए थे. जनता दल की सरकार में भी मंत्री बने. जनता दल छोड़ने के बाद बहुजन समाज पार्टी में आए और फिर 2004 में बीजेपी में शामिल हो गए.
आरिफ़ ख़ान के सामने ऐसी क्या मजबूरी आ गई थी कि जिस सांप्रदायिक राजनीति के सामने झुकने का आरोप लगाकर राजीव गांधी से अलग हो गए और बाद में फिर उसी राजनीतिक पार्टी का हिस्सा बन गए जिन पर सांप्रदायिक नफ़रत फैलाने और बाबरी मस्जिद तोड़ने के आरोप लगे?
इस सवाल पर आरिफ़ मोहम्मद ख़ान भड़क गए. वो कहते हैं, ''जब बाबरी मस्जिद टूटी तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी. ताला राजीव गांधी ने खुलवाया. क्या आपने कभी कांग्रेस से सवाल पूछा कि ये सब क्यों हुआ? आप मुझसे ये सवाल पूछ रहे हैं?"
ज़ाहिर है ये सवाल कांग्रेस से पूछे जाते हैं लेकिन क्या इन सवालों की आड़ में आरिफ़ का बीजेपी में जाना सही साबित हो जाता है क्योंकि बाबरी मस्जिद के विध्वंस को उमा भारती जैसी नेता आज भी गर्व से जोड़ती हैं.
क्या नरसिम्हा राव को आरिफ़ मोहम्मद ख़ान बाबरी विध्वंस के लिए ज़िम्मेदार मानते हैं?
वो कहते हैं, "1986 में जो फैसले लिए गए उनसे नफ़रत पैदा हुई. जो समस्या पैदा हुई, उसने हमें 1947 के विभाजन के वक़्त पहुंचा दिया है. बाक़ी बाद में जो कुछ हुआ, वो तो इसका परिमाण था जो 1986 में हुआ. इसलिए जो 86 पर नज़र नहीं रखते, वो बाद की घटनाओं से अचंभित होते हैं. यह बड़ा देश है. आप जो काम आज कर रहे हैं उसके नतीजे देखने में 25-30 साल लग जाएंगे."
लेकिन क्या इन तर्कों के सहारे आरिफ़ मोहम्मद ख़ान का बीजेपी में जाना सही साबित हो जाता है?
आरिफ़ कहते हैं, "तो क्या करता? कहीं नहीं जाता? दो ही पार्टियां थीं."
जब सांवरकर की तस्वीर संसद में लगी तब बीजेपी में रहकर चुप रहे आरिफ़
आरिफ़ मोहम्मद ख़ान बीजेपी में जब शामिल हुए तब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे. इसी दौरान संसद में वीर सांवरकर की तस्वीर वाजपेयी सरकार ने लगवाई थी. संसद में गांधी की भी तस्वीर है.
सांवरकर गांधी की हत्या में सहअभियुक्त रहे थे और वो हिन्दू राष्ट्र की वकालत करते थे. क्या संसद में सांवरकर की तस्वीर लगाए जाने से आरिफ़ ख़ान बीजेपी में रहते हुए ख़ुश थे?
इस सवाल पर ख़ान बुरी तरह से भड़क जाते हैं और कहते हैं कि ये सवाल कांग्रेस से पूछिए कि वाजपेयी सरकार के जाने के बाद 10 सालों तक वो सत्ता में रही तो क्यों नहीं सांवरकर की तस्वीर हटवाई या विपक्ष में रहते हुए क्यों लगने दी?
आरएसएस का मानना है कि भारत केवल अंग्रेज़ों का ही ग़ुलाम नहीं था बल्कि मध्यकाल में मुसलमान शासकों का भी ग़ुलाम था क्या आरिफ़ ख़ान इस बात से सहमत हैं?
इसके जवाब में वो कहते हैं, "आपको लगता है कि सल्तनत में जो आए वो भारत में पैदा हुए थे? जो हिन्दुस्तान में पैदा हुए, जिन्होंने हिन्दुस्तान को अपना मुल्क माना, उनकी बात अलग है. लेकिन जिन्होंने आकर यहां साम्राज्य स्थापित किया, क्या वो यहां के थे? ये बात ज़रूर है कि ये अंग्रेज़ों की तरह संपत्ति लूटकर बाहर नहीं ले गए. इन्होंने भारत को अपना घर बना लिया."
"लेकिन ऐसा तो है नहीं कि हम कुतुबद्दीन एबक के पास आवेदन लेकर गए थे कि तुम आ जाओ हमसे देश का शासन नहीं चल रहा है. भारत कुतुबद्दीन एबक का ग़ुलाम था और इसमें कोई शक नहीं है. जिन्होंने तलवार के ज़ोर पर शासन स्थापित किया भारत उनका ग़ुलाम था.''
हालांकि तब भारत कोई देश नहीं था और अलग-अलग शासकों के पास अलग-अलग इलाक़ों का शासन था. दूसरी बात यह कि तलवार को ज़ोर पर केवल मुसलमानों ने ही शासन नहीं किया बल्कि हिन्दू शासकों ने भी बल का इस्तेमाल कर कई इलाक़ो को अपने अधीन लिया.
राजीव गांधी ने अपनी मां की हत्या के बाद सिखों के ख़िलाफ़ हुई हिंसा को लेकर कहा था कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तो आसपास की ज़मीन हिलती है. आरिफ़ ख़ान ने क्या तब भी राजीव गांधी से असहमति जताई थी या विरोध किया था?
इस सवाल के जवाब में आरिफ़ ख़ान कहते हैं, ''मैं नाराज़गी ज़ाहिर नहीं करता हूं. उन्होंने जो कहा दिया, कह दिया, उन्हें ख़ुद भी तकलीफ़ रही होगी उस बयान से. वो बहुत ही पीड़ादायक बयान था.''
नरसिम्हा राव ने गटर वाली बात कही तो आरिफ़ ख़ान ने चुपचाप सुन लिया था?
हां, मैंने कोई प्रतिवाद नहीं किया था. मेरे दिमाग़ में उस वक़्त एक चीज़ के अलावा कुछ और था ही नहीं. मैं अगर इस्तीफ़ा वापस लेने की बात मान लेता तो लोगों को क्या मुंह दिखाता. संसद के अंदर एक घंटा खड़े होकर मैंने कहा था और पूरे देश को बताया था कि शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बिल्कुल सही कहा है. ये क़ानून और क़ुरान के मुताबिक़ बिल्कुल सही था. जब क़ानून मंत्री ने उस समय बिल संसद में पेश किया, उस वक़्त पीछे बैठकर इस्तीफ़ा लिखा और प्रधानमंत्री के कार्यालय में दे दिया.
इसके बाद मैं अपने घर तक नहीं गया, किसी दोस्त के यहां चला गया था कि मेरी अब खोज शुरू होगी और मैंने रात अपने दोस्त के घर बिताई. अगले दिन मैं संसद पहुंचा और ये चाहता था कि मुझ पर कोई दबाव न डाला जाए. वहां अरुण सिंह जी ने पकड़ लिया और प्रधानमंत्री के दफ्तर के बगल वाले वेटिंग रूम में बिठा दिया. वहां सभी प्यार से समझाने लगे. आख़िर में जब मैंने नरसिम्हा राव जी को मना कर दिया तब मुझे राजीव गांधी के कमरे में ले जाया गया, जहां उन्होंने कहा कि अच्छा तुम नहीं मान रहे हो तो इस वक़्त तुम्हारा इस्तीफ़ा स्वीकार कर लेते हैं.''
आरिफ़ मोहम्मद ख़ान अभी किसी पार्टी में नहीं हैं लेकिन उन्हें लगता है कि प्रतिक्रिया के कारणों पर ज़्यादा सवाल उठे न कि प्रतिक्रिया देने वालों पर, चाहे प्रतिक्रिया ख़तरनाक ही क्यों न हो.