अनिल अंबानी ने NDTV पर मानहानि का मुक़दमा गुजरात में ही क्यों किया
''आपराधिक मानहानि की बात करें तो सीआरपीसी में इसका प्रवधान है जो कहता है कि जहां 'पार्शियली कॉज़ ऑफ एक्शन' यानी जहां ये मामला थोड़ा भी जुड़ा हुआ है वहां की अदालत में भी मुक़दमा किया जा सकता है.''
''लेकिन अदालत में ये साबित करना ज़रूरी है कि आख़िर ये क्यों किया जा रहा है. जिस पर आरोप लगाए गए हैं वो कभी भी इस अदालत के चुनाव पर सवाल खड़े कर सकता है. यानी अगर अभियुक्त चाहे तो इस मामले में अपना पक्ष रख सकता है और ये कह सकता है कि वह किसी निश्चित कोर्ट में मुक़दमा क्यों नहीं चाहता.''
अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस ग्रुप ने अहमदाबाद की एक अदालत में न्यूज़ चैनल एनडीटीवी पर 10 हज़ार करोड़ के मानहानि का मुक़दमा किया है.
रिलायंस ने ये मुक़दमा रफ़ाल डील पर एनडीटीवी की कवरेज पर किया है. ख़ासतौर पर ये मुकदमा 29 सितंबर को चैनल पर प्रसारित किए गए साप्ताहिक शो 'ट्रूथ वर्सेस हाइप' के एपिसोड पर किया गया है जिसका शीर्षक था 'रफ़ालः द आइडियल पार्टनर'. 26 अक्टूबर को मामले की सुनवाई होगी.
इस मामले में एनडीटीवी की ओर से एक बयान जारी किया गया है. बयान में कहा गया है, ''एनडीटीवी यह दलील पेश करेगा कि मानहानि के ये आरोप कुछ और नहीं, बल्कि अनिल अंबानी समूह ने तथ्यों को दबाने और मीडिया को अपना काम करने से रोकने की जबरन कोशिश है. यह रक्षा सौदे के बारे में सवाल पूछने और उनके जवाब चाहने का काम है जिसका संबंध व्यापक जनहित से है.''
मुक़दमे के लिए अहमदाबाद कोर्ट ही क्यों?
ऐसे में सबसे अहम सवाल ये है कि आख़िर अनिल अंबानी ने अहमदाबाद कोर्ट को ही मुक़दमे के लिए क्यों चुना? इस सवाल के जवाब में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता गौतम अवस्थी कहते हैं, ''सबसे अहम बात ये है कि दो आधार पर मुक़दमा किसी कोर्ट में लाया जाता है. पहला कि जिस सामग्री पर विवाद है वह कहां प्रकाशित हुई और दूसरा आधार है कि जहां ऐसी सामग्री पब्लिश करने वाला रहता हो.''
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''इस मामले की बात करें तो ना ही कंपनी का दफ़्तर अहमदाबाद में रजिस्टर है और ना ही चैनल अहमदाबाद का है. अनिल अंबानी का ये फ़ैसला एक रणनीति के तहत लिया गया लगता है. ऐसे मामलों में हर्जाने के रूप में एक बड़ी रक़म मांगी जाती है. अगर हर्जाने की मांग के साथ केस किया जाता है तो इसमें कोर्ट फ़ीस भी भरनी होती है. ये फ़ीस राज्य सरकार तय करती है और हर राज्य में ये अलग-अलग होती है. ऐसे में ये साफ़ है कि अहमदाबाद कोर्ट में मामला ले जाने की वजह इसकी कम कोर्ट फ़ीस है.''
''चूकिं अहमदाबाद एक ऐसा राज्य है जहां मानहानि के एवज में मांगी गई राशि का कोर्ट फ़ीस से कोई लेना-देना नहीं है. यही कारण हो सकता है कि अहमदाबाद कोर्ट को चुना गया हो. यहां अधिकतम राशि 75,000 रुपए हैं. मेरी जानकारी में ये अकेला ऐसा राज्य है जहां ये प्रावधान है. अगर यही केस दिल्ली में किया गया होता तो 10 हजार करोड़ की कोर्ट फ़ीस पर 100 करोड़ रुपए देने होते.''
हर्जाने की रक़म कैसे तय की जाती है?
इस सवाल के जवाब में दिल्ली हाई कोर्ट के अधिवक्ता रमाकांत कहते हैं, ''दिल्ली में तो कितनी रक़म का मानहानि मुक़दमा होगा, इसे तय करने का एक एक्ट है. हालांकि जब कंपनियां या शख्स अपनी छवि को होने वाले नुक़सान का हवाला देकर हर्जाने की मांग करते हैं तो इसे साबित करने का कोई ठोस तरीक़ा नहीं होता. आप मांगी गई राशि को कम ज़्यादा नहीं कह सकते.''
''आमतौर पर सीपीसी का सेक्शन 19 कहता है कि जहां ये सामग्री पब्लिश हुई वहां की अदालत में ये मामला आना चाहिए. जैसे दिल्ली से अगर किसी अख़बार ने कुछ ऐसा छापा जिस पर मानहानि का केस कोई करना चाहे तो ये केस सिर्फ़ और सिर्फ़ दिल्ली में ही बनता है. लेकिन इस केस में एक तर्क ये हो सकता है कि जहां भी कवरेज देखी गई वहां मेरी छवि को नुक़सान पहुंचा. ये एक तरीक़ा हो सकता है, देश के किसी भी कोर्ट में मामला ले जाने का.''
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प्रतिवादी के पास क्या अधिकार?
गौतम अवस्थी कहते हैं, ''कोर्ट ये तय कर सकता है कि इस मामले के लिए कौन कोर्ट सबसे सटीक होगा. वादी यानी कोर्ट में मामला लाने वाले को ये सुविधा ख़ुद कोर्ट देता है कि अगर कई जगहों पर मामला दाख़िल किया जा सकता है तो वह कोई एक अदालत मामले के लिए चुन ले.''
वो कहते हैं, ''यहां एक पावर कोर्ट के पास होती है कि अगर कोर्ट को लगता है कि चुनी हुई अदालत प्रतिवादी की असुविधा का कारण बन रही है या अगर प्रतिवादी कहता है कि ये मामला तय कोर्ट के क्षेत्राधिकार में नहीं आता तो कोर्ट किसी अन्य अदालत में ये मामला भेज सकती है जो दोनों ही पक्षों के लिए उचित हो.''
इसी सवाल पर रमाकांत कहते हैं, ''ये ग़ौर करने वाली बात है कि अगर किसी शख़्स/संस्था पर दूर किसी राज्य की अदालत में मुक़दमा कर दिया जाए तो इसका मुक़दमे पर असर पड़ता है. क्योंकि कोर्ट जितना निकट होगा बचाव पक्ष के पास भी उतने ही ज़्यादा संसाधन होंगे. अगर कोर्ट दूर होगा तो यहां असुविधा के साथ-साथ और भी कई फ़ैक्टर इसे प्रभावित करते हैं.''
''मसलन आप कोर्ट गए, लेकिन सुनवाई टाल दी गई. अब अगर आप एक साधारण परिवार से आते हैं तो आपको ट्रेन का टिकट लेना होगा. अगर आप धनवान हैं तो भी आपका पैसा और वक़्त बर्बाद होगा. संसाधन एक ज़रूरी फ़ैक्टर साबित होता है. हालांकि देश के न्यायालय भी ये मानते हैं कि जहां का मामला हो वहीं की अदालत में केस किया जाना चाहिए. लेकिन सच ये है कि लोग दूर ही मुक़दमा कराना पसंद करते हैं ताकि जिस पर आरोप लगाए गए हैं उसे जवाब देने में मुश्किलों का सामना करना पड़े.''
डिजिटल युग की मुश्किलें?
रमाकांत कहते हैं, ''डिजिटल के किसी कॉन्टेंट से प्रभावित हो कर मानहानि के मुक़दमे किए जाते हैं तो ऐसे में अब कोई अलग नियम तो नहीं हैं. लेकिन इस परिस्थिति में किसी भी कोर्ट में मुक़दमा किया जा सकता है लेकिन आपको कोर्ट के सामने ये साबित करना होगा कि आख़िर क्यों ये किसी तय कोर्ट का मामला नहीं है और इस कोर्ट में ही इसे क्यों लाया जाना चाहिए. ''
''आपराधिक मानहानि की बात करें तो सीआरपीसी में इसका प्रवधान है जो कहता है कि जहां 'पार्शियली कॉज़ ऑफ एक्शन' यानी जहां ये मामला थोड़ा भी जुड़ा हुआ है वहां की अदालत में भी मुक़दमा किया जा सकता है.''
''लेकिन अदालत में ये साबित करना ज़रूरी है कि आख़िर ये क्यों किया जा रहा है. जिस पर आरोप लगाए गए हैं वो कभी भी इस अदालत के चुनाव पर सवाल खड़े कर सकता है. यानी अगर अभियुक्त चाहे तो इस मामले में अपना पक्ष रख सकता है और ये कह सकता है कि वह किसी निश्चित कोर्ट में मुक़दमा क्यों नहीं चाहता.''
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