जवाहरलाल नेहरू क्यों और कितना उबल रहा है?
विश्वविद्यालय सिरीज़ में हमारी ख़ास पड़ताल की पहली कड़ी- जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से.
जेएनयू यानी जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी भारत की इकलौती ऐसी यूनिवर्सिटी जो वर्ल्ड रैंकिंगों में शुमार होती रही है. लेकिन नौ फरवरी, 2016 के बाद से इस यूनिवर्सिटी को लेकर आरोप प्रत्यारोप का जो सिलसिला शुरू हुआ, वो अब तक नहीं थमा है.
एक तरह से, इन दिनों जेएनयू में वर्चस्व को लेकर दो खेमों में होड़ मची हुई है. एक तरफ़ वो तबका है जो जेएनयू को अपने प्रगतिशील एजेंडे से चलाना चाहता है और दूसरी तरफ़ राष्ट्रवादी विचारधारा वाला तबका जेएनयू पर अपनी पकड़ मज़बूत करना चाहता है.
जेएनयू में स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़ में प्रोफ़ेसर अजय पटनायक जेएनयू की मौजूदा स्थिति के बारे में कहते हैं, "बीते तीन साल के दौरान नेशनलिज़्म का नैरेटिव थोपने का दौर शुरू हो गया है, इसके चलते ही 2016 में जेएनयू के छात्रों की गिरफ़्तारी भी हुई. इसके साथ-साथ इंस्टीच्यूट की अपनी ऑटोनॉमी पर भी ख़तरा बढ़ गया है."
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कुलपति के फ़ैसलों पर सवाल
ऐसे वक्त में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति एम जगदीश कुमार के हर फ़ैसले पर सवाल भी ख़ूब उठ रहे हैं.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (जेएनयूटीए) की अध्यक्ष एवं स्कूल ऑफ़ लेंग्वेज, लिटरेचर एंड कल्चरल स्टडीज की प्रोफ़ेसर आयशा किदवई कहती हैं, "वाइस चांसलर मनमाने फ़ैसले थोप रहे हैं, हम लोगों से बात तक नहीं करते और इस अंदाज़ में काम कर रहे हैं जैसे उन्हें यूनिवर्सिटी को बंद कराने के लिए ही भेजा गया हो."
एम जगदीश कुमार जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति बनने से पहले आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर रहे हैं और यूनिवर्सिटी कैंपस में टैंक लगाने की मांग के साथ काफ़ी सुर्खियां बटोर चुके हैं.
लेकिन जेएनयू कैम्पस में ही बीते 23 से 27 अक्टूबर के बीच इन पर जेएनयूटा की ओर से सात मामलों पर जन सुनवाई की गई. ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि वाइस चांसलर के किन फ़ैसलों पर सवाल उठ रहे हैं?
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कैसे बदल रहा है जेएनयू का नैरेटिव
जेएनयू में बीते तीन सालों में कैसा बदलाव आया, इसे इसी साल नेहरू मेमोरियल लेक्चर से समझा जा सकता है. इस लेक्चर को देने के लिए श्री श्री रविशंकर को बुलाया गया.
जेएनयू छात्र संघ की अध्यक्ष गीता कुमारी कहती हैं, "बताइए श्री श्री रविशंकर का नेहरू से क्या लेना देना हो सकता. ना जाने क्या-क्या अध्यात्म और दूसरी चीज़ों पर वो बोलकर गए. छात्रों को एक तरह से ठगा गया."
ये एक उदाहरण है जेएनयू में हाल के दिनों में ऐसे आयोजन बढ़े हैं. इतना ही नहीं संस्कृत जैसे विषय के लिए एक पूरा स्कूल खोलने की तैयारी की जा रही है. हालांकि, जेएनयू में ऐसे आयोजनों की कोशिश अटल बिहारी वाजपेयी के समय में भी हुई थी, लेकिन इस बार ऐसी कोशिशें कहीं ज़्यादा संगठित तौर पर की जा रही हैं.
विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर अफ्रीकन स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर एसएम मालाकार कहते हैं, "वाजपेयी और आडवाणी का दौर दूसरा था, वे दूसरे किस्म के लोग थे, जिन्हें भारत की विविधता का अंदाज़ा था. संघ के विचारों को उन्होंने धीमे-धीमे लागू करने पर ध्यान दिया था, पूरी तरह से थोपने की कोशिश नहीं की थी, जैसी कोशिश अभी की जा रही है."
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जेएनयू कैंपस के अंदर बदलाव
जेएनयू कैंपस में यौन उत्पीड़न पर रोकथाम के लिए जेंडर सेंसिटाइज़ेशन कमेटी अगेंस्ट सेक्शुअल हैरसमैंट (जीएसकैश) का प्रावधान था. लेकिन मौजूदा कुलपति ने इसकी जगह नए प्रावधान इंटरनल कंप्लेंट्स कमिटी (आईसीसी) को लागू करने की घोषणा की.
उनकी इस घोषणा का जेएनयू के छात्र संघ और शिक्षक संघ ने बड़े पैमाने पर विरोध किया है. कुलपति के फ़ैसले को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती भी दी गई है.
जेएनयू में एआईएसएफ की छात्र नेता और पीएचडी छात्रा राहिला परवीन कहती हैं, "जीएसकैश में छात्र और शिक्षकों के प्रतिनिधि शामिल होते थे लेकिन नए प्रावधान में छात्रों का प्रतिनिधित्व नहीं रखा गया है. ऐसा क्यों किया गया है, ये समझ में नहीं आता."
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सीट कटौती और एडमिशन पॉलिसी का सवाल
आयशा किदवई के मुताबिक जेएनयू में कई विभाग ऐसे हैं जिनमें 83 फ़ीसदी तक सीट कटौती की जा चुकी है. इतना ही नहीं, जेएनयू की नामांकन प्रक्रिया में इंटरव्यू को एकमात्र आधार बना दिया गया है.
पहले जेएनयू में नामांकन के दौरान 70 फ़ीसदी लिखित परीक्षा और 30 फ़ीसदी अंक साक्षात्कार के आधार पर दिए जाते थे. इस व्यवस्था का भारी विरोध यूनिवर्सिटी के दलित और अति पिछड़ा समुदाय से आने वाले छात्र पहले भी करते रहे थे.
यूनिवर्सिटी कैंपस में यूनाइटेड ओबीसी फ़ोरम से जुड़े पीएचडी के छात्र मुलायम सिंह कहते हैं, "पहले 30 अंक में ही दलितों और पिछड़ों के साथ भेदभाव होता था. इसको लेकर यूनिवर्सिटी में तीन-तीन कमेटियां बन चुकी हैं. 2016 में बने नाथे कमेटी ने कहा था कि इंटरव्यू के अंक 15 होने चाहिए."
लेकिन जेएनयू प्रशासन ने अब लिखित परीक्षा को क्वॉलिफाइंग परीक्षा घोषित करते हुए इंटरव्यू के पूरे 100 अंक कर दिए हैं. बिरसा-मुंडा-फुले स्टुडेंट्स एसोसिएशन से जुड़े छात्र जे प्रवीण कहते हैं, "इससे बहुजन छात्रों की मुश्किल बढ़ेगी, वो जेएनयू पहुंच ही नहीं पाएंगे."
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यूजीसी की ताक़त
इतना ही नहीं, जेएनयू में पिछड़े इलाक़े से आने वाले लड़कों को डिप्रिवेशन प्वॉइंट के नाम पर कुछ प्वॉइंट मिलते थे, उसे भी ख़त्म कर दिया गया है. इन दोनों मामले में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी प्रशासन की ओर से बताया जा रहा है कि यूनिवर्सिटी, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के प्रावधानों को लागू कर रहा है.
यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर अफ्रीकन स्टडीज़ के प्रोफेसर एसएम मालाकार कहते हैं, "2014 के बाद से यूजीसी को इतनी ताक़त दे दी गई है कि वे पूरे देश में यूनिफॉर्म पॉलिसी लागू करें, इससे अलग-अलग विश्वविद्यालयों की अपनी पहचान ख़त्म हो जाएगी. ये पूरी प्रक्रिया ऑथेरेटेरियन है जो विविधता भरे भारत के मूल विचार के उलट है."
जेएनयू के एसोसिएट डीन डॉक्टर बुद्धा सिंह कहते हैं, "ऐसा तो हो नहीं सकता है ना कि यूजीसी के प्रावधान दूसरे विश्वविद्यालयों के लिए अलग होगा और जेएनयू के लिए अलग. ऑटोनॉमी का मतलब ये भी नहीं है कि आप यूजीसी के नियम का उल्लंघन करें."
यूजीसी के प्रावधानों के मुताबिक एक प्रोफ़ेसर, एसोसिएट प्रोफ़ेसर और असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के लिए अलग-अलग संख्या के छात्रों को निर्धारित कर दी है. जेएनयू में सीट कटौती की एक बड़ी वजह ये भी है.
सोशल साइंसेज़ स्टडीज़ के एसोसिएट प्रोफ़ेसर तनवीर फ़ज़ल बताते हैं, "यूजीसी का दबाव तो 2008-09 से ही बढ़ने लगा था. उसकी भूमिका केवल अनुदान देने भर की नहीं थी, लेकिन 2014 के बाद से उन