'आत्मनिर्भर भारत' और रूस की नजदीकी पर अमेरिका बेचैन क्यों?
बात कारोबार की हो तो अमेरिका लगातार दूसरे वित्त वर्ष में भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार बन रहा है.
भारत में निवर्तमान अमेरिकी राजदूत केनेथ जस्टर ने हाल ही में भारत और अमेरिका के बीच घनिष्ठ सहयोग की बात दोहराई है. लेकिन उन्होंने भारत में 'आत्मनिर्भरता' पर ज़्यादा ज़ोर और रूस के साथ सैन्य सहयोग पर भी अप्रत्यक्ष रूप से चिंता जताई है.
केनेथ जस्टर ने भारत-अमेरिकी व्यापार संबंधों और निवेश के मामले पर भी आपसी "तनाव और निराशा" का ज़िक्र किया. इसे इसलिए भी अहम बताया जा रहा क्योंकि हाल ही में अमेरिकी कांग्रेस की "कांग्रेशनल रिसर्च सर्विस" ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का ज़िक्र किया था.
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इस रिपोर्ट के मुताबिक़, "ट्रंप प्रशासन के दौरान दोनों देशों में व्यापार संबंधी नियमों को लेकर आपसी तनाव बढ़ा और भारत ने आयात दर बढ़ाए रखी, ख़ासतौर से कृषि और दूरसंचार के क्षेत्र में."
सीआरएस की इस रिपोर्ट में चेतावनी दी गई थी कि "रूस में बने एस-400 एयर डिफ़ेंस सिस्टम ख़रीदने के भारत के अरबों डॉलर के सौदे के कारण अमेरिका 'काउंटरिंग अमेरिकाज एडवरसरीज़ थ्रू सैंक्शन्स एक्ट' यानी (CAATSA) के तहत भारत पर पाबंदियाँ भी लगा सकता है."
हालाँकि अमेरिका के निवर्तमान राजदूत जस्टर ने इस बात पर भी ज़ोर देते हुए कहा, "हम CAATSA के तहत दोस्तों पर कार्रवाई नहीं करते."
बेचैनी क्यों?
सवाल उठना लाज़मी है कि क्या हथियारों की ख़रीद में भारतीय 'तेज़ी' और ख़ासतौर से रूस से एयर डिफ़ेंस सिस्टम ख़रीदने से अमेरिका की बेचैनी बढ़ी है?
'द हिंदू' अख़बार में कूटनीतिक मामलों की संपादक सुहासिनी हैदर कहती हैं, "रूस से एस-400 लेने के भारतीय फ़ैसले का अमेरिका ने लगातार विरोध किया है. भारत की उम्मीद यही रही है कि इसके चलते कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जाएगा. दिलचस्प बात ये भी है कि ये सब तब हुआ, जबकि 2018 में अमेरिका ने सामरिक व्यापार के लिए भारत को "एसटीए-1" का दर्जा दिया, जो सबसे क़रीबी सहयोगियों को दिया जाता रहा है."
निवर्तमान अमेरिकी राजदूत की बातों से स्पष्ट दिखता है कि जितने 'बेहतर संबंधों' के दावे रहे हैं, शायद हक़ीक़त उससे थोड़ी अलग है.
सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ़ गुजरात में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफ़ेसर मनीष के मुताबिक़, "ट्रंप प्रशासन में दोनों देशों के बीच दूरियों की वजह थी अमेरिका का ख़ुद पर ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान. बढ़ी हुई टैरिफ़ दरें बड़ी वजह रहीं, बावजूद इसके कि नरेंद्र मोदी और डोनाल्ड ट्रंप के आपसी रिश्ते अच्छे थे. दूसरी वजह रही H-1B वीज़ा पर अमेरिका की सख़्ती, जिसने भारतीय आईटी कंपनियों पर गहरा असर डाला. ईरान और पाकिस्तान से रिश्ते भी तल्ख़ी की बड़ी वजह रही."
ज़ाहिर है, निवर्तमान अमेरिकी राजदूत के इस बयान को भी रूस-भारत संबंधों से जोड़ कर ही देखा जाएगा, जिसमें उन्होंने कहा, "मेरा मानना है कि किसी भी अन्य देश का भारत के साथ रक्षा और आतंकवाद विरोधी संबंध उतना मज़बूत नहीं है, जितना अमेरिका का रहा है. कोई अन्य देश भारतीयों और भारत की सुरक्षा में योगदान के लिए इतना नहीं करता है."
आत्मनिर्भर भारत और अमेरिका की चिंता
चीन और भारत के बीच संबंधों में तनाव और इसी दौरान केंद्र सरकार के "आत्मनिर्भर भारत" और "मेक इन इंडिया" पर ज़्यादा ज़ोर पर केनेथ जस्टर का कहना था, "अमेरिकी और कुछ दूसरी कंपनियों को चीन से व्यापार में परेशानी आ रही है. भारत के पास एक सामरिक मौक़ा है एक दूसरा विकल्प बनने का. लेकिन इसे पूरा करने के लिए भारत सरकार को ज़्यादा क़दम उठाने होंगे."
प्रोफ़ेसर मनीष कहते हैं, "मौजूदा वैश्विक समीकरणों को देखते हुए भारत के लिए ये सुनहरा मौक़ा है, अमेरिका के साथ तकनीकी सहयोग और निवेश बढ़ा कर आत्मनिर्भरता बढ़ाने का."
उन्होंने बताया, "2020 में ही अमेरिका की शीर्ष कंपनियों अमेज़न, फ़ेसबुक और गूगल ने भारत में 17 अरब डॉलर का निवेश किया है, जो दोनों देशों के रिश्ते में एक निर्णायक भूमिका निभा सकेगा. हाल ही घटनाओं को देखते हुए दुनिया की कई कंपनियों ने चीन को छोड़ भारत आने का इरादा दिखाया है और इसके लिए अब भारत को अपने यहाँ निवेश के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बनानी होंगी."
बात कारोबार की हो, तो अमेरिका लगातार दूसरे वित्त वर्ष में भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार बना रहा है.
भारतीय वाणिज्य मंत्रालय के आँकड़ों के मुताबिक़ 2019- 20 में अमेरिका और भारत के बीच 88.75 अरब डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार हुआ, जबकि इससे पिछले वर्ष यानी 2018-19 में यह 87.96 अरब डॉलर रहा था.
सुहासिनी हैदर कहती हैं, "सामरिक हों या चरमपंथ-विरोधी, दोनों देशों के मौजूदा रिश्ते इन दिनों पहले से कहीं बेहतर हैं और वाणिज्य और ऊर्जा के क्षेत्र में भी यही हाल है."
लेकिन वो इस बात पर भी ज़ोर देती हैं और कहती हैं, "राजदूत जस्टर ने जाते हुए ये स्पष्ट कर दिया कि अब भी दूरियाँ मौजूद हैं. उन्होंने चीन के साथ तनाव पर भारत-अमेरिका सहयोग की बात ज़रूर की लेकिन उनकी बातों से दिखता है कि अमेरिका चाहता है कि भारत चीन से ख़तरे पर खुल कर बोलना शुरू करे."
ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन में फ़ेलो और भारत-अमेरिकी संबंधों के जानकार कशिश पर्पियानी ने "अंडरस्टैंडिंग इंडिया-यूएस ट्रेड टेंशंस बियॉन्ड ट्रेड इम्बैलन्स" नामक रिसर्च पेपर में लिखा है, "पिछले वर्षों में भारत के सबसे ज़्यादा संयुक्त सैन्य अभ्यास अमेरिका के साथ ही हुए हैं, जबकि इसी दौरान व्यापार दरों पर तनाव भी रहा. इसलिए दोनों के बीच के व्यापार और सामरिक रिश्ते अलग क़िस्म के हैं."
हालांकि केनेथ जस्टर का कार्यकाल अमेरिका की रिपब्लिकन सरकार और डोनाल्ड ट्रंप के समय का था, फिर भी "मेक इन इंडिया" पर उनके बयान भारत सरकार और उसकी विदेश नीति को शायद बिलकुल भी रास न आए.
जस्टर के मुताबिक़, "जबकि भारत दुनिया में बड़ा निर्यातक बनना चाह रहा है, ऐसे में मेक इन इंडिया पर ज़्यादा निर्भरता से व्यापार संबंधी नियम में पूरी तरह से शामिल होने की प्रक्रिया में भारतीय उपभोक्ताओं के लिए दाम बढ़ सकते हैं."
हालांकि अभी तक भारतीय विदेश मंत्रालय ने राजदूत जस्टर के बयान पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है और उम्मीद की जा रही है कि उनके निवर्तमान होने के चलते इसका आना भी मुश्किल ही है.
बाइडन सरकार पर नज़र
ज़ाहिर है, सबकी निगाहें अब अमरीका में नई बाइडन सरकार पर रहेंगी और जानकारों को लगता है कि भारतीय अधिकारियों ने जो बाइडन के नए प्रशासन को लेकर काफ़ी उम्मीद जताई है, ख़ासतौर पर इसलिए कि क्लिंटन और ओबामा की डेमोक्रेटिक सरकारों के साथ पहले भी कई बड़े क़रार होते रहे हैं.
लंबे समय से भारत-अमेरिकी समबंधों को कवर करती रहीं सुहासिनी हैदर के मुताबिक़, "अभी तो ये सिर्फ़ किताबी बातें हैं और देखना होगा कि बाइडन प्रशासन बड़े मसलों पर भारत के साथ कितना क़दम ताल करेगा. मुझे लगता है अमेरिका भी चीन से अब अपना फ़ोकस रूस की तरफ़ शिफ़्ट करेगा और साथ ही लोकतंत्र और मनवाधिकारों जैस मामलों पर अब अमेरिका ट्रंप प्रशासन से ज़्यादा ध्यान देगा. अगर कश्मीर, या नागरिकता संशोधन क़ानून या फिर 'लव-जिहाद' जैसे मसलों पर अमरीका से टिप्पणियाँ आएंगी तो दोनों देशों में दूरियाँ भी बढ़ सकती हैं."
उधर सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ़ गुजरात में अंतरराष्ट्रीय संबंघों के प्रोफ़ेसर मनीष को लगता कि जो बाइडन की राह भी आसान नहीं है.
उन्होंने बताया, "वे एक ऐसे अमेरिका की कमान संभालने जा रहे हैं, जहाँ स्वास्थ्य, आर्थिक और नस्लीय भेदभाव की चुनौतियाँ सर पर मँडरा रही हैं. उनका प्रशासन चाहेगा कि भारत के साथ संबंध बेहतर हों, जिसमें संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी सदस्यता, जलवायु परिवर्तन में ज़्यादा सहयोग और व्यापार पर प्राथमिकता रह सकती है. रहा सवाल चीन और अमेरिकी संबंधों के बीच भारत का, तो चीन को लेकर अमेरिका की नीति में कोई बड़ा बदलाव आना मुमकिन नहीं लगता."