अखिलेश ने मुलायम के लिए आजमगढ़ की जगह मैनपुरी सीट ही क्यों चुनी?
नई दिल्ली- बुजुर्ग पिता के लिए मैनपुरी लोकसभा सीट की घोषणा करके अखिलेश यादव ने एक तीर से कई निशाना साधने की कोशिश की है। सबसे बड़ी बात कि इससे पार्टी कार्यकर्ताओं की एक बड़ी दुविधा दूर हो गई कि उम्र के इस पड़ाव पर मुलायम चुनाव लड़ेंगे भी या नहीं। लेकिन, अखिलेश के इस फैसले ने कार्यकर्ताओं के मन में यह सवाल भी पैदा कर दिया है कि आजमगढ़ में मुलायम की जगह कौन लेगा?
पिता को लोकसभा पहुंचाने के लिए नहीं देना होगा ज्यादा ध्यान
मैनपुरी सीट से चुनकर मुलायम 1996, 2004 और 2009 में संसद जा चुके हैं। यह मुलायम परिवार के लिए सबसे सुरक्षित सीट मानी जाती रही है। 2014 में मुलायम यहां से 3 लाख 64 हजार से ज्यादा मतों से जीते थे। अलबत्ता आजमगढ़ से भी जीतने के चलते उन्होंने यही सीट छोड़ने का फैसला किया था। क्योंकि, मैनपुरी में परिवार के किसी दूसरे सदस्य को उपचुनाव में जिताना उनके लिए बहुत आसान था। आज उम्र के लिहाज से मुलायम की यह स्थिति नहीं है कि वो चुनाव अभियान के लिए ज्यादा भाग-दौड़ कर सकें। अखिलेश के लिए भी यह मुश्किल होगा कि वो पिता का सम्मान बचाने के लिए एक संसदीय क्षेत्र में ही सिमट कर रह जाएं। जाहिर है कि मैनपुरी सीट ऐसी है, जहां यादव परिवार को इन बातों की खास चिंता करने की जरूरत नहीं है।
मुलायम की नाराजगी की अटकलों पर विराम
2014 से 2019 के बीच समाजवादी पार्टी में बहुत बड़ा बदलाव आ चुका है। आज अखिलेश यादव पार्टी के सर्वेसर्वा हैं और इसको लेकर उनके पिता और चाचा के साथ मतभेद भी उजागर हो चुके हैं। चाचा शिवपाल ने तो सियासी तौर पर औपचारिक दूरी भी बना ली है। जबकि, पिता संसद के बजट सत्र के आखिरी दिन नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनने की शुभकामनाएं देकर बबुआ-दीदी के गठबंधन में एक अजीब सी असहजता भी पैदा कर चुके हैं। ऐसे में बेटे ने पिता को उनकी मनपसंद सीट देकर उन्हें रिझाने का बहुत बड़ा दांव चला है। बबुआ के सिर पर उसके पिता का आशीर्वाद है, यह कार्यकर्ताओं के लिए भी बहुत अच्छा संदेश होगा और पूरा समाजवादी कुनबा नेताजी के नाम पर एकजुट होकर लड़ेगा इसका भरोसा भी कायम रहेगा।
आजमगढ़ से मुलायम ने पहले ही बना ली थी दूरी
पिछली लोकसभा चुनाव में मुलायम को खास कारण से आजमगढ़ से भी किस्मत आजमाना पड़ा। क्योंकि, हमेशा से भगवा लहर से दूर रहे इस संसदीय क्षेत्र में 2009 में बिना किसी लहर में कमल खिल चुका था। 2014 में मोदी लहर ने मुलायम की चिंता और भी बढ़ा दी थी। वहां एसपी का बागी ही भाजपा से चुनौती दे रहा था। इसलिए मुलायम इस वादे के साथ वहां खुद लड़ने पहुंचे कि अगर मैनपुरी और आजमगढ़ दोनों से जीते, तो मैनपुरी से इस्तीफा देंगे, आजमगढ़ से नहीं। उन्होंने ऐसा किया भी।
लेकिन, आजमगढ़ से मुलायम को उतना सम्मान नहीं मिल पाया। वे वहां लगभग 63 हजार वोटों से ही जीत पाए थे। वो भी तब जब पूरा समाजवादी कुनबा उनके लिए दिन-रात एक कर चुका था। लखनऊ में भी उस समय बेटे अखिलेश के पास मुख्यमंत्री की कुर्सी थी। यही वजह है कि आजमगढ़ का सांसद रहने के बाद भी मुलायम बाद में वहां कभी अकेले जाना पसंद नहीं करते थे। एक-दो बार मौका भी मिला तो मुख्यमंत्री बेटे को साथ ले गए। तभी उन्होंने अपनी इच्छा भी जता दी थी कि अबकी बार तो बात रख ली, लेकिन 2014 में आजमगढ़ का रुख नहीं करेंगे।
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