मोदी सरकार डेटा छुपाकर किसका भला कर रही है
पिछले महीने पर्यावरण और वन मंत्री प्रकाश जावडेकर ने रोज़गार पर नेशनल सैंपल सर्वे का डेटा ख़ारिज कर दिया था. जावडेकर ने कहा था कि एनएसएसओ के डेटा संग्रह की प्रक्रिया सही नहीं है और यह प्रक्रिया पुरानी पड़ गई थी. उन्होंने कहा था कि एनएसएसओ की प्रक्रिया 70 साल पुरानी थी और आज की पूरी तस्वीर पेश करने में सक्षम नहीं है.
इसी साल मई महीने में मोदी सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने इस्तीफ़ा दे दिया था. अरविंद सुब्रमण्यम जाने-माने अर्थशास्त्री हैं. इस्तीफ़े के एक महीने बाद उन्होंने कहा कि भारत अपनी जीडीपी वृद्धि दर बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा है.
उन्होंने कहा कि 2011-12 से 2016-17 के बीच भारत की जीडीपी की वास्तविक वृद्धि दर 4.5 फ़ीसदी थी लेकिन इसे आधिकारिक रूप से सात फ़ीसदी बताया गया. अरविंद सुब्रमण्यम के इस बयान को अंतरराष्ट्रीय मीडिया में ख़ूब तवज्जो मिली और कहा गया कि सरकार आंकड़ों के साथ छेड़छाड़ कर रही है.
इससे पहले इसी साल 28 जनवरी को पीसी मोहनन ने नेशनल स्टैटिस्टिकल कमिशन यानी एनएससी से कार्यकारी अध्यक्ष से इस्तीफ़ा दे दिया था. एनएससी केंद्र सरकार की संस्था है जो भारत के अहम आँकड़ों की गुणवत्ता की जाँच करती है.
पीसी मोहनन ने रोज़गार से जुड़े आँकड़ों के प्रकाशन में देरी का विरोध करते हुए इस्तीफ़ा दे दिया था. मोहनन के साथ एनएससी की एक और सदस्य जे लक्ष्मी ने भी इस्तीफ़ा दे दिया था. मोहनन के इस्तीफ़े के तीन दिन बाद बिज़नेस स्टैंडर्ड अख़बार में रोज़गार के आँकड़े लीक हो गए और इससे पता चला कि बेरोज़गारी की दर बढ़कर 6.1 फ़ीसदी हो गई है और यह पिछले 45 सालों में सबसे उच्चतम स्तर पर आ गई है.
जब यह सब कुछ हो रहा था तब मोदी सरकार का पहला कार्यकाल था. बेरोज़गारी का यह आँकड़ा चुनाव से पहले सरकार के लिए परेशान करने वाला था. हालांकि मोदी सरकार ने बेरोज़गारी के आंकड़ों को ख़ारिज कर दिया और कहा कि डेटा संग्रह करने की प्रक्रिया में कई तरह के दोष हैं और यह असली तस्वीर नहीं है.
सरकार की ओर से तर्क दिया गया कि मुद्रा योजना के तहत हज़ारों करोड़ रुपए के क़र्ज़ दिए गए हैं और लोग इस पैसे से अपना रोज़गार चला रहे हैं लेकिन डेटा संग्रह करते वक़्त इसकी उपेक्षा की गई.
बीजेपी की सरकार ने जनवरी 2015 में जीडीपी गणना का आधार वर्ष 2004-05 से बदलकर 2011-12 किया था. इसके साथ ही मनमोहन सरकार जिस आधार पर जीडीपी की गणना करती थी उसे भी मोदी सरकार ने बदल दिया था.
अरविंद सुब्रमण्यम का कहना था कि जीडीपी गणना की प्रक्रिया बदलने के कारण इसके आँकड़े ज़्यादा हैं जो वास्तविक तस्वीर नहीं है. सुब्रमण्यम ने कहा था कि बैंक क्रेडिट का ग्रोथ नकारात्मक है, निर्यात दर नकारात्मक है, बेरोज़गारी बढ़ी हुई है और लोग कम ख़र्च कर रहे है तो जीडीपी वृद्धि दर सात फ़ीसदी से ज़्यादा कैसे हो सकती है?
दो चीज़ें साफ़ हैं. एक तो ये कि सरकार जो आंकड़े जारी कर रही है उन पर विशेषज्ञ कई तरह के सवाल खड़े कर रहे हैं और सरकार जिन आँकड़ों को जारी नहीं होने दे रही है उसे लेकर विशेषज्ञ कह रहे हैं कि यह सरकार को पसंद नहीं आ रहा.
आँकड़ों से ही जुड़ा एक और विवाद पिछले हफ़्ते आया. मोदी सरकार ने नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस यानी एनएसओ के 2017-18 के उपभोक्ता ख़र्च सर्वे डेटा को जारी नहीं करने का फ़ैसला किया है. सरकार ने कहा है कि डेटा की 'गुणवत्ता' में कमी के कारण इसे जारी नहीं किया जाएगा.
इस डेटा के जारी नहीं होने के कारण पिछले दस सालों की ग़रीबी का डेटा पता नहीं चल पाएगा. इससे पहले यह सर्वे 2011-12 में हुआ था. इस डेटा के ज़रिए सरकार देश में ग़रीबी और विषमता का आकलन करती है.
यह डेटा भी इस साल जून में ही जारी होने वाला था लेकिन नहीं किया गया. लेकिन एक बार फिर से बिजनेस स्टैंडर्ड अख़बार ने डेटा लीक करने का दावा किया और बताया कि लोगों के ख़र्च करने की क्षमता में पिछले 40 सालों बाद कमी आई है. हालांकि सरकार ने इसे ख़ारिज कर दिया और कहा कि वो एनएसओ सर्वे का आधार वर्ष बदलने पर विचार कर रही है और यह सर्वे अब 2021-22 में होगा.
मोदी सरकार को आख़िर अपने ही संस्थानों के आंकड़ों पर भरोसा क्यों नहीं है? नेशनल स्टैटिस्टिकल कमिशन के पूर्व चेयरमैन पीसी मोहनन कहते हैं, ''इस रिपोर्ट को जून महीने में ही आना था. नवंबर आधा ख़त्म हो चुका है और अब तक रिपोर्ट नहीं आई है. जब देरी हो रही थी तभी संदेह होने लगा था कि आख़िर सरकार जारी क्यों नहीं कर रही है. लीक रिपोर्ट जो बिजनेस स्टैंडर्ड में छपी उससे स्पष्ट हो गया कि सरकार को रिपोर्ट पसंद नहीं आई. सरकार रिपोर्ट जारी नहीं करने का कारण गुणवत्ता में कमी बता रही है लेकिन इसे समझना मुश्किल है.''
पीसी मोहनन कहते हैं, ''एनएसओ 1950 से यह सर्वे कर रहा है. यह कोई नया सर्वे तो है नहीं. एनएसओ ने सर्वे करना जब शुरू किया था तब भी सरकार को गुवणत्ता के बारे में पता था. सरकार खुलकर क्यों नहीं बता रही है कि इसमें गुणवत्ता की कमी किस स्तर पर है. इस सर्वे का डेटा काफ़ी अहम होता है. 2011-12 के बाद पहली बार इस सर्वे की रिपोर्ट आने वाली थी और इससे पता चलता कि देश भर की आबादी किस हाल में जी रही है.''
पूरे विवाद पर पूर्व प्रमुख सांख्यिकीविद् प्रणब सेन ने भी बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा है, ''2017-18 'असामान्य वर्ष' होने के बावजूद सरकार को डेटा जारी करना चाहिए. जब मैं प्रमुख सांख्यिकीविद् था तो मेरे समय में 2009-10 में सर्वे हुआ था और तब पिछले 40 सालों बाद भयानक सूखा पड़ा और वैश्विक आर्थिक संकट का दौर था तब भी हमने डेटा नहीं रोका था. हमने 2011-12 को नया आधार वर्ष बनाया था लेकिन 2009-10 की रिपोर्ट को रोका नहीं था. हमने डेटा को दबाया नहीं था.''
पीसी मोहनन गुणवत्ता के तर्क पर हंसते हुए कहते हैं, ''आप गुणवत्ता को आधार बनाकर सर्वे का डेटा रोक रहे हैं लेकिन इसे रोकने से कोई फ़ायदा नहीं मिलने वाला. कम से कम अर्थव्यवस्था और लोगों को तो फ़ायदा नहीं ही मिलेगा. अंतरराष्ट्रीय मंच पर हमारी विश्वसनीयता कम हो रही है. देश के भीतर भी संस्थाओं को लेकर अविश्वास पैदा हो रहा है. अब साफ़ संदेश जा रहा है कि सरकार जिन आँकड़ों के साथ सहज है उसे जारी कर रही है और जिन आँकड़ों से असहज हो रही है उसे दबा ले रही है. इन आँकड़ों से सरकार कई चीज़ें तय करती हैं. जैसे कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स को इसी से तय किया जाता है.''
पिछले महीने पर्यावरण और वन मंत्री प्रकाश जावडेकर ने रोज़गार पर नेशनल सैंपल सर्वे का डेटा ख़ारिज कर दिया था. जावडेकर ने कहा था कि एनएसएसओ के डेटा संग्रह की प्रक्रिया सही नहीं है और यह प्रक्रिया पुरानी पड़ गई थी. उन्होंने कहा था कि एनएसएसओ की प्रक्रिया 70 साल पुरानी थी और आज की पूरी तस्वीर पेश करने में सक्षम नहीं है.
पटना के एएन सिन्हा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर डीएम दिवाकर कहते हैं, ''आपको नया आधार वर्ष बनाना है बनाइए. किसने रोका है. लेकिन पुराना डेटा जारी करने में क्या समस्या है. जो सर्वे हो चुका है उसका डेटा क्यों रोकना चाहते हैं? बात सीधी सी है कि इन्हें अपने पंसद का डेटा चाहिए. जो डेटा इनकी पसंद का नहीं होता उसे ये जारी नहीं करने देते. रोज़गार के डेटा के साथ भी यही हुआ. उसे भी इन्होंने जारी नहीं करने दिया था.''
डीएम दिवाकर कहते हैं कि यह लोकतांत्रिक भारत के इतिहास की पहली सरकार है जो अपने ही संस्थानों के डेटा को ख़ारिज कर रही है. बिजनेस स्टैंडर्ड में छपी रिपोर्ट में दावा किया गया है एक भारतीय के हर महीने ख़र्च करने की औसत क्षमता में 3.7 फ़ीसदी की गिरावट आई है. वहीं ग्रामीण भारत में ये गिरावट 8.8 फ़ीसदी है.
पीसी मोहनन कहते हैं कि लोकतंत्र में इन आँकड़ों के आधार पर बहस होती है और विपक्षी पार्टियां भी सरकारी की नाकामी को मुद्दा बनाकर सवाल पूछती हैं लेकिन डेटा जारी न करना इन बहसों से असली तस्वीर को ग़ायब करना है.
मोहनन कहते हैं, ''अगर कोई कुछ दावा करेगा तो उसे वेरिफ़ाई करने के लिए हमारे पास कुछ नहीं होगा. देश में ग़रीबी का ग्राफ़ क्या है इसके बारे में हमें कोई जानकारी नहीं होगी. यह पहली बार है कि कोई सरकार सर्वे कराने के बाद डेटा जारी नहीं कर रही है. एनएसओ की ख्याति विदेशों में भी रही है और यहां काम करने वाले बेहतरीन प्रोफ़ेशनल हैं. ज़ाहिर है कि सरकार के इस रुख़ से यहां के स्टाफ़ पर भी निराशाजनक असर पड़ेगा और वो अपने काम के प्रति ईमानदारी को बेकार मानने लगेंगे.''
पीसी मोहनन कहते हैं, ''भारत के सांख्यिकी प्रोफ़ेशनलों की दुनिया भर में इज़्ज़त है लेकिन इस सरकार ने पिछले तीन चार सालों में डेटा को स्वीकार करना बंद कर दिया है. यह लॉन्ग टर्म के लिए ठीक नहीं है. हमारे डेटा की विश्वसनीयता कम होगी तो इसका असर चौतरफ़ा होगा. मुझे लगता है कि सरकार को भरोसा बहाल करने के लिए कुछ तत्काल करना चाहिए.''
इसी हफ़्ते पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने द हिन्दू अख़बार में एक आलेख लिखा था और मोदी सरकार पर निशाना साधते हुए कहा था कि आँकड़ों के प्रकाशन पर पहरा लगा दिया गया है. पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा था कि वो इस बात को एक अर्थशास्त्री के तौर पर कह रहे हैं. मनमोहन सिंह ने कहा था कि देश के इंस्टिट्यूशन को कमज़ोर किया जा रहा है और इससे अर्थव्यवस्था को नुक़सान होगा. सिंह ने कहा था कि सरकार मीडिया में रंगीन हेडलाइन्स से अर्थव्यवस्था मैनेज नहीं कर सकती है.
पीसी मोहनन कहते हैं कि वो मनमोहन सिंह की बातों से पूरी तरह से सहमत हैं. मोहनन कहते हैं, ''सर्वे कराने का फ़ैसला एक दो साल पहले हो जाता है. लेकिन जब सर्वे शुरू हुआ तो इन्होंने नोटबंदी का फ़ैसला ले लिया. इसी बीच जीएसटी भी लागू कर दिया गया. ज़ाहिर है इन दोनों का बुरा असर लोगों पर पड़ा है और सर्वे के नतीजे भी इससे प्रभावित हुए होंगे.''
मोहनन कहते हैं, ''जब मैंने देखा कि सरकार को मेरे काम से कोई मतलब नहीं है और उसका इस्तेमाल करने में हिचक रही है तो इस्तीफ़ा देने का अलावा कोई विकल्प नहीं था. सांख्यिकी का लक्ष्य ही होता है कि हमें केवल सरकार को बताना नहीं है बल्कि लोगों को भी बताना होता है. डेटा केवल सरकार के लिए नहीं होता और कोई भी लोकतांत्रिक सरकार इसे रोक नहीं सकती है.''
लेकिन सरकार ने अगर इस सर्वे को जारी नहीं किया को पिछले दस सालों में भारत की ग़रीबी का ग्राफ क्या है, इसका पता कभी नहीं चल पाएगा.