'एक राष्ट्र एक चुनाव' से किसे फ़ायदा होगा?
अगर 1967 तक चुनाव एक साथ होते रहे थे तो अब कांग्रेस को इससे क्या दिक़्क़त है?
इस सवाल पर कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी कहती हैं, "शुरुआत ऐसे ही हुई थी लेकिन उस समय राजनीतिक पार्टियां कम थीं और गठबंधन की राजनीति भी नहीं थी. लेकिन देश ने सरकारें बनतीं और गिरती देखी हैं. बीच में सरकार गिरने की स्थिति में फिर से सरकार चुनना जनता का अधिकार है, एक राष्ट्र एक चुनाव का विचार इस भावना के ख़िलाफ़ होगा.''
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि देश में लोकसभा और विधानसभाओं के लिए चुनाव एक साथ हों.
भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख अमित शाह ने विधि आयोग को पत्र लिखकर 'एक राष्ट्र एक चुनाव' के समर्थन में तर्क दिए हैं.
बहुत मुमक़िन है कि विधि आयोग 'एक राष्ट्र एक चुनाव' के समर्थन में सिफ़ारिश भी कर दे. लेकिन इसे लागू कराना आसान नहीं होगा.
इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा, दल-बदल क़ानून में संशोधन करना होगा. इसके अलावा जनप्रतिनिधि क़ानून और संसदीय प्रक्रिया से जुड़े अन्य क़ानूनों में भी बदलाव करने होंगे.
हालांकि अमित शाह के विधि आयोग को पत्र लिखने के एक दिन बाद ही मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने एक बयान में कहा कि लोकसभा के साथ 11 राज्यों में चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग के पास पर्याप्त संख्या में वीवीपीएटी मशीनें नहीं हैं और चुनाव आयोग अधिकतम आठ राज्यों में एक साथ चुनाव करा सकता है.
मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में इसी साल चुनाव होने हैं जबकि महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में साल 2019 के अंत तक विधानसभा चुनाव होंगे.
इसके अलावा ओडिशा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और मिज़ोरम में साल 2019 के लोकसभा चुनावों के साथ ही चुनाव होने हैं.
अपने पत्र में अमित शाह ने तर्क दिया था कि भारत जैसे प्रगतिशील देश में अलग-अलग चुनाव होने से भारी ख़र्च होता है जिसका असर विकास पर पड़ता है.
लेकिन क्या ये मुद्दा सिर्फ़ विकास का है या इसके राजनीतिक पहलू भी हैं?
'एक राष्ट्र एक चुनाव' के विचार का विरोध करते हुए कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी कहती हैं, "एक साथ चुनाव कराना देश के संघीय व्यवस्था पर चोट पहुंचाना होगा."
प्रियंका चतुर्वेदी कहती हैं, "न ही पर्याप्त मात्रा में ईवीएम हैं और न ही वीवीपीएटी मशीनें हैं. सुरक्षा व्यवस्था क़ायम करना भी एक बड़ी चुनौती होगी. भारतीय जनता पार्टी सिर्फ़ राजनीतिक फ़ायदे के लिए ऐसा करना चाहती है."
क्या भाजपा को सियासी फ़ायदा होगा
वरिष्ठ पत्रकार क़मर वहीद नक़वी मानते हैं कि बीजेपी एक साथ चुनाव होने का फ़ायदा उठा सकती है.
वो कहते हैं, "बीजेपी, चुनाव सिर्फ़ नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ रही है और वो ही उसके सबसे बड़े स्टार प्रचारक हैं. वो भारत के अकेले ऐसे प्रधानमंत्री होंगे जो इतनी बड़ी तादाद में चुनावी रैलियां करते हैं. विधानसभा चुनावों में जितनी रैलियां मोदी ने की हैं, कभी किसी प्रधानमंत्री ने नहीं की हैं. बीजेपी एक साथ चुनाव कराकर मोदी की स्टार नेता की छवि को भुनाना चाहती है."
नक़वी कहते हैं, "मोदी का बहुत समय चुनावी रैलियों में नष्ट होता है और बाक़ी जो समय बचता है वो विदेश दौरों पर रहते हैं, ऐसे में चुनावी सक्रियता की वजह से वो अन्य कामों को समय नहीं दे पाते हैं. एक साथ चुनाव होने पर मोदी का काफ़ी समय बचेगा."
हालांकि भाजपा प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी कहते हैं कि मोदी की लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश की बात करना भारतीय जनता की समझ पर प्रश्न उठाना है.
वो कहते हैं, "भारत की जनता बहुत समझदार है और जानती है कि किसे वोट देना है. कई ऐसे उदाहरण हैं जहां एक साथ चुनाव हुए और जनता ने केंद्र में किसी ओर को चुना और राज्य में किसी और को चुना. उदाहरण के तौर पर राजीव गांधी ने अंतिम चुनाव वर्ष 1991 में लड़ा था. उसी साल यूपी का चुनाव भी लोकसभा के साथ हुआ था. अमेठी में राजीव गांधी जीते थे लेकिन यहां की पांचों सीटों पर कांग्रेस हार गई थी."
भाजपा प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी का कहना है कि 'एक राष्ट्र एक चुनाव' के विचार से देश में विकास को गति भी मिलेगी.
त्रिवेदी कहते हैं, "चुनाव देश के लोकतंत्र के लिए बहुत आवश्यक हैं लेकिन अगर औसत देखा जाए तो साल में लगभग तीन सौ दिन कहीं न कहीं किसी न किसी तरह के चुनाव हो रहे होते हैं. इस पर बहुत पैसा ख़र्च होता है. इसके अलावा देश की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी संभालने वाले सुरक्षा बलों को चुनावी ड्यूटी करनी पड़ती है. देश की बाहरी और आंतरिक सुरक्षा संभालने वाले बल जब चुनावी सुरक्षा में लगते हैं तो सुरक्षा व्यवस्था प्रभावित होती है."
बीजेपी को सियासी फ़ायदा मिलने के सवाल पर त्रिवेदी कहते हैं, "ये विचार पहली बार नहीं लाया जा रहा है. ऐसा पहले भी होता रहा है. साल 1967 तक चुनाव एक साथ ही होते थे. ये निर्णय अकेले बीजेपी का नहीं है. राजनीतिक दृष्टि से देखा जाए तो ये महागठबंधन की बात कर रहे दलों के लिए ज़्यादा फ़ायदे की बात है, क्योंकि हर बार टूटने-बनने वाले गठबंधन एक साथ चुनाव लड़ सकेंगे."
कांग्रेस को इससे क्या दिक़्क़त है?
अगर 1967 तक चुनाव एक साथ होते रहे थे तो अब कांग्रेस को इससे क्या दिक़्क़त है?
इस सवाल पर कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी कहती हैं, "शुरुआत ऐसे ही हुई थी लेकिन उस समय राजनीतिक पार्टियां कम थीं और गठबंधन की राजनीति भी नहीं थी. लेकिन देश ने सरकारें बनतीं और गिरती देखी हैं. बीच में सरकार गिरने की स्थिति में फिर से सरकार चुनना जनता का अधिकार है, एक राष्ट्र एक चुनाव का विचार इस भावना के ख़िलाफ़ होगा.''
वहीं बीजेपी प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी इसे एक चुनावी सुधार बताते हुए कहते हैं, "ये एक सैद्धांतिक बात है जो हमारी सरकार बनने के बाद हमारे प्रधानमंत्री ने देश के सामने रखी है. समय समय पर चुनावी सुधार की प्रक्रिया होती रहनी चाहिए. जब संविधान बना था, तब बहुत सी बातें ऐसी थीं जो संविधान निर्माताओं ने सोची नहीं थी. संविधान में दल बदल को लेकर कोई विचार नहीं था, लेकिन राजीव गांधी के कार्यकाल में दल बदल क़ानून लाया गया जिसे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में और मज़बूत किया गया. जिस तरह दल-बदल क़ानून एक सुधार था उसी तरह एक राष्ट्र-एक चुनाव भी सुधार ही साबित होगा."
संघीय ढांचे का क्या होगा?
इस सवाल पर वरिष्ठ पत्रकार क़मर वहीद नक़वी कहते हैं, "आम चुनाव और विधानसभा चुनाव पहले भी एक साथ हुए हैं और तब संघीय ढांचा बरक़रार था. ऐसे में इस व्यवस्था से संघीय ढांचे पर चोट पहुंचने की बात समझ में नहीं आती."
नक़वी कहते हैं, "जब कांग्रेस के पास सत्ता थी, केंद्र और राज्य में वो मज़बूत थी, तब कांग्रेस के नेताओं ने संघीय ढांचे पर चोट पहुंचने की बात नहीं की थी."
नक़वी कहते हैं, "एक साथ चुनाव होने पर बीजेपी को स्पष्ट बढ़त मिलती दिख रही है और वो इसी वजह से ये बात भी कर रही है. लेकिन राजनीतिक नफ़ा-नुक़सान से परे सवाल ये है कि क्या चुनाव आयोग के लिए देश में एक साथ चुनाव कराना संभव होगा. ये थोड़ा मुश्किल दिखता है."
हाल के महीनों में आए कुछ सर्वेक्षणों में कहा गया है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव जीतना बीजेपी के लिए मुश्किल हो सकता है. तो क्या बीजेपी इस वजह से चुनाव एक साथ कराना चाहती है.
सुधांशु त्रिवेदी इससे इंकार करते हुए कहते हैं, "इसका तीन राज्यों के चुनावों से कोई लेना देना नहीं है. ये एक सैद्धांतिक बात है जिसे हम अपनी सरकार बनने के बाद से ही समय-समय पर उठाते रहे हैं."
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