कौन चाहता है कि सीबीआई के दस्तावेज़ तक जनता न पहुँचे?
2005 में जब आरटीआई क़ानून लागू हुआ था तब सीबीआई इसके दायरे में थी लेकिन 2011 में आरटीआई क़ानून के दायरे के बाहर हैं.
सीबीआई आरटीआई के दायरे में आए या नहीं इसी मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में अंतिम सुनवाई होनी है.
2005 में जब आरटीआई क़ानून लागू हुआ था तब सीबीआई इसके दायरे में थी लेकिन 2011 में किए गए एक संशोधन के बाद से सीबीआई भी उन संस्थानों में शामिल हो गई जो आरटीआई क़ानून के दायरे के बाहर हैं.
दरअसल, सीबीआई को आरटीआई के दायरे में लाने की मांग करते हुए साल 2011 में दिल्ली हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी.
लेकिन बाद में ये मामला सुप्रीम कोर्ट भेज दिया गया था. केंद्र सरकार का तर्क था कि इस संबंध में देश के कई हाई कोर्टों में याचिकाएं लंबित हैं और सबकी सुनवाई एक साथ होनी चाहिए.
दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका सुप्रीम कोर्ट के ही अधिवक्ता अजय अग्रवाल ने दायर की थी जो लंबे समय से सीबीआई से बोफ़ोर्स के मामले से संबंधित दस्तावेज़ हासिल करने की कोशिशें कर रहे हैं.
अजय अग्रवाल साल 2014 में भाजपा के टिकट पर रायबरेली लोकसभा सीट से कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के ख़िलाफ़ चुनाव भी लड़ चुके हैं.
अजय अग्रवाल दावा करते रहे हैं कि तत्कालीन सरकार ने बोफ़ोर्स मामले के दस्तावेज़ों को सार्वजनिक होने से रोकने के लिए ही सीबीआई को आरटीआई के दायरे से हटाने का फ़ैसला किया था.
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अग्रवाल ने बीबीसी से कहा, "मैंने आरटीआई के ज़रिए बोफ़ोर्स से संबंधित काग़ज़ सीबीआई से मांगे थे. लेकिन सीबीआई ने ये दस्तावेज़ देने से इनकार कर दिया था जिसके बाद मैंने केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) में अपील दायर की थी. सीआईसी ने मेरे पक्ष में फ़ैसला दिया लेकिन इसके बाद 9 जून 2011 को सरकार ने सीबीआई को आरटीआई क़ानून से बाहर कर दिया."
अग्रवाल कहते हैं, "बोफ़ोर्स मामला गांधी परिवार से जुड़ा है. तत्कालीन सरकार ने राजनीतिक फ़ैसला लेते हुए गांधी परिवार को बचाने के लिए ही सीबीआई को आरटीआई से बाहर किया था."
शेड्यूल 2 के तहत उन एजेंसियों को आरटीआई के दायरे से बाहर रखा गया था जो या तो ख़ुफ़िया एजेंसियां हैं या सुरक्षा एजेंसिया हैं.
अग्रवाल का तर्क है कि सीबीआई न ही ख़ुफ़िया एजेंसी है और न ही सुरक्षा एजेंसी है बल्कि ये एक जांच एजेंसी है जिसका गठन दिल्ली पुलिस एक्ट के तहत हुआ है.
पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेश गांधी भी इस तर्क से इत्तेफ़ाक रखते हुए कहते हैं, "सीबीआई एक जांच एजेंसी है और भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसी है. काफ़ी छानबीन से ये महसूस हो रहा था कि ये न ही सुरक्षा एजेंसी है और न ही ख़ुफ़िया एजेंसी है बल्कि ये एक जांच एजेंसी है."
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सीबीआई के पास कितने मामले लंबित हैं-
गांधी ने अपने एक फ़ैसले में सीबीआई को आरटीआई के दायरे में मानते हुए जानकारी देने का निर्देश दिया था हालांकि ये फैसला बाद में हाई कोर्ट में स्टे हो गया था.
सीबीआई पर सत्ताधारी राजनीतिक दल का प्रभाव होने के आरोप लगते रहे हैं.
गांधी कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि जो भी सरकार सत्ता में होती है सीबीआई उसकी गिरफ़्त में होती है."
सीबीआई के पूर्व संयुक्त निदेशक एनके सिंह भी मानते हैं कि आज सीबीआई की विश्वसनीयता सवालों के घेरे में हैं.
सिंह कहते हैं, "सीबीआई की सक्षम, स्वतंत्र और निष्पक्ष होने की छवि लाल बहादुर शास्त्री के दौर में थी. वो सीबीआई के सक्षम होने के पक्षधर थे. लेकिन अब हालात ऐसे नहीं हैं."
एनके सिंह ये भी मानते हैं कि यदि सीबीआई के अधिकारी चाहें तो वो सत्ताधारी दलों के दबाव को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर सकते हैं क्योंकि क़ानून सीबीआई को पर्याप्त शक्तियां देते हैं.
एनके सिंह मानते हैं कि सीबीआई को कुछ शर्तों के साथ आरटीआई के दायरे में होना चाहिए. एनके सिंह कहते हैं कि ऐसा होने से देश की इस सर्वोच्च जांच एजेंसी की ही विश्वसनीयता बढ़ेगी.
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सिंह ने कहा, "लोकतांत्रिक व्यवस्था में सीबीआई की सभी बातों को गोपनीयता में रखना ख़तरनाक भी हो सकता है. आरटीआई के दायरे से बाहर होना सीबीआई के लिए भी ठीक नहीं हैं. जहां तक जांच में समझौता न हो उसको छोड़कर सीबीआई को भी आरटीआई के दायरे में होना चाहिए इससे पारदर्शिता ही बढ़ेगी."
हालांकि एनके सिंह ये भी कहते हैं कि जिन जानकारियों के सार्वजनिक होने से जांच प्रभावित हो उन पर रोक होनी ही चाहिए. आरटीआई क़ानून के तहत पुलिस बल या अन्य संस्थान भी जांच के प्रभावित होने का तर्क देकर जानकारी को रोक सकते हैं. ये शर्त पहले से ही आरटीआई क़ानून में है.
एनके सिंह कहते हैं, "जो जांचें चल रही हैं उनके बारे में जानकारी सार्वजनिक करना जांच को प्रभावित कर सकता है और ये जनहित में भी नहीं होगा. लेकिन इसके अलावा बहुत सी बातें हैं जिनका सार्वजनिक होना पारदर्शिता को ही बढ़ावा देगा. सीबीआई भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसी है और भ्रष्टाचार से पारदर्शिता के ज़रिए ही लड़ा जा सकता है."
वहीं आरटीआई कार्यकर्ता निखिल डे मानते हैं कि सीबीआई जैसी जांच एजेंसी का आरटीआई से बाहर होना इस क़ानून को कुछ हद तक कमज़ोर ही करता है.
निखिल डे कहते हैं, "आरटीआई भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई में एक बेहद अहम हथियार है. देश के कई बड़े घोटालों के खुलासे आरटीआई से ही हुए हैं. ऐसे में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ भारत की सबसे प्रीमियर एजेंसी सीबीआई को तो आरटीआई के दायरे में होना ही चाहिए."
डे कहते हैं, "सीबीआई पहले आरटीआई के दायरे में थी. इस एजेंसी को आरटीआई के दायरे से बाहर करना इस क़ानून की मूल भावना के ख़िलाफ़ है. सीबीआई के आरटीआई के दायरे में होने से लोग भ्रष्टाचार के मामलों से जुड़ी जांचों पर निगरानी रख सकेगी."
डे कहते हैं, "आरटीआई एकमात्र क़ानून है जिसके ज़रिए जनता सरकारी दफ़्तरों में घुस पायी और जानकारियां निकाल पाई. क्योंकि सीबीआई के पास ही देश के भ्रष्टाचार के सबसे बड़े मामले जाते हैं. ये मामले बड़े नेताओं और अधिकारियों के ख़िलाफ़ होते हैं. ऐसे में सीबीआई के आरटीआई के दायरे में होने से जनता इन मामलों पर नज़र रख सकेगी."
डे कहते हैं, "जो सरकारें सीबीआई का इस्तेमाल राजनीति के लिए करना चाहती हैं वो कभी नहीं चाहेंगी की सीबीआई आरटीआई के दायरें में हो. सीबीआई का आरटीआई के दायरे से बाहर होना नेताओं के मन में जो जनता का डर है उसे भी दर्शाता है. इसमें पक्ष विपक्ष सबकी मिलीभगत है."
वहीं शैलेश गांधी कहते हैं, "मेरा मानना है कि पारदर्शिता देश के लिए बेहतर है. भ्रष्टाचार ख़त्म करने के लिए पारदर्शिता ज़रूरी है. सीबीआई में पारदर्शिता बढ़ने से देश का ही भला होगा."