कांग्रेस के लिए भी काम कर चुके हैं सीतारमण के पति, जिन्होंने की है मोदी सरकार की आलोचना
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नई दिल्ली- देश की मौजूदा अर्थव्यवस्था पर सवाल और किसी ने नहीं खुद केंद्रीय वित्त निर्मला सीतारमण के पति ने ही उठा दिया है, जिनके कंधों पर देश की इकोनॉमी को पटरी पर लाने की जिम्मेदारी है। जाहिर है कि जब वित्त मंत्री का पति ही कहे कि अर्थव्यव्था की हालत पतली है और सरकार को इसे दुरुस्त करने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे तो स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है। सीतारमण के पति पराकला प्रभाकर ने ये भी कहा है कि सरकार इकोनॉमी को सुधारने के लिए कोई रोडमैप पेश करने में भी अबतक नाकाम रही है। ऐसे में ये जानना जरूरी हो जाता है कि आखिर पराकला प्रभाकर कौन हैं, जिन्होंने अर्थव्यवस्था की हालत का इतना सूक्ष्म विश्लेषण किया है, जिसके निशाने पर खुद उनकी धर्मपत्नी भी आ रही हैं।
कौन हैं निर्मला सीतारमण के पति ?
पेशे से पॉलिटिकल इकोनॉमिस्ट पराकला प्रभाकर मौजूदा समय में एक निजी कंपनी राइट फोलियो के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं। 2 जनवरी, 1959 को जन्मे प्रभाकर की अर्थव्यवस्था और सामाजिक मामलों में अच्छी पकड़ है। वे राजनीति के भी अच्छे टिप्पणीकार और विश्लेषक माने जाते हैं। जुलाई, 2014 से जून, 2018 के बीच वे आंध्र प्रदेश सरकार यानि चंद्रबाबू नायडू के कार्यकाल में राज्य के संचार सलाहकार की भूमिका भी निभा चुके हैं। तब एन चंद्रबाबू नायडू ने उन्हें प्रदेश में कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया था। पराकला प्रभाकर ने कई वर्षों तक आंध्र प्रदेश के टेलीविजन चैनलों में करेंट अफेयर्स के प्रोग्राम की ऐंकरिंग भी की ही। ईटीवी-2 पर प्रतिध्वनि और एनटीवी पर नमस्ते आंध्र प्रदेश नाम के कार्यक्रमों को उन्होंने पेश किया। इनके टीवी शो में मुख्य तौर पर लोगों से जुड़े मुद्दे को ही तरजीह दी जाती थी। लेकिन, राजनीति में उनकी पहचान इससे भी गहरी है।
राजनीतिक परिवार में ही पैदा हुए प्रभाकर
सियासत से पराकला प्रभाकर का नाता निर्मला सीतारमण से भी काफी पुराना रहा है। आंध्र प्रदेश के वेस्ट गोदावरी जिले के नारासापुरम में जन्मे प्रभाकर की मां आंध्र प्रदेश विधानसभा की सदस्य थीं। जबकि, उनके पिता पराकला सेशावतारम लंबे वक्त तक आंध्र प्रदेश विधानसभा के विधायक थे। 1970 और 1980 के दशक में लगातार तीन बार वे राज्य कैबिनेट में मंत्री के रूप में भी शामिल रहे। वे पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव के बेहद करीबी थे। यही वजह है कि जब राव प्रधानमंत्री बन गए तो उन्होंने अपने मित्र के बेटे पराकला प्रभाकर को पूर्व पीएम राजीव गांधी की याद में बन रहे राजीव गांधी नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर यूथ डेवलपमेंट में विशेष योगदान देने के लिए ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी नियुक्त किया। इसी दौरान कांग्रेस पार्टी ने फ्रेंच कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्ण अधिवेशन में पार्टी के प्रतिनिधि के तौर पर उन्हें पेरिस भी भेजा। जाहिर है कि बचपन से राजनीतिज्ञों के बीच रहने से उनमें इकोनॉमी को समझने के साथ ही राजनीति की भी अच्छी समझ विकसित हुई है।
जेएनयू से राजनीति में पहला कदम
प्रभाकर ने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से डॉक्टरेट किया है और जेएनयू से उन्होंने एमए और एमफिल की डिग्री हासिल की है। प्रभाकर और निर्मला सीतारमण की एक बेटी भी है। वे शुरू से आंध्र प्रदेश राज्य के विभाजन के विरोधी रहे हैं। एकजुट आंध्र प्रदेश की सोच के साथ शुरू हुए विसालाआंध्रा महासभा से भी वे जुड़े रहे। इसकी वजह से उनपर हमला भी हो चुका है और तब इस आंदोलन से जुड़ी उनकी किताबें भी छीनकर जला दी गई थीं। बाद में जनता का समर्थन नहीं मिलने के चलते उनका ये आंदोलन खत्म हो गया। चुनावी राजनीति में उन्होंने तब कदम रखा था, जब वे जेएनयू में पढ़ते थे। वे कांग्रेस की छात्र इकाई एनएसयूआई से जेएनयू छात्र संघ के चुनाव में अध्यक्ष पद के उम्मीदवार बने थे, लेकिन एसएफआई के उम्मीदवार से हार गए। हालांकि, इस चुनाव के बाद से जेएनयू में एनएसयूआई हार कर भी मुख्यधारा की छात्र इकाई बन गई। इसी के चलते 1984 में उन्हें कांग्रेस ने एनएसयूआई का अखिल भारतीय उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया। लेकिन, 1986 में आगे की पढ़ाई के लिए लंदन चले जाने के बाद उनके राजनीतिक करियर में ठहराव आ गया। लेकिन, जब 1991 में वे दोबारा देश लौटे तक अपने गृहनगर आंध्र प्रदेश के वेस्ट गोदावरी जिले के नारासापुरम से राजनीतिक गतिविधियों की फिर से शुरुआत की।
चुनावी राजनीति में भी कई बार भाग्य आजमाया
1994 में उन्होंने आंध्र प्रदेश की उसी नारासापुरम सीट से विधानसभा चुनाव में भाग्य आजमाया जहां से उनके माता-पिता चुनाव जीता करते थे। लेकिन, उस चुनाव में एनटी रमाराव की आंधी में कांग्रेस हवा हो गई और प्रभाकर 20,000 से भी ज्यादा वोटों से चुनाव हार गए। हालांकि,उस चुनाव में भी उन्होंने प्रचार के लिए ऑडियो-विडियो माध्यम का बखूबी इस्तेमाल किया था, जो उस दौर में बहुत कम दिखाई पड़ते थे। इसके बाद भी वे कांग्रेस और बीजेपी के टिकट पर विधानसभा और लोकसभा के 4 चुनाव लड़े, हालांकि कभी जीत नहीं पाए। बाद में उन्होंने चुनावी राजनीति से किनारा कर लिया। बीजेपी में रहने के दौरान वे आंध्र प्रदेश में पार्टी के प्रवक्ता भी बनाए गए। लेकिन, ज्यादा दिन तक यहां भी टिक नहीं पाए। बाद में जब चिरंजीवी की प्रजा राज्यम पार्टी बनी तो वे उसके संस्थापक महासचिवों में शामिल हो गए। पार्टी ने उन्हें अपना प्रवक्ता बनाया। लेकिन, उनकी ये पारी भी ज्यादा दिन नहीं चली और वे सक्रिय राजनीति से पूरी तरह दूर हो गए। हालांकि, पॉलिटिकल ऐंकरिंग के जरिए उन्होंने अपने अंदर मौजूद इकोनॉमी और पॉलिटी दोनों को अभी भी जीवंत बनाए रखा है।
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