आख़िर कहां जाएं गुजरात के मुसलामान
बीजेपी ने इस बार किसी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया जबकि कांग्रेस ने केवल 6 मुसलमानों को उम्मीदवार बनाया है.
नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो मणिनगर से विधानसभा चुनाव लड़ते थे. मणिनगर से वो 2002, 2005 और 2012 में विधायक चुने गए. जब आप मणिनगर आएंगे और विकास के जो लोकप्रिय पैमाने हैं उसमें वो बिलकुल फिट दिखता है.
लेकिन बगल की मुस्लिम बस्ती शाह आलम में जाएं तो लगता है कि ये नागरिक और इलाक़ा किसी और मुल्क के हैं. यहां महिलाएं बताती हैं कि उनके इलाक़े से पानी की पाइपलाइन गई है लेकिन उन्हें पानी नहीं मिलता है. इसी बस्ती में एक तालाब है जहां 2002 के दंगों में कुछ लाशें मिली थीं.
स्थानीय पत्रकार भी विकास में भेदभाव की बात स्वीकार करते हैं. यहां झाड़ू बनाने का काम दिन-रात चलता है. झाड़ू से सफ़ाई होती है लेकिन इस बस्ती के लोग जिस गंदगी में रह रहे हैं वहां वो झाड़ू कभी काम नहीं आएगी.
यहां 14 दिसंबर को वोटिंग है और शाह आलम के लोगों को ना कांग्रेस से कोई उम्मीद है ना ही बीजेपी से. कहकशा पठान के पति 2002 के दंगों में पुलिस की गोली से मारे गए थे. वो कहती हैं, "कोई आए क्या फ़र्क़ पड़ता है."
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आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं
सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने इस बार भी किसी मुसलमान को अपना उम्मीदवार नहीं बनाया है.
बीजेपी ने 1980 से अब तक 1998 में केवल एक मुसलमान प्रत्याशी को टिकट दिया था. कांग्रेस ने भी इस बार केवल 6 मुसलमानों को ही टिकट दिया है.
गुजरात में मुसलमानों की आबादी 9.97 फ़ीसदी है. अगर आबादी के अनुपात के हिसाब से देखें तो कम से कम 18 मुसलमान विधायक होने चाहिए जो कि कभी नहीं हुआ.
गुजरात में 1980 में सबसे ज़्यादा 12 मुसलमान विधायक चुने गए थे. गुजरात की 182 सीटों वाली विधानसभा में 25 ऐसे विधानसभा क्षेत्र हैं जहां मुसलमान मतदाता अच्छी संख्या में हैं. गुजरात में मोदी के मुख्यमंत्री बनने के बाद मुसलमानों को अल्पसंख्यक के रूप में नहीं देखा गया.
मोदी ने प्रदेश में अल्पसंख्यक विभाग भी नहीं बनाया. 2012 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम प्रत्याशियों को महज 2.37 फ़ीसदी वोट मिले थे. मुसलमानों का राजनीतिक रूप से अलग-थलग होना क्या दर्शाता है?
बीजेपी की शायना एनसी से यही मुसलमानों को टिकट नहीं दिए जाने की बात पूछी गई तो उन्होंने पार्टी का नारा जवाब में बोला- 'सबका साथ, सबका विकास.'
प्रदेश के जाने माने राजनीतिक विश्लेषक अच्युत याग्निक कहते हैं, "आज़ादी के बाद गुजरात में नियमित अंतराल पर कई दंगे हुए. इन दंगों के बाद मुसलमानों ने मान लिया कि वो यहां दोयम दर्जे के नागरिक हैं. दूसरी तरफ़ जो पढ़े-लिखे मुसलमान हैं उनकी दिलचस्पी व्यापार में है. उनके लिए कोई सरकार रहे फ़र्क़ नहीं पड़ता है."
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87 समुदायों में बंटे गुजराती मुसलमान
कई लोग इस बात को मानते हैं कि बीजेपी का प्रदेश में जैसे-जैसे उभार हुआ वैस-वैसे गुजरात में मुसलमानों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व सिमटता गया. अच्युत कहते हैं कि 'गुजरात में मुस्लिमों के बीच जो उप-जातियां हैं वो यूपी और कश्मीर से कहीं ज़्यादा है. यहां के मुसलमान 87 समुदाय में बंटे हुए हैं.'
2010 में बीजेपी ने गुजरात के स्थानीय निकाय चुनाव में मुसलमानों को टिकट दिया था और जीते भी थे. 2015 के शहरी निकाय चुनाव में बीजेपी से 350 मुसलमान उम्मीदवार जीते.
1985 में कांग्रेस के माधव सिंह सोलंकी ने खाम समीकरण बनाया था और इसमें मुसलमान भी शामिल थे. कांग्रेस मुसलमानों पर प्रदेश की सत्ता हासिल करने में निर्भर रही है. आख़िर अब ऐसा क्या हो गया?
सूरत में सोशल साइंस स्टडी सेंटर के प्रोफ़ेसर किरण देसाई कहते हैं, ''इस बार के चुनाव में कांग्रेस का जो रवैया है उससे साफ़ है कि उन्हें किसी भी तरह से गुजरात में चुनाव जीतना है. इसलिए गुजरात में कांग्रेस बीजेपी की बी टीम की तरह काम कर रही है.''
देसाई का कहना है कि इस चुनाव में कांग्रेस ने ख़ुद को बीजेपी की तरह बना लिया है. उन्होंने कहा, "राहुल गांधी मंदिर-मंदिर घूम रहे हैं और जिस तरीक़े से ख़ुद को पेश कर रहे हैं वो तरीक़ा चुनाव जीतने के लिए बीजेपी का रहा है. ऐसे भी मैं कांग्रेस को कोई सेक्युलर पार्टी नहीं मानता हूं, लेकिन फिर भी मुसलमान इतने बेदखल नहीं किए गए थे. इस बार तो कांग्रेस ने पूरी तरह से मुसलमानों को साइडलाइन कर दिया है."
मुसलमानों में कोई युवा नेता क्यों नहीं
गुजरात से अहमद पटेल के अलावा कोई मुसलमान संसद में नहीं है. 2012 में केवल दो मुसलमान ही विधायक बने थे.
भारतीय जनता पार्टी जातीय समीकरण के आधार पर टिकट देती है, लेकिन मुसलमानों के सवाल पर उसका कहना है कि वो धर्म को टिकट देने का आधार नहीं बनाती है.
मुसलमानों को गुजरात में इतनी उपेक्षा झेलनी पड़ रही है तो उनके बीच से कोई नेतृत्व क्यों नहीं उभर रहा है? इस सवाल पर किरण देसाई कहते हैं, "मुझे भी लगता है कि मुसलमानों के बीच से कोई जिग्नेश मेवानी और हार्दिक पटेल क्यों नहीं उभर रहा. पर इसके पीछे ठोस वजहें हैं. पाटीदारों की तुलना मुसलमानों से कतई नहीं कर सकते. पाटीदार गुजरात का सबसे संपन्न और ताक़तवर तबका है.''
देसाई कहते हैं, "फिर मैं दलितों से मुसलमानों की तुलना करते हुए सोचता हूं तो लगता है कि एक जिग्नेश मेवानी तो पैदा हो सकता था. लेकिन यह उम्मीद भी बेमानी है. दलितों के बीच एक विचारधारा है और गुजरात के पड़ोसी राज्य में दलित आंदोलन की उर्वर परंपरा रही है और इसका देश भर के दलितों पर प्रभाव पड़ा है."
वो कहते हैं, "इसीलिए यहां नेतृत्व का आना चौंकाता नहीं है. गुजरात में तो दंगों के बाद मुसलमान एक ही बस्तियों में सिमट गए हैं. गुजरात के मुसलमान को इस माहौल में किसी भी तरह ख़ुद बचाए रखने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे में नेतृत्व की बात तो छोड़ ही दीजिए."
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