जब बेटियों को मिली पिता के अंतिम संस्कार की सज़ा
वहीं, सामाजिक कार्यकर्ता कमला भसीन कहती हैं, ''किसी भी तरह के धार्मिक कामों से महिलाओं की दूरी बनाने का मतलब ही यही होता है कि उन्हें याद दिलाते रहो कि तुम निचले दर्ज़े के हो. पूरे इसांन तक नहीं हो. जैसा कि दलितों के साथ भी होता है. जबकि मेरा भाई होते हुए भी मैंने ख़ुद अपनी मां का अंतिम संस्कार किया था और हमें इसका कोई दैवीय प्रकोप नहीं झेलना पड़ा.''
''जब हमने ही अपने पिता का ख़्याल रखा और मदद करने कोई नहीं आया तो अंतिम समय में हम क्यों नहीं अपने पिता को मुखाग्नि दे सकते हैं?''
ये सवाल करती हैं राजस्थान की रहने वालीं मीना रेगर, जिनके परिवार को पिता का अंतिम संस्कार बेटियों से कराने की सजा भुगतनी पड़ी.
मीना का मायका बूंदी में है और वो कोटा में अपने ससुराल में रहती हैं. उनके पिता दुर्गाशंकर की मृत्यु जुलाई में हुई थी.
जब मीना और उनकी तीन बहनों ने अपने पिता का अंतिम संस्कार करने का फ़ैसला किया तो उन्हें समाज से बेदखल होना पड़ा और उस मुश्किल घड़ी में उनके रिश्तेदार भी अकेला छोड़कर चले गए.
मीना बताती हैं, ''घर का खर्च पिता के कंधों पर था लेकिन 2012 में उन्हें लकवा मार गया. तब से घर की माली हालत ख़राब होने लगी.''
''ऐसे समय में मां और हम बहनों ने ही किसी तरह घर संभाला. तब किसी ने हमारी मदद नहीं की. किसी तरह बहनों की शादी हुई और ससुराल वालों से मदद मिली.''
''एक बार पिता ने कहा था कि हमारे मुश्किल समय में किसी ने हमारी मदद नहीं की. सब तुम बहनों ने संभाला है इसलिए मुझे मुखाग्नि भी तुम्हीं देना. शायद उन्हें पता भी था कि हम ये कर लेंगे. ''
लेकिन, मीना और उनकी बहनों को इस हिम्मत की कीमत चुकानी पड़ी और जिस दिन पिता का अंतिम संस्कार हुआ उसी दिन परिवार को समाज से बाहर निकाल दिया गया.
मीना बताती हैं, ''जब पिता की अर्थी तैयार की गई तो हम बहनें उन्हें उठाने के लिए आगे आईं. ये देखते ही सब हैरान रह गए और हमें टोकने लगे. तब हमने बताया कि पापा की यही इच्छा थी लेकिन हमारे परिवार वाले ही इसका विरोध करने लगे.''
''मेरे चाचा-ताऊ तक ने कहा कि छोरियां ऐसे खड़ी हो गई हैं. हम लोग मर गए क्या! इसके बाद पापा को कंधा देने से पहले ही वो लोग चले गए.''
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समाज ने किया बाहर
लेकिन, बात यहीं तक ख़त्म नहीं हुई. जब चारों बहनें कंधे पर अपने पिता का मृत शरीर ले जा रही थीं तो पूरा गांव सकते में था. क्योंकि वहां वो हो रहा था जो कभी नहीं हुआ. फिर पंचायत ने इसका विरोध किया और उन्हें समाज से बाहर कर दिया.
मीना कहती हैं, ''हमारे यहां परंपरा है कि अंतिम संस्कार के बाद गांव में बने सामुदायिक भवन में नहाना होता है. लेकिन जब हम वहां पहुंचे तो सामुदायिक भवन पर ताला लगा हुआ था. हम समझ गए कि हमारे साथ क्या किया जा रहा है. हमें घर जाकर ही नहाना पड़ा.''
''ऐसे वक्त में लोग आपको सहारा देते हैं और मिलने आते हैं लेकिन हमें अकेला छोड़ दिया गया. परंपरा के मुताबिक जिस दिन घर में मौत होती है उस दिन खाना नहीं बनता. गांव के लोग खाना देते हैं. लेकिन, हमें किसी ने नहीं दिया. हमें रीत तोड़ते हुए घर पर ही खाना बनाना पड़ा.''
''एक तरफ़ सिर से पापा का साया हट गया और दूसरी तरफ समाज ने अलग कर दिया था. पर हम किसी भी स्थिति के लिए तैयार थे क्योंकि हमने कुछ गलत नहीं किया था.''
हालांकि, पंचायत की ये पाबंदियां ज़्यादा वक़्त नहीं चल पाई. पुलिस और मीडिया के दख़ल से वो लोग थोड़ा डर गए और पीछे हट गए.
समाज में ये परंपरा है कि माता-पिता का अंतिम संस्कार और उसके बाद की क्रियाएं बेटा ही पूरी करता है, जिनके बेटे नहीं होते उनमें ये कार्य नज़दीकी रिश्तेदारों का बेटा कर सकता है.
लेकिन, अब लोग इस परंपरा को तोड़ने भी लगे हैं. कुछ मामले ऐसे सामने आए हैं जिनमें बेटियों ने माता-पिता का अंतिम संस्कार किया है.
हाल ही में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की दत्तक पुत्री नमिता राजकुमारी ने उन्हें मुखाग्नि दी थी. नमिता, राजकुमारी कौल और प्रोफ़ेसर बी एन कौल की बेटी हैं, उन्हें वाजपेयी ने गोद लिया था.
अटल बिहारी वाजपेयी के अंतिम संस्कार का टीवी पर लाइव प्रसारण भी हुआ था और एक बेटी को मुखाग्नि देते हुए हजारों लोगों ने देखा था.
फिर भी इस तरह के उदाहरण अभी बहुत कम हैं और समाज में इसकी स्वीकार्यता भी शुरुआती दौर में है.
लोग कहते तो हैं कि बेटियां भी उतनी ही प्यारी होती हैं जितना बेटा, लेकिन फिर भी बेटियों को अपने ही माता-पिता के अंतिम संस्कार का हक़ क्यों नहीं मिल पाता?
बेटे को ही अधिकार क्यों
इस संबंध में सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश कहते हैं, ''हमारे यहां कुछ परंपराओं के ज़रिए महिलाओं के उत्पीड़न के तरीके निकाले गए हैं. इनके ज़रिए उन्हें दोयम दर्जे पर रखा जाता है. राजस्वला (पीरियड्स) में मंदिर न जाने जैसे नियमों की तरह इसमें भी उन्हें अछूत महसूस कराया जाता है.''
''बेटे से अंतिम संस्कार कराना उसे माता-पिता पर ज़्यादा अधिकार देता है. ये मानसिकता है कि अगर बेटी से भी ये कराया जाएगा तो वो ज़्यादा अधिकार और ख़ासतौर पर संपत्ति का अधिकार न मांगने लगे. हालांकि, अब जो कानून है वो बेटियों के पक्ष में है और उन्हें ये सभी अधिकार देता हैं.''
स्वामी अग्निवेश कहते हैं कि जिस धर्म को आधार बनाकर ये परंपराएं चल रही हैं वो ही इसे गलत मानता है. वेदों उपनिषदों में भी ऐसे किसी भेदभाव की बात नहीं की गई है बल्कि बराबरी का दर्ज़ा दिया गया है. बदलते समय के साथ लोगों को इन रुढ़ियों को छोड़ना चाहिए. बेटियों को अपने माता-पिता पर पूरा अधिकार मिलना चाहिए.
वहीं, सामाजिक कार्यकर्ता कमला भसीन कहती हैं, ''किसी भी तरह के धार्मिक कामों से महिलाओं की दूरी बनाने का मतलब ही यही होता है कि उन्हें याद दिलाते रहो कि तुम निचले दर्ज़े के हो. पूरे इसांन तक नहीं हो. जैसा कि दलितों के साथ भी होता है. जबकि मेरा भाई होते हुए भी मैंने ख़ुद अपनी मां का अंतिम संस्कार किया था और हमें इसका कोई दैवीय प्रकोप नहीं झेलना पड़ा.''
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