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जब इंदिरा ने कहा, राजनीति में मोटी चमड़ी होना फ़ायदेमंद

इंदिरा गांधी के जन्मशती वर्ष पर विशेष पेशकश में आज पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह बता रहे हैं कि इंदिरा के साथ काम करने का अनुभव कैसा था.

By BBC News हिन्दी
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इंदिरा गांधी
STF/AFP/Getty Images
इंदिरा गांधी

इंदिरा गांधी को अधिकतर एक गंभीर शख्सियत के रूप में दिखाया जाता है. उन्हें एक खुशदिल, आकर्षक और दूसरों की चिंता करने वाली एक शख्सियत के रूप में कम ही दर्शाया गया है.

वो एक दमदार वक्ता थीं, राजनीति से बाहर की बातों में भी उनकी दिलचस्पी थी, वो सम्मोहित कर देने वाले आकर्षक व्यक्तित्व की मलिका थीं. उन्हें कलाकारों, लेखकों, चित्रकारों और प्रतिभावान लोगों की संगत पसंद थी और उनका सेन्स ऑफ़ ह्यूमर भी जबर्दस्त था.

31 अक्तूबर 1984 के दिन जब उनकी हत्या हुई मेरे जीवन से जैसे वसंत हमेशा के लिए चला गया. उन्होंने मुझे उत्साहित किया था कि मैं हमेशा सभी से स्नेह रखूं और हर किसी का सम्मान करूं.

मैं उनका आभारी हूं, मैं बता नहीं सकता कि उन्होंने मुझे कितना सिखाया है, कितना दिया है. शायद मैं जितना जानता हूं उन्होंने उससे भी कहीं अधिक मुझे दिया है.

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के नटवर सिंह
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वो उन लोगों के प्रति कम सहानुभुति रखती थीं जो अपनी ज़िंदगी के बारे में सोच-विचार कर फैसला लेते थे या समस्याओं का सामना करने से पीछे हटते थे. जो आडंबर करते थे उन्हें उनकी एक तीखी नज़र चारों खाने चित कर देती थी और जो कायर थे उनके साथ वो वैसा ही व्यवहार करती थीं जैसा किसी उत्साहहीन व्यक्ति के साथ किया जाना चाहिए.

उन्होंने कई सामाजिक और राजनीतिक बंधनों को तोड़ा था. वो आज़ादी के एक ऐसे झोंके की तरह थीं, जो ताकत से भरपूर थी.

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मेरे लिए उनका लिखा पहला ख़त

28 अगस्त 1968 को उन्होंने अपने हाथ से मुझे एक ख़त लिखा. ये मेरे लिए उनका लिखा पहला ख़त था जो उन्होंने मेरे बेटे जगत के पैदा होने पर लिखा था. उन्होंने लिखा -

प्रिय नटवर,

मेरे सचिव ने मुझे ये खुशख़बरी सुनाई मैंने आपसे बात करने की कोशिश की, लेकिन किसी कारण से मैं पसे बात नहीं कर पाई.

आपके घर पर नन्हे मेहमान के आने पर मैं तहे दिल से आपको बधाई देती हूं. ईश्वर करे वो आपके लिए खुशियां लेकर आए और बड़ा होने पर आपको गौरवान्वित करे.

योर्स सिन्सियरली,

इंदिरा गांधी

नटवर सिंह
PRAKASH SINGH/AFP/Getty Images
नटवर सिंह

27 जनवरी 1970 को मैंने इंदिरा गांधी को एक छोटा सा नोट भेजा.

आपको सही तरीके से संबोधित करने की (प्रिय मैडम, मैडम, प्रिय मिसेज़ गांधी, प्रिय श्रीमती गांधी, प्रिय प्रधानमंत्री) काफी कोशिशों के बाद मैंने हार कर सोचा कि मैं ये ख़त एक नोट रूप में लिखूं. मैंने लिखा -

दो हफ्तों से अधिक हो चुके हैं और मैं घर पर लकड़ी के बने सख्त बिस्तर पर पड़े रहने को मजबूर हूं क्योंकि मैं स्लिपडिस्क से परेशान हूं. 11 तारीख को मैं अपने बेटे जगत को फर्श पर पड़ा टेडी बीयर उठा कर देने के लिए झुका और ये हादसा हो गया. मुझे लगता था कि जब मैं चालीस का होऊंगा तो मेरे पास खुश होने की अधिक वजहें होंगी और इस उम्र में दर्द कम होगा. मैं इन दिनों दिल्ली से दूर हूं जो इस पीड़ा को और दुखदायी बना देता है. और ये बर्दाश्त के बाहर इसलिए भी है क्योंकि मैं बस ऐसे ही पड़ा हुआ हूं.

मेरा मुख्य काम है सोए रह कर छत की तरफ ताकते रहना और इस बारे में बिल्कुल ना सोचना कि इसे अब पेंट करने की ज़रूरत आ गई है.

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'पिता होने के नुक़सान भी होते हैं'

जनवरी 30 को इंदिरा का जवाब आ गया. उन्होंने लिखा-

मैं जानती हूं कि आप छुट्टी पर हैं, लेकिन मुझे इस बात का कोई अंदाज़ा नहीं था कि आप बीमार हैं और इस कारण काम पर नहीं आ रहे हैं. मुझे पता है कि स्लिप डिस्क कितना दुखदायी हो सकता है. हमारी संवेदनाएं आपके साथ हैं, लेकिन इस वजह से आपको अपने बीते कल, आज और आने वाले कल के बारे में सोचने का वक्त मिलेगा जिसकी हममे से सभी को वक्त-वक्त पर ज़रूरत होती है.

आप सोच सकते हैं कि दिल्ली में गणतंत्र दिवस के दौरान पूरे हफ्ते कैसा माहौल रहता है,ख़ास कर तब जब हमारे सामने ज्वलंत मुद्दे होते हैं और विदेश से आए वीआईपी हमारे देश में होते हैं. मैं कल सवेरे एक दौरे के लिए जा रही हूं. उम्मीद है कि आप जल्द स्वस्थ होकर लौटेंगे.

क्या आपको याद है कि केपीएस मेनन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था? उन्हें अजंता की मूर्ति की मुद्रा में कुछ देर तक खड़े रहना पड़ा था. अब आप जानते हैं कि पिता बनने के भी कुछ नुकसान तो होते हैं!

जब नाराज़ हो गए थे यासिर अराफ़ात

यासिर अराफात
Chris Hondros/Getty Images
यासिर अराफात

7 मार्च 1983 को गुटनिरपेक्ष आंदोलन का सातवां सम्मेलन होना था. ये सम्मेलन नई दिल्ली के विज्ञान भवन में हुआ था. मैं उस वक्त सेक्रेटरी जनरल था.

सम्मेलन के पहले ही दिन हमें एक बड़ी मुसीबत का सामना करना पड़ा कि हम फलस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन (पीएलओ) के चेयरमैन यासिर अराफ़ात को कैसे शांत करें. उनके भाषण से पहले जॉर्डन के राजा को बोलने दिया गया था जिस कारण वो अपमानित महसूस कर रहे थे.

उन्होंने फैसला किया कि दोपहर के खाने के बाद वो दिल्ली से लौट जाएंगे. मैंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को फ़ोन किया कि क्या वो विज्ञान भवन आ सकती हैं. मैंने उनसे ये भी कहा कि वो क्यूबा के राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो के साथ आएं. उन्होंने कास्त्रो को सारी बातें बताईं जिन्होंने तुरंत अराफ़ात के लिए संदेश भिजवाया.

जब कास्त्रो ने इंदिरा की मदद की..

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फिदेल कास्त्रो
STIG NILSSON/AFP/Getty Images
फिदेल कास्त्रो

कास्त्रो ने अराफ़ात से पूछा, "क्या आप इंदिरा गांधी के मित्र हैं." अराफात ने कहा, "दोस्त, वो मेरी बड़ी बहन हैं. मैं उनके लिए कुछ भी करूंगा."

कास्त्रो ने पलटकर कहा, "तो फिर छोटे भाई की तरह व्यवहार करो और दोपहर के सेशन में हिस्सा लो." इसके बाद अराफ़ात ने सम्मेलन में हिस्सा लिया.

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साल 1983 के नवंबर में नई दिल्ली में कॉमनवेल्थ देशों का सम्मेलन हुआ. इसमें मैं मुख्य आयोजक था.

सम्मेलन के दूसरे दिन एक बड़ी समस्या खड़ी हो गई. प्रधानमंत्री को पता चला कि महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय राष्ट्रपति भवन में मदर टेरेसा को 'ऑर्डर ऑफ़ मेरिट' से सम्मानित करने के लिए एक समारोह का आयोजन कर रही हैं.

महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय और इंदिरा गांधी
Keystone/Hulton Archive/Getty Images
महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय और इंदिरा गांधी

प्रधानमंत्री ने मुझे आदेश दिया कि मैं सच्चाई की जांच करूं. मैंने ऐसा ही किया और मुझे पता चला कि राष्ट्रपति भवन में वाकई समारोह का आयोजन किया जा रहा था. लेकिन राष्ट्रपति भवन में खुद राष्ट्रपति के अलावा कोई और इस तरह के समारोह का आयोजन नहीं कर सकता.

प्रधानमंत्री ने मुझसे कहा कि मैं ब्रिटेन की प्रधानमंत्री मार्ग्रेट थैचर को बता दूं कि महारानी को राष्ट्रपति भवन में अधिष्ठापन समारोह का आयोजन करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती. मिसेज़ थैचर ने कहा कि जगह बदलने के लिए अब काफी देर हो चुकी है और अब ऐसा करने से महारानी नाराज़ हो जाएंगी. मैंने यही बात इंदिरा जी को बता दी.

वो इस बात से नाराज़ हो गईं और उन्होंने मुझे दोबारा मिसेज़ थैचर से बात करने के लिए कहा और कहा कि मैं उन्हें बताऊं कि दूसरे दिन ये मुद्दा संसद में उठेगा और महारानी की आलोचना होगी. इस बात ने जैसे समस्या को सुलझा दिया और समारोह का आयोजन नहीं हुआ. महारानी ने मदर टेरेसा को राष्ट्रपति भवन से बगीचे में 'ऑर्डर ऑफ़ मेरिट' से सम्मानित किया.

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मदर टेरेसा
John Minihan/Evening Standard/Getty Images
मदर टेरेसा

ये राहत की बात थी कि जो कुछ हुआ उसके बारे में मदर टेरेसा को कोई जानकारी नहीं थी.

कॉमनवेल्थ सम्मेलन के आख़िरी दिन मैंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलने की इजाज़त मांगी. मैंने उन्हें बताया कि मैं 31 साल से भारतीय विदेश सेवा का हिस्सा रहा हूं और अब इस काम को अलविदा कहना चाहता हूं. मैंने कहा कि अगर वो इजाज़त दें तो मैं राजनीति में कदम रखना चाहता हूं. उन्होंने मुझे इसकी इजाज़त दे दी.

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मैंने 28 नवंबर को साउथ ब्लॉक में उनसे मुलाक़ात की. मैंने उन्हें बताया कि एक-दो दिन के भीतर मैं भरतपुर के लिए रवाना हो जाऊंगा और अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करूंगा. मेरी पहली प्राथमिकता होगी कि मैं अपने लिए नए कपड़े यानी खादी का कुर्ता पजामा और जवाहर कोट खरीदूं.

उन्होंने कहा, "अब आप राजनीति में कदम रख रहे हैं इसमें मोटी चमड़ी का होना हमेशा फायदेमंद होता है."

(कांग्रेस के नेता नटवर सिंह पूर्व विदेश मंत्री रह चुके हैं. कुछ वक्त के लिए वो विदेश मंत्रालय में सचिव के तौर पर काम कर चुके हैं. अपनी आत्मकथा 'वन लाइफ़ इस नॉट एनफ़' में उन्होंने इंदिरा गांधी और गांधी परिवार के बारे में लिखा है. )

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English summary
When Indira said that it is beneficial to have thick skin in politics
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