जब जॉर्ज फ़र्नांडिस ने चीन को बताया था दुश्मन नंबर-1
90 साल पहले आज ही के दिन पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडिस का जन्म हुआ था. चीन पर उनके विचारों के बारे में बता रहे हैं रेहान फ़ज़ल.
जॉर्ज फ़र्नांडिस हमेशा से साफ़ और खरा बोलने के आदी थे. विवादों से उनका हमेशा चोली दामन का साथ रहा.
उनसे आप किसी भी तरह का सवाल पूछ सकते थे. वो कभी 'ऑफ़ द रिकॉर्ड' बोलना पसंद नहीं करते थे.
ऐसे ही एक इंटरव्यू में जब उन्होंने कहा कि 'चीन हमारा प्रतिद्वंदी बल्कि दुश्मन नंबर 1 है' तो पूरे भारत में सनसनी मच गई थी.
हुआ ये कि 1998 में उन्होंने होम टीवी के 'फ़ोकस विद करन' कार्यक्रम में करन थापर को दिए इंटरव्यू में बिना लागलपेट के कहा कि "हमारे देशवासी वास्तविकता का सामना करने से झिझकते हैं और चीन के इरादों पर कोई सवाल नहीं उठाते. जिस तरह से चीन पाकिस्तान को मिसाइलें और म्यांमार के सैनिक शासन को सैनिक सहायता दे रहा है और भारत को ज़मीन और समुद्र के ज़रिए घेरने की कोशिश कर रहा है, उससे तो यही लगता है कि वो हमारा भावी दुश्मन नंबर 1 है."
उनके इस वक्तव्य ने भारत की विदेश नीति बनाने वालों के साथ-साथ चीन की सरकार में चोटी पर बैठे नेताओं और अधिकारियों को भी एक तरह से हिला दिया था.
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चीनी थलसेनाध्यक्ष के जाने का किया इंतज़ार
दिलचस्प बात ये है कि जब फ़र्नांडिस चीन के लिए इतने कड़े शब्दों का प्रयोग कर रहे थे, उन्हीं दिनों चीनी थल सेना के प्रमुख जनरल फ़ू क्वान यू भारत की यात्रा पर आए हुए थे.
फ़र्नांडिस ने उस इंटरव्यू के प्रोड्यूसर को फ़ोन कर कहा था कि वो चीनी जनरल के भारतीय ज़मीन पर रहते उस इंटरव्यू का प्रसारण न करें, क्योंकि प्रधानमंत्री वाजपेई चीन से किसी तरह के विवाद में नहीं पड़ना चाहते.
फ़र्नांडिस के अनुरोध पर उस इंटरव्यू को दो सप्ताह तक रोका गया और चीनी थल सेनाध्यक्ष के जाने के दो हफ़्ते बाद ही उसे प्रसारित किया गया. लेकिन ये बात साफ़ है कि यहाँ फ़र्नांडिस की ज़ुबान नहीं फिसली थी क्योंकि कुछ दिनों बाद कृष्ण मेनन मेमोरियल लेक्चर में उन्होंने ये बात फिर दोहराई.
पोर्ट ब्लेयर की यात्रा से लौटते समय जब एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि क्या भारत-चीन सीमा पर अपने सैनिक हटाने की योजना बना रहा है तो फ़र्नांडिस ने कहा 'बिल्कुल नहीं', जिसका कई हल्कों में संदर्भ से हटकर अर्थ लगाया गया.
- जॉर्ज फ़र्नांडिस कुछ कर गुज़रने को बेचैन रहते थे
- जॉर्ज फ़र्नांडिस के सियासी ख़ात्मे के लिए कौन था ज़िम्मेदार
चीन के ख़िलाफ़ पहले भी बोलते रहे थे फ़र्नांडिस
ये पहला मौक़ा नहीं था जब जॉर्ज ने चीन के ख़िलाफ़ टिप्पणी की हो. उस ज़माने में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़ के डीन और जाने-माने चीन विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर जीपी देशपाँडे एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाया करते थे.
वीपी सिंह सरकार में रेल मंत्री बनने के बाद जॉर्ज ने अपना पहला वक्तव्य तिब्बत की आज़ादी के बारे में दिया था.
"जब मैं चीन गया तो मुझसे इस बारे में हर जगह सवाल पूछे जाते. मैं उनसे यही कहता कि जॉर्ज भारत के रेल मंत्री हैं, प्रधानमंत्री या विदेश मंत्री नहीं. मैं ये सफ़ाई देते देते तंग आ गया था कि भारत की तिब्बत नीति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है."
लेकिन तब और अब के हालात में फ़र्क इतना था कि अब जॉर्ज भारत के रक्षा मंत्री थे और उनकी इस टिप्पणी ने प्रधानमंत्री कार्यालय और विदेश मंत्रालय को परेशानी में डाल दिया था.
चीन और भारत में कड़ा विरोध
फ़र्नांडिस की इस टिप्पणी के एक दिन बाद जब वायस ऑफ़ अमेरिका के संवाददाता ने चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ज़ू बाँग ज़ाओ से इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि 'फ़र्नांडिस का ये कथन इतना हास्यास्पद है कि हम इसका खंडन करने की भी ज़रूरत नहीं समझते.'
उन्होंने ये ज़रूर कहा कि "फ़र्नांडिस दो पड़ोसियों के बीच बेहतर होते संबंधों में गंभीर नुक़सान पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं."
भारत में भी फ़र्नांडिस के इस कथन का ख़ासा विरोध हुआ.
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सीताराम यचूरी ने जॉर्ज पर बेहतर होते भारत चीन संबंधों में बाधा पहुंचाने का आरोप लगाया.
पूर्व प्रधानमंत्री इंदर कुमार गुजराल ने भी इसे 'एडवेंचरिज़्म' की संज्ञा दी और कहा कि ये प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई की विदेश नीति को ज़रूरी तवज्जो न देने का नतीजा है.
उन्होंने फ़र्नांडिस के साथ साथ वाजपेई पर भी हमला करते हुए कहा कि वो फ़र्नांडिस को विदेश नीति में दख़लंदाज़ी करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं.
गुजराल की इस आलोचना का ये असर हुआ कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने स्पष्टीकरण दिया कि 'रक्षा मंत्री के विचार भारत सरकार के विचारों की नुमाइंदगी नहीं करते और भारत की चीन नीति में कोई आमूल परिवर्तन नहीं हुआ है.'
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प्रधानमंत्री कार्यालय ने बनाई दूरी
विदेश मंत्रालय ने सफ़ाई देकर प्रधानमंत्री वाजपेई को फ़र्नांडिस की टिप्पणी से दूर करने की भरसक कोशिश की. उसकी तरफ़ से कहा गया कि जनता पार्टी सरकार में विदेश मंत्री के तौर पर वाजपोई ने चीन के साथ संबंध सामान्य करने में व्यक्तिगत रुचि ली थी.
पीएमओ के एक अधिकारी ने तो यहाँ तक कहा कि इस समय फ़र्नांडिस का ऐसा कहना अनुचित और ग़ैर ज़रूरी है. इससे कुछ हल्कों में ये कयास भी लगने लगे कि कहीं वाजपेई अपने लिए किसी दूसरे रक्षा मंत्री की तलाश में तो नहीं लग गए?
उधर कुछ हल्कों में ये भी कहा गया कि कहीं भारत की विदेश नीति बनाने वाले फ़र्नांडिस की आड़ लेकर चीन को वास्तविकता बताने की कोशिश तो नहीं कर रहे? लेकिन वाजपेई ने निजी तौर पर फ़र्नांडिस के कथन का समर्थन या विरोध करने में कोई पहल नहीं दिखाई.
पूर्व विदेश सचिव एपी वैंकटेश्वरन ने कहा कि 'अगर वाजपेई ऐसा करते तो वो चीन के हाथों में खेलते दिखाई देते. और जैसे ही चीनियों को इस बात का अंदाज़ा होता है कि आप उन्हें ख़ुश करने के लिए झुक रहे हैं तो वो इसका फ़ायदा उठाने में चूकते नहीं.'
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ड्रैगन को जगाने से तुलना
लेकिन फ़र्नांडिस के ऐसा करने के पीछे एक पृष्ठभूमि रही है. वो हमेशा से ही अपने कम्युनिस्ट विरोधी विचारों के लिए जाने जाते रहे हैं और तिब्बत और म्यांमार के प्रजातंत्र समर्थक आंदोलन का उन्होंने तहेदिल से साथ दिया है.
विदेश मंत्रालय के एक और अधिकारी ने इस मुद्दे पर रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री कार्यालय और विदेश मंत्रालय के बीच चल रही नोक-झोंक पर एक दिलचस्प टिप्पणी की कि 'पहले तो आपने सोते हुए ड्रेगन का जगाया. जब वो जाग गया तो आपने उसे लाल कपड़ा दिखाया और जब ड्रेगन आग उगलने लगा तो आप बचने के लिए इधर -उधर भागने लगे.'
चीन की तरफ़ से एक दिलचस्प टिप्पणी उस समय इंस्टीट्यूट ऑफ़ चाइनीज़ स्टडीज़ के सह प्रमुख प्रोफ़ेसर टैन चुँग की तरफ़ से आई.
उन्होंने कहा, "चीनियों की याददाश्त बहुत अच्छी है. भारत के लोग लापरवाही से बोलते हैं, चीनी नहीं."
इस पूरे प्रकरण से सबसे ज़्यादा ख़ुशी पाकिस्तान को हुई क्योंकि पहली बार उसे लगा कि भारत की सरकार पाकिस्तान की तुलना में चीन को ज़्यादा तवज्जो दे रही थी.