जम्मू-कश्मीर के सियासी ड्रामे के पीछे आख़िर क्या: नज़रिया
पाँच महीनों तक, लगभग सभी पार्टियाँ विधानसभा भंग करने की मांग करती रहीं और इस मांग का बीजेपी पुरज़ोर विरोध करती रही. विधानसभा को निलंबित रखने का फ़ैसला शायद इसलिए किया गया था कि बीजेपी कुछ समय के लिए ही सही अपने सहयोग से मुख्यमंत्री बना सकेगी और वो भी संभवत जम्मू क्षेत्र से. इससे पार्टी को 2019 के लोकसभा चुनावों में भी मदद मिलती.
कश्मीर के बारे में ये बात सच है कि यहाँ के मौसम, हालात और सियासत के बारे में भविष्यवाणी करना मुश्किल है.
बुधवार को जम्मू-कश्मीर में जो सियासी ड्रामा हुआ वो इसकी मिसाल है. बीजेपी और पीडीपी का गठबंधन टूटने के बाद पाँच महीने पहले इस बेहद संवेदनशील राज्य में राज्यपाल शासन लगा दिया गया था.
विधानसभा को इस उम्मीद में निलंबित रखा गया था कि शायद नई सरकार की संभावनाएं बनें. बुधवार को पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस ने संकेत दिया कि वे मिलकर सरकार बनाने के लिए तैयार हैं. फॉर्मूला ये था कि कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस महबूबा मुफ्ती को सरकार बनाने के लिए समर्थन देंगी.
जब महबूबा का ख़त जम्मू (सर्दियों में जम्मू-कश्मीर की राजधानी) स्थित राजभवन पहुँचा तो राजनीतिक गतिविधियों में अचानक से तेज़ी आ गई. एक घंटे बाद ही राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने अपने संवैधानिक अधिकारों का हवाला देते हुए विधानसभा को भंग कर दिया. अभी इस विधानसभा का कार्यकाल दो साल से अधिक बचा हुआ था.
अब राज्यपाल की कार्रवाई को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं. मीडिया में इस बात पर चर्चा हो रही है कि गवर्नर के इस क़दम से कैसे जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र कमज़ोर हुआ. सवाल और बहस अपनी जगह बरकरार हैं, लेकिन यहाँ ये समझना अधिक ज़रूरी है कि विधानसभा भंग करने का फ़ैसला इतनी जल्दी क्यों ले लिया गया, और तब क्यों नहीं जब कांग्रेस, पीडीडी और नेशनल कॉन्फ्रेंस पिछले चार महीनों से यही राग अलाप रही थीं.
संघ परिवार के लिए कश्मीर तभी से बेहद अहम मसला है, जबसे ये भारतीय राजनीति की सियासत में हाशिये पर है. कश्मीर के विशेष दर्जे और इससे जुड़े विवादों को लेकर बातें तो बहुत होती हैं, लेकिन जब बात काम करने की आती है तो कुछ नहीं होता. जम्मू क्षेत्र में नरेंद्र मोदी बहुत तेज़ी से उभरे और संघ परिवार का उन्हें भरपूर समर्थन मिला. 2014 के राज्य विधानसभा के चुनावों में बीजेपी राज्य में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी.
घाटी में बीजेपी का गणित
विधानसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं था. पीडीपी बेशक राज्य विधानसभा की सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन वो जम्मू क्षेत्र में भारी बहुमत से जीती बीजेपी की अनदेखी नहीं कर सकती थी. मुफ्ती मोहम्मद सईद ने बीजेपी के साथ गठबंधन किया. वाजपेयी के सिद्धांतों पर चलते हुए, बीजेपी राज्य को विशेष संवैधानिक दर्जा जारी रखने, सभी पक्षों से बातचीत को बढ़ावा देने, कई बिजली परियोजनाओं और केंद्रीय सार्वजनिक इकाइयों को राज्य में वापस लाने पर राज़ी हो गई.
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इस सहमति ने कश्मीर के नाम पर बीजेपी की ऐतिहासिक सक्रियता और सामूहिक आंदोलनों के लिए कुछ भी नहीं छोड़ा. इससे निराश एक दक्षिणपंथी गैर सरकारी संगठन ने अनुच्छेद 35-ए के कुछ संवैधानिक प्रावधानों को अदालत में चुनौती दी.
मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद कुछ महीनों तक पीडीपी-बीजेपी गठबंधन पर संशय के बादल छाए रहे, लेकिन फिर उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व में सब ठीक होता सा दिखा. लेकिन गठबंधन के न्यूनतम साझा कार्यक्रम के वादों को पूरा करने में नाकामी के कारण बीजेपी के कार्यकर्ता ख़ुद को हताश महसूस करने लगे. आख़िरकार ये सरकार मोदी की बीजेपी के लिए बोझ हो गई और उसने पीडीपी से रास्ता अलग कर लिया. सरकार गिरने से पीडीपी को ज़ोरदार धक्का लगा. उस पर आरोप लगा कि वो ऐसी पार्टी के साथ सरकार चला रही थी जिसे उसने समेटने का वादा किया था.
बीजेपी का फ़ायदा
बीजेपी के लिए फ़ायदा ये था कि उसे घाटी में अपने पैर जमाने का मौका था. जल्द ही उसने कई चेहरों को अपनी पार्टी के साथ जोड़ना शुरू किया.
पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के संस्थापक और अलगाववादी अब्दुल ग़नी लोन के बेटे सज्जाद लोन के 87 सदस्यीय विधानसभा (मनोनीत सदस्यों को मिलाकर 89) में दो सदस्य थे. बीजेपी के सहयोग से उन्होंने मुख्यमंत्री बनकर कश्मीर की राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने का इरादा किया.
सज्जाद लोन ने भी गवर्नर सत्यपाल मलिक के साथ अपनी सरकार बनाने का दावा पेश किया था.
लंबे समय से, बीजेपी कश्मीर के जनादेश को बांटने का प्रयास कर रही है. वाजपेयी के युग में, पीडीपी को नेशनल कॉन्फ्रेंस के विकल्प के रूप में रखा गया. इससे ये तय हो गया कि कश्मीर में न तो नेशनल कॉन्फ्रेंस और न ही पीडीपी ऐसी सरकार बना पाएंगी, जिनमें जम्मू क्षेत्र के सहयोगी की भागीदारी न हो. जम्मू-कश्मीर में डॉक्टर फ़ारूक़ अब्दुल्ला के नेतृत्व में किसी एक दल की सरकार बनी थी, हालाँकि 1996 के ये चुनाव खासे विवादों में रहे थे. साल 2002 में पीडीपी ने कांग्रेस के सहयोग से सरकार चलाई. साल 2008 में, उमर अब्दुल्ला ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई और दोनों ही कार्यकालों में कांग्रेस के अधिकतर विधायक जम्मू से थे. साल 2014 में, मुफ्ती ने बीजेपी के साथ गठबंधन किया.
अब सज्जाद लोन के नेतृत्व वाली पार्टी को कश्मीर घाटी में एक और दावेदार के रूप में तैयार किया जा रहा है ताकि तीसरे पक्ष के रूप में मतों का विभाजन किया जा सके. मकसद बेहद साफ है कि अल्पसंख्यक वोटों को एकजुट किया जा सके और बहुमत का बंटवारा हो, ताकि सूबे में वो दिन आए जब वो मुख्यमंत्री शपथ ले, जो जम्मू क्षेत्र का हो और कश्मीर की सियासत की अलिखित मनोवैज्ञानिक दीवार को तोड़ सके.
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नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी इस गेमप्लान को बख़ूबी जानते हैं. लेकिन, नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी दोनों की कांग्रेस के साथ 'दोस्ती' में दो अहम फ़ैक्टर हैं.
पहला, बीजेपी-पीडीपी सरकार गिरने के दिन से ही कुछ विधायकों ने खुद को पीडीपी से अलग कर लिया और सज्जाद लोन के समर्थन में आ गए. धीरे-धीरे, वे सरकार बनाने की जुगत में जुट गए. हालाँकि ये क़ानूनी रूप में बेहद कठिन था, लेकिन कश्मीर की पार्टियों को ऐसा लग रहा था कि ज़रूरत पड़ने पर बीजेपी, पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस को तोड़ने में मदद कर सकती है.
दूसरा, बीजेपी ने स्थानीय शहरी निकाय चुनावों में अपनी ताक़त दिखाई थी, हालाँकि इन चुनावों में लोगों की हिस्सेदारी बहुत कम रही थी. पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने इन चुनावों का बहिष्कार किया था. हालाँकि चुने गए लोगों पर उनका असर ज़रूर था. कश्मीर की पार्टियां इस बात को लेकर आश्वस्त थी कि श्रीनगर का मेयर उनकी ही पसंद का होगा, क्योंकि संख्या बल उनके प्रभाव में होगा. लेकिन जब बीजेपी ने इस मुद्दे पर भी अपना हाथ रख दिया तो उनका वो प्रभाव भी जाता रहा. दोनों पार्टियों ने आरोप लगाया कि अपने लोगों को जिताने के लिए बीजेपी ने धन और बल का प्रयोग किया है.
सज्जाद लोन फ़ैक्टर
महबूबा मुफ्ती के सरकार बनाने का दावा पेश करने से ठीक एक दिन पहले, पीडीपी के संस्थापकों में से एक और पूर्व उप मुख्यमंत्री मुज़फ़्फ़र बेग खुलकर सज्जाद लोन के समर्थन में आ गए. इसने दोनों पार्टियों के लिए खतरे की घंटी बजा दी. उन्हें लगा कि बीजेपी घाटी की सियासत बदलने का प्रयास कर रही है, वो वृहद कश्मीर के जनाधार के मद्देनज़र ऐसा कर रही है. कश्मीर में, सत्ता को राजनीति के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है, फिर चाहे वो वैध हो या अवैध.
पाँच महीनों तक, लगभग सभी पार्टियाँ विधानसभा भंग करने की मांग करती रहीं और इस मांग का बीजेपी पुरज़ोर विरोध करती रही. विधानसभा को निलंबित रखने का फ़ैसला शायद इसलिए किया गया था कि बीजेपी कुछ समय के लिए ही सही अपने सहयोग से मुख्यमंत्री बना सकेगी और वो भी संभवत जम्मू क्षेत्र से. इससे पार्टी को 2019 के लोकसभा चुनावों में भी मदद मिलती.
बीजेपी के इन इरादों को नाकाम करने के लिए पीडीपी, कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने महागठबंधन का एलान कर सरकार बनाने का दावा पेश किया. घबराई बीजेपी ने सज्जाद लोन से भी ऐसा ही दावा पेश करने को कहा. इससे राजभवन को विधानसभा को भंग करने का मौका मिल गया.
इस घोषणा के बाद उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती एक-दूसरे को बधाई दे रहे थे. उन्होंने अपनी पार्टियों को टूटने से बचा लिया था और विधायकों की संभावित ख़रीद-फ़रोख्त को भी रोक लिया था. एक ऐसी सियासत जो शायद घाटी की इन पार्टियों के बूते की बात नहीं है.