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उपेंद्र कुशवाहा के इस्तीफ़े से बिहार की राजनीति में क्या बदलेगा?

महागठबंधन में जाने से ये तो तय है कि उपेंद्र कुशवाहा के पास अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाने का मौका होगा. अभी बिहार विधानसभा में उनके दो विधायक हुआ करते थे, उनकी संख्या दो दर्जन से ज्यादा भी हो सकती है.

तेजस्वी यादव के राजनीतिक सलाहकार संजय यादव कहते हैं, ''महागठबंधन में सीटों को लेकर कोई समस्या नहीं होगी, हम लोग उपेंद्र जी को सम्मानजनक सीटें देकर समायोजित करेंगे और बीजेपी की फ़ासीवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ हमारी लड़ाई को उनके साथ आने से मज़बूती मिलेगी.

By BBC News हिन्दी
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उपेंद्र कुशवाहा
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उपेंद्र कुशवाहा

नरेंद्र मोदी सरकार से इस्तीफ़ा देने के साथ-साथ उपेंद्र कुशवाहा ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए का दामन छोड़ दिया है.

मोदी सरकार में उनकी हैसियत भले राज्य मंत्री की रही हो, लेकिन एक हक़ीक़त ये भी है कि पिछले कुछ सालों में बिहार की जातिगत राजनीति में उपेंद्र कुशवाहा एक ताक़त के तौर पर उभर कर सामने आए हैं.

इसका अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ महीनों में एनडीए के सहयोगी दल जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के नेता नीतीश कुमार और भारतीय जनता पार्टी की सरकार की लगातार आलोचना के बाद भी नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी ने उन्हें बाहर का रास्ता नहीं दिखाया था.

ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि आख़िर उपेंद्र कुशवाहा की राजनीति है क्या और बिहार में उनकी राजनीतिक हैसियत कितनी है? इन दो सवालों के जवाब के बाद इस बात को आंका जा सकता है कि बिहार में यूपीए का दामन थामने के बाद कुशवाहा बिहार की राजनीति को कितना बदल पाएंगे?

इन सवालों की पड़ताल शुरू करने से पहले थोड़ी बात उपेंद्र कुशवाहा और नीतीश कुमार के आपसी रिश्तों की.

उपेंद्र कुशवाहा
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उपेंद्र कुशवाहा

थोड़ा पीछे चलते हैं, साल 2003 में, नीतीश कुमार ने उपेंद्र कुशवाहा को बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाया था. यानी बिहार विधानसभा में मुख्यमंत्री के बाद सबसे ताक़तवर कुर्सी कुशवाहा के पास रही.

नीतीश कुमार के साथ अपने संबंधों को लेकर उपेंद्र कुशवाहा कई बार दोहरा चुके हैं कि वे उन्हें अपना बड़ा भाई मानते रहे हैं. लेकिन 2003 के बाद जब 2005 में नीतीश कुमार पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने उपेंद्र कुशवाहा से उनका बंगला खाली कराने के लिए उनकी ग़ैरमौजूदगी में उनके घर का सामान तक बाहर फिंकवा दिया.

कुशवाहा आज तक उस बात को नहीं भूल पाए हैं कि जिस शख़्स को बिहार का मुख्यमंत्री बनवाने के लिए वे दिन रात एक करके बिहार के इलाकों में घूम रहे थे, उसने सत्ता आते ही घर में मौजूद उनकी अकेली मां की परवाह नहीं करते हुए घर का सारा सामान सड़कों पर फिंकवा दिया था.

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कुशवाहा समता पार्टी से बाहर निकले, राष्ट्रीय समता पार्टी बनाई और अपनी राजनीतिक जमीं बनानी शुरू कर दी, 2009 के लोकसभा चुनाव में उपेंद्र कुशवाहा ने बिहार की सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए थे और इन उम्मीदवारों ने 25 हज़ार से लेकर 40 हज़ार तक वोट हासिल किए.

नीतीश के लिए मुश्किलें

नीतीश कुमार को अंदाज़ा हो गया था कि कुशवाहा उनके लिए मुश्किल खड़ी कर सकते हैं लिहाजा कुशवाहा की एक सार्वजनिक सभा में पहुंचकर उन्होंने उपेंद्र कुशवाहा को गले लगाकर सब शिकायतें दूर करने का भरोसा दिया और कुशवाहा को राज्य सभा में भेज दिया.

कुशवाहा राज्य सभा में आ तो गए लेकिन एक राजनीतिक ताकत के तौर पर उभरने का सपना वे भूल नहीं पाए और 2013 में एक दिन राज्यसभा से इस्तीफ़ा देकर वे फिर से सड़क पर आ गए. अपनी नई पार्टी बनाई राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के नाम से. 2014 में अपनी ज़ोर-आजमाइश से नरेंद्र मोदी और अमित शाह से मिलकर एनडीए में शामिल हुए और तीन सीटें हासिल कर केंद्र में मंत्री बन गए.

पीएम मोदी और नीतीश कुमार
AFP
पीएम मोदी और नीतीश कुमार

अब वे एक बार फिर मंत्रालय और बंगले से निकलकर सड़क पर आ गए हैं, लेकिन ये उनकी राजनीति के लिए कोई नई बात नहीं रही है, ऐसा कदम उठाने से पहले कई बार वे बहुत सोच-विचार नहीं करते हैं.

एनडीए से बाहर निकलने का गणित

एनडीए से बाहर निकलने का फैसला भी उन्होंने अगर 11 दिसंबर को लिया होता तो उनकी आलोचना इस बात के लिए हो सकती थी कि राज्यों के चुनाव परिणाम के बाद उन्होंने कैलकुलेट करके एनडीए से बाहर होने का फ़ैसला लिया है.

हालांकि जुलाई, 2017 में नीतीश कुमार महागठबंधन से निकलकर जिस तरह से एनडीए के खेमे में लौटे थे, उस वक़्त से ये ही कयास लगाए जाने लगे थे कि उपेंद्र कुशवाहा एनडीए में लंबे समय तक नहीं रह पाएंगे.

इस बीच, में वे मौका भी आया जिसमें मोदी सरकार की कैबिनेट में बदलाव होना था और नीतीश कुमार के विश्वस्त सहयोगी आरएसपी सिंह को मंत्रिमंडल में शामिल करने की बात चल रही थी.

राजनीतिक गलियारों में ये बात भी सामने आई थी कि अमित शाह ने उपेंद्र कुशवाहा से मुलाक़ात करके उन्हें मंत्रिमंडल छोड़ने को कहा था, लेकिन कुशवाहा ने खुद को ऐसे पेश किया कि उन्हें हटा भले दिया जाए वे खुद से मंत्री पद छोड़ेंगे नहीं.

ये भी एक वजह मानी जाती है कि आरएसपी सिंह इंतज़ार करते रहे और उन्हें मंत्री पद के लिए शपथ लेने वाला बुलावा नहीं आया.

ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि इस तरह के जोख़िम लेने की ताक़त उपेंद्र कुशवाहा के पास आ कहां से रही है, इसके जवाब में बिहार में जनता दल यूनाइटेड के पूर्व एमएलसी रहे प्रेम कुमार मणि बताते हैं- उपेंद्र कुशवाहा की राजनीतिक जमीं तो समाजवादियों वाली ही रही है, वे सामाजिक न्याय की राजनीति ही करते रहे हैं तो लड़ने-भिड़ने की ताकत तो उनमें ही है और उनका अपना जातिगत वोट बैंक भी है.

दरअसल, उपेंद्र कुशवाहा बिहार के जिस कुशवाहा समाज से आते हैं उसकी आबादी 6-7 फीसदी है और ये नीतीश कुमार के कुर्मी वोट बैंक से लगभग दोगुनी ताक़त है और बिहार में पिछड़े समुदाय की राजनीति में यादवों के बाद दूसरी सबसे बड़ी ताक़त. यही वजह है कि नीतीश कुमार ने जब अति पिछड़े समुदाय को अपने पक्ष में जोड़ा था तब कुशवाहा फैक्टर ने ही उनको लालू के मुक़ाबले में लाने का काम किया था.

उपेंद्र कुशवाहा ने जिस तरह से पिछले कुछ महीनों में अपनी पॉश्चरिंग की है, जिस तरह से नीतीश कुमार के ओर से नीच कहे जाने को मुद्दा बनाया है, उससे ये साफ़ झलकता है कि वे सामाजिक न्याय की राजनीति के साथ-साथ कुशवाहा समुदाय की अस्मिता को भी जगाने का काम कर रहे थे.

चुनावी गणित के लिहाज से देखें तो बिहार की 243 विधानसभा सीटों में करीब 63 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां कुशवाहा समुदाय के मतों की संख्या 30 हज़ार से ज़्यादा है. किसी भी विधानसभा में 30 हज़ार मतदाता बहुत अहम कारक हैं. इसके अलावा बाक़ी विधानसभा सीटों पर भी कुशवाहा मतदाता की संख्या मामूली नहीं है.

प्रेम कुमार मणि बताते हैं, ''अगर उपेंद्र कुशवाहा केवल आधे कुशवाहा मतदाताओं को अपनी ओर जोड़ पाते हैं तो भी ये 3 फ़ीसदी से ज्यादा बैठता है, जो दूसरे पलड़े को मज़बूत बना सकता है.''

महागठबंधन का हिस्सा बनेंगे?

उपेंद्र कुशवाहा की इस राजनीतिक हैसियत का अंदाज़ा राष्ट्रीय जनता दल की इन दिनों कमान संभाल रहे तेजस्वी यादव को पहले से ही था, लिहाजा वे साल-डेढ़ साल से उपेंद्र कुशवाहा को अपने पाले में करने की कोशिशों में लगे थे.

नीतीश कुमार
Getty Images
नीतीश कुमार

उनके राजनीतिक सलाहकार संजय यादव बताते हैं, ''उपेंद्र कुशवाहा जिस तरह से सामाजिक न्याय के मुद्दों की राजनीति करते आए हैं, उसमें वे बेमेल गठबंधन में थे, उनकी सही जगह तो महागठबंधन में ही थी और ये बात तेजस्वी जी कई बार दोहरा चुके हैं. हमलोग उनके इस कदम का स्वागत करते हैं.''

महागठबंधन में जाने से ये तो तय है कि उपेंद्र कुशवाहा के पास अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाने का मौका होगा. अभी बिहार विधानसभा में उनके दो विधायक हुआ करते थे, उनकी संख्या दो दर्जन से ज्यादा भी हो सकती है.

तेजस्वी यादव के राजनीतिक सलाहकार संजय यादव कहते हैं, ''महागठबंधन में सीटों को लेकर कोई समस्या नहीं होगी, हम लोग उपेंद्र जी को सम्मानजनक सीटें देकर समायोजित करेंगे और बीजेपी की फ़ासीवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ हमारी लड़ाई को उनके साथ आने से मज़बूती मिलेगी.''

ऐसे में बहुत संभव है कि बिहार में उपेंद्र कुशवाहा की राजनीतिक ताक़त जरूर बढ़ जाए लेकिन उनके मुख्यमंत्री पद तक पहुंचने की महात्वाकांक्षा को झटका लगेगा क्योंकि महागठबंधन में जाने के बाद उन्हें आरजेडी के तेजस्वी यादव के नेतृत्व में काम करने के लिए तैयार रहना होगा.

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English summary
What will change in Bihars politics with the resignation of Upendra Kushwaha
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