आगरा से शिवाजी और मुग़लों का क्या था संबंध
ये पहली बार नहीं है जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मुग़लों पर टिप्पणी की है. इसस पहले 2017 में ताजमहल पर उनके दिए बयान ने सुर्खियाँ बटोरी थी.
इतिहास हमें धरोहर देता है, वर्तमान को देखने की दृष्टि देता है.
वाक़या 1666 का है. मुगल शासक औरंगज़ेब को लग रहा था कि दक्कन में विस्तार में उनको मराठा ही चुनौती दे सकते हैं. बादशाह औरंगज़ेब ने अपने कार्यकाल में राजा जय सिंह को दक्कन पर नीति बनाने का ज़िम्मा सौंपा था. इस वजह से व्यक्तिगत रूप से नापंसद होने के बाद भी राजा जय सिंह के कहने पर औरंगज़ेब ने शिवाजी के साथ संधि करने पर अपनी हामी भरी.
मुगलों के निमंत्रण पर शिवाजी औरंगज़ेब के आगरा दरबार में पहुँचे थे. उस वक़्त मुगलों के दरबार में सिर्फ़ बादशाह ही बैठा करते थे और बाक़ी दरबारी खड़े रहा करते थे. दरबार के नियम के मुताबिक़ जिसको जितनी ऊंची मनसबदारी दी जाती थी, उसकी हैसियत उतनी ज़्यादा बड़ी होती और मुग़ल बादशाह के दरबार में उसकी पूछ उतनी ही ज़्यादा होती थी.
वो आगे की पंक्ति में खड़े होते थे और बाक़ी को पीछे खड़ा होना पड़ता था. मनसबदारी का अर्थ आम भाषा में 'रैंक' होता है.
शिवाजी जब औरंगज़ेब के दरबार में पहुँचे, तो उनको 5000 वाली मनसबदारी दी गई. जबकि वो 7000 वाली मनसबदारी चाहते थे. इसलिए वो नाराज़ हो गए. भरी सभा में उन्होंने अपनी नाराज़गी जाहिर की. जिसके बाद औरंगज़ेब ने उन्हें क़ैद कर लिया था.
कुछ महीनों तक शिवाजी उनकी क़ैद में रहे. वहाँ से कैसे छूटे इसके कई क़िस्से इतिहास में मौजूद हैं. कुछ किताबों में जिक्र है कि एक वक़्त जेल में जब मिठाई और फल बाँटे जा रहे थे, तो वो उसी टोकरी में बैठ कर अपनी जान बचा पाए.
ऐसी ही एक किताब है अमरीकी इतिहासकार बर्टन स्टेन की. बर्टन स्टेन ने भारत पर कई किताबें लिखी है. उनकी किताब 'ए हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया' में भी इस प्रकरण का ज़िक्र 178 पन्ने पर मिलता है. शिवाजी अपने जीवन में सिर्फ़ एक बार ही आगरा गए और ये क़िस्सा उसी वक़्त का है.
आज इस पूरे क़िस्से को सुनाने के पीछे एक कारण है.
योगी, आगरा और ताजमहल
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को मराठा नेता छत्रपति शिवाजी महाराज की याद आई है. अपने एक ट्वीट में उन्होंने शिवाजी को अपना नायक बताया है.
उन्होंने सोमवार को फ़ैसला किया कि आगरा में बन रहे निर्माणाधीन म्यूज़ियम को छत्रपति शिवाजी महाराज के नाम से जाना जाएगा. इतना ही नहीं उन्होंने ये भी कहा कि नए उत्तर प्रदेश में ग़ुलामी की मानसिकता के प्रतीक चिन्हों का कोई स्थान नहीं हैं.
अगर बाबर न आता तो भारत कैसा होता?
...तो मुग़लों से आज़ादी का जश्न मनाया जाता?
आगरा में निर्माणाधीन म्यूजियम को छत्रपति शिवाजी महाराज के नाम से जाना जाएगा।
आपके नए उत्तर प्रदेश में गुलामी की मानसिकता के प्रतीक चिन्हों का कोई स्थान नहीं।
हम सबके नायक शिवाजी महाराज हैं।
जय हिन्द, जय भारत।
— Yogi Adityanath (@myogiadityanath) September 14, 2020
आगरा म्यूज़ियम की कहानी
जिस म्यूज़ियम के बारे में योगी आदित्यनाथ कह रहे थे, उसको उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 2015 में मंज़ूरी दी थी. आगरा में ताजमहल के पूर्वी गेट के पास क़रीब डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर ये संग्रहालय परियोजना तैयार करने की बात थी.
इसके लिए ताजमहल के पास छह एकड़ ज़मीन दी गई थी और इस संग्रहालय में मुग़ल संस्कृति और कलाकृतियों को प्रदर्शित किया जाना था. पाँच साल बीत जाने के बावजूद इस परियोजना में कुछ ख़ास प्रगति नहीं हो पाई है.
समीक्षा बैठक के दौरान मुख्यमंत्री ने निर्माण कार्य में तेज़ी लाने के निर्देश दिए और साथ ही नाम बदलने पर फ़ैसला सुना दिया.
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ताज़ा फ़रमान के बाद अब संग्राहलय में न सिर्फ़ मुग़ल साम्राज्य के इतिहास से संबंधित चीज़ें रहेंगी, बल्कि शिवाजी का इतिहास भी संग्रहालय में संरक्षित किया जाएगा.
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आगरा शहर और मुग़लों का इतिहास
इतिहास में इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि आगरा शहर सिकंदर लोदी ने 16वीं सदी की शुरुआत में बसाया था. उस वक़्त पश्चिम में विस्तार की इच्छा थी और इस लिहाज से आगरा को काफ़ी अहम माना गया. लेकिन इस शहर को असल शोहरत बादशाह अकबर के ज़माने में ही मिली.
जेएनयू में मुग़लकालीन इतिहास पढ़ाने वाले प्रोफ़ेसर नदीम शाह बताते हैं कि भारत में मुग़ल शासनकाल का दौर 16वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक माना जाता है.
1526 के पानीपत की लड़ाई के बाद मुग़ल बादशाह बाबर ने उत्तर भारत का रुख़ किया. फिर उनके बेटे हुमायूं और उनके बेटे अक़बर ने मुग़ल शासन को बुलंदियों तक पहुँचाया.
सबसे पहले मुग़लों ने अपनी राजधानी दिल्ली को ही बनाया गया था. फिर अकबर ने आगरा को चुना. अकबर के ज़माने तक जितने शहर थे उतने दुनिया में कहीं नहीं थे. आगरा का मशहूर लाल क़िला उन्होंने ही बनवाया था. बादशाह बाबर ने ही आगरा में सबसे पहले बागीचा बनवाया, जहाँ फारस से लाए गए फूल उगाए गए.
लेकिन आगरा में पानी की बहुत क़िल्लत थी. अकबर के बाद मुगल शासक जहांगीर को आगरा रास नहीं आई और उनकी दिलचस्पी लाहौर में ज़्यादा थी. फिर भी उन्होंने अपना आधार दिल्ली को ही चुना.
उसके बाद शiहजहाँ का दौर आया, उन्होंने दिल्ली में ही एक अलग जगह 'शाहजहानबाद' को चुना, जिसे आज हम पुरानी दिल्ली के नाम से जानते हैं.
आगरा में इससे पहले मक़बरे, बागीचों के साथ बना करते थे और उनमें भी लाल पत्थरों का इस्तेमाल होता था, लेकिन शाहजहाँ ने ताजमहल को सफेद पत्थरों से बनावाया ताकि दुनिया में वो ख़ूबसूरती की अलग मिसाल बन सके.
प्रोफ़ेसर शाह के मुताबिक़, औरंगज़ेब के अंतिम समय में 1695 से 1705 के बीच के आगरा आर्थिक रूप से काफ़ी संपन्न था.
लोगों की आमदनी, क़ानून व्यवस्था, आबादी हर लिहाज से आगरा में काफ़ी समृद्धि थी. उस वक़्त के देश के पाँच बड़े शहरों में आगरा पहले नंबर पर आता था. यूरोप से भारत घूमने आए यात्री कहा करते थे कि फतेहपुर सीकरी और आगरा लंदन और पेरिस से बड़े शहर हैं.
आगरा के इतिहास के बारे में प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफ़ेसर हरबंस मुखिया बताते हैं, "आगरा पहले छोटी सी जगह थी. उसको बड़े पैमाने पर बसाया मुग़लों ने ही था. बाबर से लेकर शाहजहाँ तक ने अपनी राजधानी आगरा ही रखी थी. आगरा के हर पत्थर में मुग़ल छाए हुए हैं. वहाँ से मुग़लों को निकाल पाना नामुमकिन सा है. दिल्ली से ज़्यादा मुग़लों का आगरा से संबंध रहा है."
प्रोफ़ेसर हरबंस मुखिया मुग़लकालीन इतिहास पर कई किताबें भी लिखी है, इनमें 'द मुग़ल्स ऑफ़ इंडिया' भी एक है.
वो आगे कहते हैं, "बाबर और हुमायूं तो बाहर से आए थे. अगर एक बार के लिए ये मान भी लिया जाए. लेकिन अकबर से लेकर बहादुरशाह जफ़र तक सब यहीं पैदा हुए. यहीं पर मरे. एक बार भी किसी ने भारत के बाहर क़दम नहीं रखा. 18वीं शताब्दी में जब मुग़लों का पतन होना शुरू हो गया, उससे पहले तक हिंदुस्तान दुनिया का सबसे अमीर देश हुआ करता था. दुनिया की दौलत का एक चौथाई हिस्सा भारत में हुआ करता था. मुग़लों के समय में भारत का ये मान था. और जब अंग्रेज़ 1947 में भारत से गए तो दुनिया की दौलत का एक प्रतिशत ही भारत में रह गया था."
जेएनयू के प्रोफ़ेसर नदीम शाह शिवाजी का एक दूसरा पक्ष सामने रखते हैं. उनके मुताबिक़ आगरा से वापस आने के बाद भी मराठाओं ने मुग़लों की मनसबदारी स्वीकार की है. शिवाजी और राजा जय सिंह के बीच में आगे भी रिश्ते रहे. शिवाजी के पूर्वजों को शाहजहाँ ने मनसबदारी दी थी. उनके दादा भी मुग़लों के मनसबदार के तौर पर काम कर चुके थे.
वे कहते हैं कि शिवाजी और मुग़लों का उतना भी दुश्मनी भरा रिश्ता नहीं रहा है, जैसा आजकल दिखाया जा रहा है. लेकिन इतिहास को देखने के भारत में अलग-अलग नज़रिए भी हैं.
भारतीय इतिहास में मध्यकाल को देखने के अलग-अलग दृष्टिकोण रहे हैं. एक दृष्टिकोण वामपंथी इतिहासकारों का है. इनका मानना है कि मध्यकाल कई लिहाज़ से काफ़ी अहम था. वामपंथी इतिहासकारों का मानना है कि मध्यकाल में तेज़ी से शहरीकरण हुआ, स्थापत्य कला और केंद्रीकृत शासन प्रणाली का विकास हुआ.
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शिवाजी और औरंगज़ेब पर दूसरा दृष्टिकोष
जेएनयू में सेंटर फ़ॉर हिस्टोरिकल स्टडीज़ के चेयरपर्सन प्रोफ़ेसर उमेश कदम नदीम शाह और हरबंस मुखिया से बिल्कुल इतर राय रखते हैं.
वे कहते हैं, "1630 से 1650 तक शिवाजी अपनी अलग सल्तनत खड़ी करना चाहते थे. उनका कार्यक्षेत्र दक्कन था और उनकी नीति थी 'दक्कन, दक्कनवासियों के लिए'. इस नाते वो किसी भी ताक़त का हस्तक्षेप दक्कन में नहीं चाहते थे. लेकिन औरंगज़ेब के साम्राज्यवादी दृष्टिकोण में शिवाजी सबसे बड़ा रोड़ा थे, क्योंकि मुग़लों के दक्कन में विस्तार को शिवाजी ने रोक रखा था.
बहमनी साम्राज्य विघटन के बाद, पाँच शाह में बँट गया था. जिनमें से मुग़लों ने पहले निज़ामशाही को ख़त्म किया, फिर आदिलशाही को ख़त्म किया, फिर कुतुबशाही को ख़त्म कर दिया. केवल मराठों पर उनका वश नहीं चल रहा था. अब औरंगज़ेब को शिवाजी को भी अपना मनसबदार बनाना चाहते थे.
प्रोफ़ेसर शाह कहते हैं कि शिवाजी के दादाजी, मुग़लों के मनसबदार नहीं थे, बल्कि वो निज़ामशाही और आदिलशाही के यहाँ मनसबदार थे. उन्होंने मुग़लों से निज़ामशाही को बचाने का बहुत प्रयास भी किया था. उसी समय से शिवाजी के खानदान से मुग़लों का बैर शुरू हुआ.
औरंगज़ेब ने मराठों को अपने साथ मिलाने की कोशिश में राजा जय सिंह को सेना के साथ दक्कन भेजा था. राजा जय सिंह को शुरुआती जीत मिली. शिवाजी मुग़लों से संधि के लिए तैयार हो गए.
इस संधि को पुरंदर संधि का नाम दिया जाता है. पुरंदर पुणे के पास एक क़िले का नाम था. उस पुरंदर के क़िले को मुग़लों ने फ़तह कर लिया था. इस वजह से उस संधि को पुरंदर संधि के नाम से जाना जाता है.
हालाँकि प्रोफ़ेसर उमेश कहते हैं कि इस संधि पर शिवाजी के हस्ताक्षर नहीं है. संधि पर बात करने के लिए राजा जय सिंह ने शिवाजी को आगरा आने को कहा था. आगरा में उनके मान सम्मान के रक्षा का वादा भी किया गया था.
प्रोफ़ेसर उमेश की मानें, तो शिवाजी हारे नहीं थे, लेकिन कमज़ोर ज़रूर हो गए थे. उन्होंने राजा जय सिंह के सामने कुछ शर्तें रखी थी. उन्हीं शर्तों पर बात करने के लिए औरंगज़ेब ने उन्हें आगरा आने का न्यौता भेजा था. लेकिन वो एक धोखा था. औरंगज़ेब की मंशा शिवाजी को मारने की थी.
हालाँकि इस बात पर भी इतिहारकारों में मतभेद है. केवल एक बात जिस पर सभी इतिहासकारों की एक राय है, वो ये कि शिवाजी केवल एक बार ही आगरा गए थे.
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इतिहासकार जेएल मेहता की किताब 'ए एडवांस स्टडी इन द हिस्ट्री ऑफ़ मेडिवल इंडिया' के मुताबिक़ आगरा से निकलने के बाद शिवाजी का महाराष्ट्र में भव्य स्वागत हुआ.
दक्कन के इलाक़े में शिवाजी को स्थापित करने में आगरा प्रकरण ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई. शिवाजी मुग़लों के ख़िलाफ़ एक ऐसी शक्ति के तौर पर उभरे, जो उनको टक्कर और चुनौती दे सकता था और इससे औरंगज़ेब काफ़ी परेशान हुए. जेएल मेहता को दक्षिणपंथी इतिहासकार के तौर पर देखा जाता है.
इस नज़रिए वाले इतिहासकार मानते हैं कि मुग़ल आक्रांता थे. उन्होंने भारतीय संस्कृति, धर्म और भारत को समाप्त करने का प्रयत्न किया. उन्होंने मंदिर तोड़े, हज़ारों महिलाओं की अस्मत लूटी और लाखों ने अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए अपना जीवन समाप्त कर दिया.
दक्षिणपंथी इतिहासकार मानते हैं कि मुग़लों के शासन काल में किसानों की हालत काफ़ी ख़राब थी. उनके शासन में किसानों पर भारी कर लगाए गए थे. इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बर्नी ने भी बताया है कि किसानों की हालत ठीक नहीं थी. किसानों के तीन वर्ग थे और तीनों की स्थिति बुरी थी.
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राजनीति से प्रेरित बयान
योगी आदित्यनाथ के इस बयान का अब राजनीतिक अर्थ भी निकाला जाने लगा है.
महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने योगी आदित्यनाथ के ट्वीट को रिट्वीट कर करते हुए लिखा है - जय जिजाऊ, जय शिवराय, छत्रपती शिवाजी महाराज की जय !
।। जय जिजाऊ, जय शिवराय ।।
— Devendra Fadnavis (@Dev_Fadnavis) September 14, 2020
छत्रपती शिवाजी महाराज की जय !
Chhatrapati Shivaji Maharaj Ki Jai ! 🙏🏽 https://t.co/Ro8sA00eOa
आरएसएस के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख नरेंद्र कुमार ने इस बहाने मुग़लों पर निशाना साधा है.
मुगल आक्रांता थे.उन्होंने भारतीय संस्कृति,धर्म और भारत को समाप्त करने का प्रयत्न किया.हमारे मन्दिर तोड़े,हजारों महिलाओं की अस्मत लूटी और लाखोंने अपनी इज्जत बचाने केलिए अपना जीवन समाप्त करदिया.तो मुगल हमारे हीरो कैसे हो सकतेहैं.भारत से गुलामी के चिन्ह समाप्त होने ही चाहिए.
— NARENDER KUMAR (@NARENDER1970) September 15, 2020
Mughals pic.twitter.com/8bWI0nO7sm
हालाँकि ये पहला मौक़ा नहीं है, जब आगरा और ताजमहल पर योगी आदित्यनाथ की टिप्पणी पर ख़ूब चर्चा हो रही है.
इससे पहले 2017 में भी ताजमहल को लेकर योगी आदित्यनाथ सुर्खियों में थे. 2017 के राज्य के धार्मिक और सांस्कृतिक बजट में जिन इमारतों पर ख़र्च करने का प्रस्ताव था, उसमें ताजमहल का नाम शामिल नहीं किया गया था.
उस समय राहुल गांधी ने भी योगी सरकार के फै़सले पर तंज कसा था.
सूरज को दीपक न दिखाने से उसकी चमक नहीं घटती! ऐसे ही राज के लिए भारतेंदु ने लिखा था, 'अंधेर नगरी, चौपट राजा'!https://t.co/4Mrq6Aevue
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) October 3, 2017
इतना ही नहीं अंततराष्ट्रीय मीडिया में भी इसकी जम कर आलोचना हुई थी. अमरीका के प्रमुख अख़बार 'द वाशिंगटन पोस्ट' ने एक लेख प्रकाशित किया था. इस लेख का शीर्षक था, क्या भारत में ताजमहल की अनदेखी इसलिए हो रही है क्योंकि उसे मुसलमान ने बनवाया है.
इतना ही नहीं 2017 में ही बिहार के दौरे पर योगी आदित्यनाथ ने कहा था कि भारत आने वाले मेहमानों को उपहार में ताजमहल या अन्य मीनारों का नमूना देना भारतीय सभ्यता के अनुरूप नहीं है. उन्होंने 'गीता' और 'रामायण' को उपहार में देने की वकालत की थी.
प्रोफ़ेसर हरबंस मुखिया कहते हैं कि ये पूरा बयान राजनीति से प्रेरित है और आज की राजनीति में मुसलमानों को दुश्मन बना कर रखना है. इसलिए ये सब कहा जा रहा है. योगी आदित्यनाथ ने जिस 'ग़ुलामी' शब्द का इस्तेमाल किया है दरअसल वो मुग़लों के लिए बल्कि अंग्रेज़ों के लिए इस्तेमाल होना चाहिए.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, "भारत को ग़ुलाम तो अंग्रेजों ने बनाया था. यहाँ वो आते थे, राज करते थे, पाँच साल के बाद वायसराय बदल जाते थे. और फिर वही सिलसिला चलता रहता था. असल में ग़ुलाम तो हमें अंग्रेज़ों ने बनाया था, जिनके साथ इनकी (योगी आदित्यनाथ और आरएसएस की) दोस्ती है."
अपनी बात को विस्तार से समझाते हुए वो कहते हैं, "स्वतंत्रता संग्राम में आरएसएस बिल्कुल ख़ामोश बैठा था. ये बात सर्वविदित है. आरएसएस का कोई ऐसा नहीं था जिसे उस वक़्त गिरफ़्तार किया गया हो. 1942 में जब गांधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन का नारा दिया था, तो वामपंथियों और आरएसएस दोनों ने अंग्रेज़ी हुकूमत का साथ दिया था."
उन्होंने कहा कि ग़ुलाम जिन्होंने बनाया, उनसे तो दोस्ती थी और मुग़लों से नफ़रत- ये राजनीति नहीं तो क्या है.
आज कोशिश इतिहास बदलने की हो रही है लेकिन ज़रूरत राजनीति बदलने की है.