कन्हैया के प्रचार में दिन-रात लगी लड़कियां क्या कहती हैं
स्वाति कहती हैं, ''मुझे बेगूसराय बहुत अच्छा लग रहा है. यहां बीजेपी और लेफ्ट में सीधी लड़ाई है. देश भर से स्टूडेंट पहुंचे हैं और सबके मन में उम्मीद है. हम इसी उम्मीद के सहारे यहां इतने दिनों से हैं.''
दिल्ली की रहने वाली 24 साल की स्वाति 7 अप्रैल से बेगूसराय में हैं. वो पहली बार यहां आई हैं और हर दिन सुबह आठ बजे से यहां के गांवों में चुनाव प्रचार में निकल जाती हैं.
वो बेगूसराय आ रही थीं तो उनके माता-पिता ने बिहार की छवि को लेकर चेताया था. हालांकि स्वाति को इससे बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ा. स्वाति कहती हैं कि उनके माता-पिता दक्षिणपंथी विचार के क़रीब हैं और कांग्रेस विरोधी होने के कारण मोदी का समर्थन करते हैं.
स्वाति ने अपने-माता पिता की बिहार को लेकर दी गई चेतावनी अनसुनी कर दी और माता-पिता के विचार से अलग लाइन लेते हुए बेगूसराय पहुंच गईं. स्वाति कहती हैं, ''मुझे बेगूसराय बहुत अच्छा लग रहा है. यहां बीजेपी और लेफ्ट में सीधी लड़ाई है. देश भर से स्टूडेंट पहुंचे हैं और सबके मन में उम्मीद है. हम इसी उम्मीद के सहारे यहां इतने दिनों से हैं.''
स्वाति मानती हैं कि उनके घर में उनके विचार अपने मां-बाप से अलग हैं.
लेकिन उनका मानना है कि विचारों की लड़ाई में माता-पिता से असहमति जताने में उन्हें कोई गुरेज़ नहीं है.
स्वाति बताती हैं कि चुनाव प्रचार के दौरान एक गांव में उनसे कुछ लोगों ने उनकी जाति पूछी. वो कहती हैं, ''एक महिला ने अपनी भाषा में कुछ पूछा तो मुझे समझ में नहीं आया. फिर मैंने अपने साथियों से पूछा तो कहा कि वो मेरी जाति जानना चाहती हैं. यहां के चुनाव में जातियों की भूमिका है."
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'कन्हैया ने भरा है खालीपन'
केरल की अपर्णा 9 अप्रैल से बेगूसराय में हैं
अपर्णा के मन में भी बिहार की छवि कुछ ठीक नहीं थी. अब वो कहती हैं कि बेगूसराय आने के बाद बिहार को लेकर उनके मन में जो धारणा थी वो टूट गई है.
अपर्णा कहती हैं, ''यहां के लोग राजनीतिक रूप से बहुत जागरूक हैं. लोगों को पता है कि कौन उम्मीदवार कहां से है. यहां तक कि अनपढ़ महिलाओं को भी ये बातें पता हैं. मेरे मन में बिहार की जो छवि थी उससे बिहार बिल्कुल अलग है. ऐसा नहीं है कि मैं जो बोलती हूं उसे लोग सुन लेते हैं. लोग सवाल पूछते हैं और असहमत भी होते हैं."
अपर्णा आख़िर केरल से बेगूसराय क्यों आ गईं? वो कहती हैं, ''इस सरकार में विपक्ष बिल्कुल ख़त्म हो चुका है. कन्हैया ने विपक्ष के ख़ालीपन को भरा है और यह बहुत बड़ी बात है. यक़ीन मानिए बेगूसराय इतिहास रचने जा रहा है.''
'नेताओं के वादों पर भरोसा नहीं'
अपर्णा इस बात को मानती हैं कि भारत की चुनावी राजनीति में लोगों के बीच वादों पर कोई भरोसा नहीं है.
उनके मुताबिक, बिहार में बदहाली है लेकिन लोग ख़ुश दिखते हैं और बहुत ग़ुस्से में नहीं हैं.
वो कहती हैं, ''मैं अपने राज्य केरल से बिहार की तुलना करती हूं तो लगता है कि यहां गंदगी बहुत है पर ऐसा नहीं है कि लोगों को गंदगी अच्छी लगती है. लोग भयावह ग़रीबी के कारण गंदगी में रहने को मजबूर हैं.''
'ये चुनाव अलग है'
दीपा कॉलेज में पढ़ाती हैं और वो दिल्ली की हैं. दीपा भी बेगूसराय में दो हफ़्ते से हैं. दीपा भी कोई ठेठ राजनीतिक प्रचारक नहीं हैं लेकिन इस बार का चुनाव उनके लिए अलग है.
उन्होंने बेगूसराय में महिलाओं के बीच ज़्यादा वक़्त गुज़ारा है.
दीपा कहती हैं, ''हमने जातीय गोलबंदी को ब्रेक कर दिया है. हम औरतों से पूछते हैं कि शौचालय कहां है. गैस सिलिंडर कहां है. हॉस्पिटल कहां है. हम स्कूल, कॉलेज, हॉस्पिटल और रोज़ागार के बारे में पूछते हैं. इन समस्याओं से कोई एक जाति पीड़ित नहीं है. कन्हैया से उम्मीद है इसलिए छुट्टी लेकर आईं हूं. बदलाव की शुरुआत तो कहीं न कहीं से तो होगी ही. मुझे लगता है कि यह बेगूसराय से ही होगी, इसलिए यहां आई हूं.''
उनके मुताबिक, ''मैं घूमते हुए जो महसूस कर रही हूं वही बता रही हूं. अंततः तो चुनावी नतीजे ही बताएंगे कि हमारी कोशिश कितनी कामयाब रही. मैं यहां के मुखिया से मिलती हूं तो वो ख़ुद कहते हैं कि ऐसा चुनाव बेगूसराय में कभी हुआ नहीं क्योंकि अब तक के चुनाव जातीय गोलबंदी के इर्द-गिर्द ही होते थे.''
'इलेक्शन टूरिज़्म पर नहीं'
राजस्थान की आकांक्षा पिछले एक महीने से बेगूसराय में हैं. आकांक्षा इससे पहले यहां बिहार के अपने दोस्तों की शादी में आई थीं.
वो कहती हैं, ''आज किसी को भी देशद्रोही कह दे रहे हैं. अचानक आपके घर के बच्चे को कोई आतंकवादी कहने लगे तो कैसा लगेगा?''
वो कहती हैं कि वे लोग यहां कोई इलेक्शन टूरिज़्म पर नहीं आए हैं. देश की युवा पीढ़ी बहुत कुछ तब्दीली लाना चाहती है पर उसे स्पेस नहीं मिल रहा और बेगूसराय इसी की अभिव्यक्ति है.
आकांक्षा से पूछा कि क्या उनके घर वाले नाराज़ नहीं होते कि एक महीने से वो बेगूसराय में क्या कर रही हैं? वो कहती हैं, ''उन्हें पता है कि मैं क्या कर रही हूं. और मैं जो भी करूंगी उसका फ़ैसला घर वाले नहीं लेंगे. घर वाले हर बार सही नहीं होते.''
राजस्थान की ही सोनम 29 मार्च से बेगूसराय में हैं. वो कहती हैं, ''मुझे बिहार बहुत रास आ रहा है. मैं तो मानती हूं कि ग़ैर-बिहारियों को यहां आना चाहिए और देखना चाहिए कि यहां के लोग कितने मेहनती हैं.''
सोनम कहती हैं, ''गांवों में लोग हमारी बातों से सहमति जताते हैं और अपनी परेशानियों पर खुलकर बोल रहे हैं. यहां बुनियादी सुविधाएं मुद्दा हैं. हां, यह सही है कि यहां कोई मोदी विरोधी माहौल नहीं है लेकिन विपक्ष की जगह ख़ाली है और हमारी कोशिश विपक्ष के ख़ालीपन को ही भरना है. हम प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए नहीं लड़ रहे.''
ये सारी लड़कियां शनिवार शाम तक वापस लौट जाएंगी.
सोनम से पूछा कि लौटते वक़्त उनके दिमाग़ में बिहार की वो कौन सी बात होगी जो हमेशा याद रहेगी?
वो कहती हैं, ''बिहार के वो लोग जो हाड़-तोड़ मेहनत करते हैं पर बहुत कुछ मिलता नहीं, फिर भी उम्मीदों की रौशनी की शुरुआत यहीं से करते हैं.''
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