संसद में जयश्रीराम और अल्लाह-हो-अकबर में क्या बुराई है?- ब्लॉग
राजनीति पर नज़र रखने वाला हर इंसान जानता है कि संसद की गरिमा, मर्यादा और उसकी भूमिका के बारे में कही जाने वाली सारी बातें घिसे-पिटे जुमलों में तब्दील हो चुकी हैं. संसद लोकतंत्र की शीर्ष संस्था है, संसद में जो दिख रहा है वह देश की हालत की परछाईं भर है. यह वही संसद है जिसकी चौखट पर पहली बार क़दम रखते हुए 2014 में नरेंद्र मोदी ने शीश नवाया था
राजनीति पर नज़र रखने वाला हर इंसान जानता है कि संसद की गरिमा, मर्यादा और उसकी भूमिका के बारे में कही जाने वाली सारी बातें घिसे-पिटे जुमलों में तब्दील हो चुकी हैं.
संसद लोकतंत्र की शीर्ष संस्था है, संसद में जो दिख रहा है वह देश की हालत की परछाईं भर है.
यह वही संसद है जिसकी चौखट पर पहली बार क़दम रखते हुए 2014 में नरेंद्र मोदी ने शीश नवाया था लेकिन आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि यह लोकतंत्र का वही मंदिर है जिसके 40 प्रतिशत से अधिक 'पुजारियों' पर भ्रष्टाचार, हत्या, बलात्कार और अब तो आतंकवाद तक के आरोप हैं.
इस संसद में हंगामा, शोर-शराबा या गतिरोध कोई नई बात नहीं है. संसदीय गरिमा के गायब होने की शिकायत करने से पहले देखना चाहिए कि पिछले कुछ समय में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और मर्यादाओं का क्या हाल हुआ है.
जिस तरह का 'नया भारत' हम बनता हुआ देख रहे हैं उसमें पहली बार बहुत सारी बातें हुई हैं. अगर पहली बार संसद में जय श्रीराम और अल्लाह-हो-अकबर के नारे सुनाई दे रहे हैं तो इस पर चौंकना मासूमियत ही है क्योंकि यह सब अचानक नहीं हुआ है.
बहुत सारी बातें पहली बार हुई हैं. मसलन, किसी प्रधानमंत्री ने पहली बार गुफा में तपस्या की है, सीमा पर से इंडो तिब्बतन बॉर्डर पुलिस से मिट्टी मंगाकर राष्ट्र रक्षा महायज्ञ का आयोजन पहली बार किया गया, विश्वविद्यालयों में टैंक खड़े करने की बात पहली बार सुनी गई, राष्ट्रध्वज की ऊँचाई पहली बार तय की गई, राणा प्रताप को हल्दी घाटी की लड़ाई पहली बार जिताया गया, देश में पहली बार गायों के लिए एंबुलेंस सेवा शुरू हुई वगैरह-वगैरह, यह सूची काफ़ी लंबी है.
पिछले पाँच सालों में रामज़ादे-हरामज़ादे, श्मशान-कब्रिस्तान के रास्ते होते हुए, हम वहां तक पहुंचे जब पहली बार आतंकवादी बम धमाके की अभियुक्त साध्वी प्रज्ञा को पहले स्वास्थ्य आधार पर ज़मानत पर जेल से छूटीं, फिर उन्हें दिग्विजय सिंह के ख़िलाफ़ भोपाल से चुनाव मैदान में उतार दिया गया.
भारत की संसद में
2019 का चुनाव जिस तरह लड़ा गया, उसमें जिस तरह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशें की गईं, हर बात को हिंदुओं और मुसलमानों के बीच आर-पार की लड़ाई की तरह पेश किया गया, यह अपने-आप में एक तरह का चुनावी वादा था कि हम सत्ता में आए तो सचमुच आर-पार की लड़ाई होगी.
अब जबकि बीजेपी को 2014 के मुकाबले कहीं अधिक बड़ी कामयाबी मिली है, ऐसी हालत में बीजेपी के नेता ऐसा क्यों नहीं मानेंगे कि यह उग्र हिंदुत्व की जीत है और संसद में जय श्रीराम का नारा लगाने पर उनके समर्थक खुश ही होंगे, नाराज़ या परेशान नहीं.
नए भारत में नई तर्क शक्ति आई है, लोग पूछ सकते हैं कि संसद में जय श्रीराम का नारा लगाने में क्या बुराई है? ये भी पूछ सकते हैं कि जय श्रीराम का नारा भारत की संसद में नहीं लगेगा, तो क्या पाकिस्तान की संसद में लगेगा? मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन के सांसद असदउद्दीन ओवैसी ने अल्लाह-हो-अकबर का जवाबी नारा लगाया, ये वही ओवैसी है जो संविधान का हवाला देते नहीं थकते.
अब देश उस मोड़ पर आ पहुंचा है जब सचमुच नए सिरे से इन सवालों का जवाब देने की कोशिश की जानी चाहिए, जो आसान नहीं है.
जय श्रीराम में क्या बुराई है?
आडवाणी के नेतृत्व में शुरू हुए अयोध्या आंदोलन के दौरान जय श्रीराम पहली बार एक नारे के तौर पर सामने आया, उससे पहले जय रामजी की, जय सिया राम और राम-राम थे. 'जय श्रीराम' एक युद्धघोष की तरह सामने आया और आज भी उसी आक्रामकता के साथ गूंजता है, उसमें प्रेम, भक्ति, श्रद्धा या समर्पण का भाव नहीं है.
भूतपूर्व लौहपुरुष आडवाणी मान चुके हैं कि अयोध्या का राममंदिर का आंदोलन एक राजनीतिक आंदोलन था, इस तरह जय श्रीराम एक राजनीतिक नारा है, धार्मिक जयकारा नहीं है. लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश की संसद में धार्मिक नारा लगाना एक गंभीर बात है लेकिन यह नारा धार्मिक नहीं, पूरी तरह राजनीतिक था. यह बात और है कि पूरी राजनीति ही धर्म के नाम पर हो रही है.
संसद बहस के लिए है, कानून बनाने के लिए है, देश की दिशा तय करने के लिए है, बजट पास कराने के लिए है, सत्ता पक्ष की नीतियों को चुनौती देने के लिए है, संसद कैसे चले इसके लिए लिखित और विस्तृत प्रावधान हैं. संसद किसी भी तरह के नारे लगाने के लिए नहीं है. नारे सड़कों पर, रैलियों में, विरोध प्रदर्शनों में लगाए जाते हैं लेकिन धर्म का नाम जुड़ा हो तो कोई नियम-कानून लागू नहीं होता.
इससे ज़्यादा दिलचस्प बात ये है कि जय श्रीराम के नारे तभी लगाए गए जब मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन के सांसद असदउद्दीन ओवैसी या तृणमूल कांग्रेस के सांसद शपथ लेने आए. यह दिखाता है मकसद भगवान श्रीराम को याद करना नहीं, बल्कि मुसलमानों और हिंदुत्व की राजनीति को चुनौती देने वाली तृणमूल कांग्रेस को चिढ़ाना था.
अपने पूज्य मर्यादा पुरुषोत्तम का नाम किसी को चिढ़ाने के लिए लेने वाला भला किस तरह का रामभक्त हो सकता है?
वैसे जय श्रीराम का नारा लगाने के दोहरे फ़ायदे हैं, इससे हिंदुत्व की राजनीति पर बीजेपी का दावा मज़बूत होता है, कोई इसका खुलकर विरोध नहीं कर सकता, और जिसे इस पर किसी भी वजह से एतराज़ हो, उसे हिंदू विरोधी ठहराया जा सकता है.
ध्रुवीकरण की राजनीति
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का मतलब है कि देश के 80 प्रतिशत से अधिक हिंदू एक तरफ़ हों और बाक़ी लोग दूसरी तरफ़, इस तरह लड़े गए चुनाव में किसकी जीत होगी इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है.
राजनीति कभी न रुकने वाली चीज़ है, ख़ास तौर पर ऐसी राजनीति जिसका लक्ष्य देश को बुनियादी तौर पर बदलना हो. लोकसभा के चुनाव परिणामों को मोदी का करिश्मा और उग्र हिंदुत्व की जीत के तौर पर देखने वाली बीजेपी के पास कोई कारण नहीं है कि वह जय श्रीराम के नारे को और बुलंद न करे.
अभी महाराष्ट्र, झारखंड, हरियाणा और दिल्ली जैसे राज्यों में कुछ ही महीनों में चुनाव होने वाले हैं. उन चुनावों में चर्चा विकास और विश्वास की होगी लेकिन सबसे बड़ा मुद्दा हिंदू-मुसलमान ही होगा क्योंकि फ़ार्मूले की कामयाबी साबित हो चुकी है.
अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, एनआरसी, तीन तलाक, धारा 370, समान नागरिक संहिता जैसे अधूरे मुद्दों पर हरकत होती ही रहेगी. 2014 से लेकर अब तक देश देख चुका है कि बड़े धार्मिक आयोजन, नए विवादों और तनावों का आविष्कार करना इस देश में कितना आसान है.
Asaduddin Owaisi, AIMIM on 'Jai Sri Ram' & 'Vande Mataram' slogans being raised in Lok Sabha while he was taking oath as MP: It is good that they remember such things when they see me, I hope they will also remember the constitution and deaths of children in Muzaffarpur. pic.twitter.com/THJN8n8out
— ANI (@ANI) 18 June 2019
संविधान की मूल भावना
इसी सिक्के का दूसरा और ज़रूरी पहलू हैं ओवैसी जैसे लोग, जिनकी पूरी राजनीति मुसलमानों की असुरक्षा पर केंद्रित है. उन्होंने संसद में अल्लाह-हो-अकबर का नारा लगाकर अपनी प्रतिक्रिया ज़ाहिर कर दी है. हिंदुत्व का ज़ोर जितना बढ़ेगा मुस्लिम बहुत आबादी से आने वाले ओवैसी और आज़म ख़ान जैसे नेताओं की सियासत तो चमकेगी, मुसलमानों के प्रतिनिधित्व का गंभीर सवाल इनकी बयानबाज़ियों से ढंका रह जाएगा.
ऐसे नेता भविष्य में भी बीजेपी के बहुत काम आने वाले हैं, वे कितने मुसलमानों की नुमाइंदगी करते हैं, यह कहना मुश्किल है लेकिन यह बहुत साफ़ है कि बीजेपी हर मुसलमान राजनेता को मुसलमानों के सबसे बड़े नेता के तौर पर पेश कर सकती है बशर्ते उसके बयान ध्रुवीकरण में मददगार हों, चाहे वह ब्लॉक या पंचायत स्तर का नेता क्यों न हो.
ओवैसी ने जय श्रीराम के नारे का जवाब अल्लाह-हो-अकबर से देकर इसे बराबरी का मुकाबला बना दिया है, जो यह दरअसल है नहीं. जय श्रीराम बहुसंख्यक वर्चस्ववाद की दबंग ललकार है, ओवैसी का अल्लाह-हो-अकबर अल्पसंख्यकों की ओर दिया गया जवाब बन गया है, जो वह नहीं है.
पिछली बार संसद की सीढ़ी पर शीश नवाने वाले, और इस बार संविधान के आगे नतमस्तक हुए प्रधानमंत्री मोदी चाहते तो कह सकते थे कि संसद में जय श्रीराम और अल्लाह-हो-अकबर दोनों ही नहीं होने चाहिए क्योंकि जिस संविधान के आगे उन्होंने सिर झुकाया है, अगर उसे पढ़ा-माना होता तो वे ऐसा कहते, क्योंकि यह संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ़ है.
लेकिन बीजेपी की मूल भावना और संविधान की मूल भावना में अंतर है, संविधान कहता है कि धर्म के आधार पर नागरिकों के साथ अलग-अलग बर्ताव नहीं हो सकता इसलिए ज़रूरी है कि सरकार धर्म से अलग हटकर अपना काम करे, बीजेपी की यही मान्यता है कि संसद में जय श्रीराम तो ठीक है, लेकिन अल्लाह-हो-अकबर ठीक नहीं है.
गांधी के हत्यारे गोडसे को देशभक्त बताने वाली साध्वी प्रज्ञा के ख़िलाफ़ अनुशासन समिति की रिपोर्ट मियाद बीत जाने के हफ़्तों बाद नहीं आई है, आएगी भी या नहीं, मालूम नहीं. प्रधानमंत्री बनने के बाद गांधी और पटेल की मूर्ति की धूप-दीप के साथ पूजा करने वाले मोदी ने बस इतना ही कहा है कि वे साध्वी प्रज्ञा को दिल से माफ़ नहीं करेंगे.
जो लोग संसद में पहली बार जय श्रीराम के नारे लगाए जाने पर चौंक रहे हैं, उन्हें याद रखना चाहिए जिस हॉल में महात्मा गांधी की तस्वीर है, जिनकी मूर्ति पूजा प्रधानमंत्री ने की, उन्हीं गांधी की हत्या के मुख्य अभियुक्त सावरकर की तस्वीर भी संसद के सेंट्रल हॉल में वाजपेयी के ज़माने में लगाई गई थी. सावरकर सबूतों के अभाव में गांधी हत्याकांड से बरी कर दिए गए थे, संघ और हिंदू महासभा से जुड़े लोग 'गांधी वध' कहना पसंद करते हैं.
अमित शाह के बैठकखाने में दो तस्वीरें हैं, एक चाणक्य की और दूसरे वीर सावरकर की, मोदी जी के कार्यालय में दो मूर्तियां हैं, एक गांधी की और एक आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने वाले पटेल की. मतलब आप खुद निकालते रहें. क्या कहा जाएगा, क्या किया जाएगा और क्या दिखाया जाएगा, इन्हें ठीक से समझना एक दिलचस्प लेकिन गंभीर काम है.
आने वाले सालों में ऐसा बहुत कुछ देखने को मिलेगा जिसमें पार्टी के नेता अच्छी तरह जानते होंगे कि उन्होंने क्या कहना और करना है, मोदी भी जानते हैं कि वे किसे दिल से माफ़ करेंगे है और किसे नहीं.