अमरीका में हो रहे 'हाउडी मोदी' के पीछे की कहानी क्या है
रविवार को हो रहे 'हाउडी मोदी' कार्यक्रम में 50 हज़ार अमरीकियों के आने की उम्मीद है. साथ ही वहां ऐसा पहली बार होगा कि कोई अमरीकी राष्ट्रपति ऐसे कार्यक्रम में शामिल होंगे, जिसे राजधानी से बाहर दूसरे देश के प्रधानमंत्री संबोधित कर रहे हैं.इस कार्यक्रम को दोनों देशों के बीच उभरते हुए घनिष्ठ आर्थिक और सामरिक संबंधों के प्रदर्शन के तौर पर दिखाया जा रहा है.
जब आप भारत के एक छोटे से राज्य गोवा से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री और दुनिया के सबसे ताकतवर लोकतंत्र के राष्ट्रपति की मुलाक़ात के बारे में लिखना, एक अजीब विरोधाभासी स्थिति है. हालांकि, इसमें कुछ समानताएं भी हैं.
ह्यूस्टन में तूफ़ान और बारिश का ख़तरा है और दोनों नेताओं के मिलने का ऐतिहासिक क्षण भी करीब है. गोवा में भी भारी बारिश और तूफ़ान है और यहां भी राज्य के युवाओं ने हाल ही में कुछ ऐतिहासिक किया है.
लेकिन, गोवा के बारे में किसी और लेख में बात करेंगे. फिलहाल बात ह्यूस्टन और 'हाउडी मोदी' की.
इस वक़्त का बड़ा सवाल ये है कि आखिरकार 'हाउडी ह्यूस्टन' बना कैसे? क्या ये वैश्विक परिदृश्य में भारत की उपस्थिति दिखाता है?
इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण ये कि ये सबकुछ तब हो रहा है जब भारत-अमरीका के बीच कारोबार को लेकर तनाव है, कश्मीर को लेकर बड़ी-बड़ी बयानबाजी हो रही है.
ऐसे में अमरीका में उठी इस भारतीय लहर के क्या कुछ नतीजे होंगे या ये आधुनिक समय, डिजिटल राजनीति का महज़ एक नाटक बनकर रह जाएगी, जिसमें आभासी (वर्चुअल) होना ही असलियत लगता है और असलियत ही अवास्तविकता बन जाती है. इस पर एक किताब लिखने की जरूरत है, लेकिन यहां इसका सार है.
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अपनी-अपनी ज़रूरतें
इसमें कोई शक नहीं की जो ह्यूस्टन की शाम को होने जा रहा है वो इतिहास में पहली बार है.
रविवार को हो रहे 'हाउडी मोदी' कार्यक्रम में 50 हज़ार अमरीकियों के आने की उम्मीद है. साथ ही वहां ऐसा पहली बार होगा कि कोई अमरीकी राष्ट्रपति ऐसे कार्यक्रम में शामिल होंगे, जिसे राजधानी से बाहर दूसरे देश के प्रधानमंत्री संबोधित कर रहे हैं.
इस कार्यक्रम को दोनों देशों के बीच उभरते हुए घनिष्ठ आर्थिक और सामरिक संबंधों के प्रदर्शन के तौर पर दिखाया जा रहा है. लेकिन, डिजिटल युग में कूटनीति का ये दिखावा बंद कमरे में होने वाली वास्तविक राजनीति के आगे असफल हो जाता है. हक़ीक़त वो है जो उस बंद कमरे में तय होती है और जो हमेशा से एक मुश्किल काम रही है.
अमरीका में राष्ट्रपति चुनाव होने वाले हैं और ऐसे में अमरीका में दूसरे वर्गों से ज़्यादा तेजी से बड़ रहे एशियाई समुदाय से मिलने वाले फ़ायदे को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.
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अमरीकी में मौजूद इस 20 प्रतिशत एशियाई समुदाय का झुकाव अमूमन डेमोक्रेट्स की तरफ रहा है. इस समुदाय में भारतीय भी शामिल हैं.
अगर इस समुदाय का थोड़ा भी झुकाव रिपब्लिकन पार्टी की तरफ़ जाता है तो इससे ट्रंप को बड़ा फ़ायदा मिलने की उम्मीद है. हालांकि, अभी इसके बारे में कुछ भी कहना जल्दबाज़ी है क्योंकि राजनीति में कुछ भी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता.
नरेंद्र मोदी को डोनल्ड ट्रंप की और ज़्यादा ज़रूरत है क्योंकि अपने देश में 'कांग्रेस मुक्त भारत बनाने' के नाम पर की जा रही उनकी राजनीति पर विरोधी सवाल उठा रहे हैं. उनकी इस राजनीति का सबसे बड़ा उदाहरण गोवा में है जहां लगभग पूरा विपक्ष सत्ताधारी पार्टी में शामिल हो गया है. इस तरह लोगों की भलाई के नाम पर असलियत आभासी बन गई है.
साथ ही कश्मीर से धारा 370 हटाने के विवादित फ़ैसले के बाद सरकार को शक्तिशाली देशों को अपने पक्ष में खड़ा दिखाना है. ह्यूस्टन में हो रही राजनीति बस इसी के इर्दगिर्द है.
आपस में मसले सुलझातीं अर्थव्यवस्थाएं
लेकिन, इसके पीछे अर्थव्यवस्था भी एक कारण है.
बढ़ते संरक्षणवाद के बीच टूटती, सुस्त और व्यापार युद्ध जैसी स्थितियां झेलती वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं के बीच विश्व व्यापार संगठन का सभी पक्षों को ध्यान में रखने का तरीका अब पुराना हो रहा है.
अब इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि सभी की भलाई के लिए व्यापार में सहयोग व समझौते को कितना उदार बनाया जा सकता है क्योंकि आज अपने हितों को देखते द्विपक्षीय संबंध ही हक़ीक़त बन गए हैं.
ऐसा नहीं है कि ये वैश्विक आर्थिक संस्थानों की जगह लेने वाले हैं. वो संस्थान जिन्होंने 'अराजक' अंतरराष्ट्रीय प्रणाली में कुछ स्थिरता और समन्वय लाने की कोशिश की है. लेकिन, व्यावहारिक द्विपक्षीय संबंध ही वास्तविकता बनने जा रहे हैं जो अलग-अलग मामले के अनुसार बदल सकते हैं.
व्यापार युद्ध की स्थिति में पहुंचे अमरीका और चीन के बीच तब नरमी दिखने लगी जब दोनों को बड़े नुकसान की आशंका दिखाई दी. यही बात भारत और अमरीका के बीच भी है. डाटा सुरक्षा क़ानून को लेकर तनातनी के बावजूद भी दोनों देशों के बीच व्यापार और निवेश अब भी जारी है.
उदार सोच रखने वाले इस बात से राहत महसूस कर सकते हैं कि सभी देशों को एक-दूसरे की ज़रूरत है क्योंकि अब अर्थव्यवस्थताएं जुड़ी हुई हैं.
अगर भारत की बात करें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाखों भारतीयों में उम्मीदें और आकांक्षाएं पैदा करने की जबरदस्त क्षमता दिखाई है. इसे वो तभी हक़ीक़त में बदल सकते हैं जब वो अपने नारे 'सबका साथ सबका विकास' को लागू कर पाएं और भारत के मूल विचारों को ख़त्म कर रही नफ़रत की राजनीति को रोक पाएं.
उनके पास इसे करने के लिए अब भी समय है और वो इतिहास रच सकते हैं. इसी तरह डोनल्ड ट्रंप को चुनाव के लिए आप्रवासियों के वोट की ज़रूरत महसूस हो रही है और इसी को देखते हुए वो भी कुछ घोषणाएं कर सकते हैं.
इसलिए 'हाउडी मोदी' दोनों देशों के बीच समान झुकाव वाला मैच है जो किसी भी तरफ़ जा सकता है.
ये पुराने घिसेपिटे रवैये से निकल दोनों देशों को द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक स्थिरता के महत्वपूर्ण युग में ले जा सकता है या फिर ये झगड़े और अराजकता को और बढ़ावा मिल सकता है. हालांकि, ये इस पर निर्भर करेगा कि दोनों नेता क्या चुनते हैं.
(इस लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी हैं. लेखक गोवा यूनिवर्सिटी के राजनीति विज्ञान विभाग में राजनीति और राजनीतिक अर्थव्यवस्था पढ़ाते हैं और सेंटर फॉर लैटिन अमरीकन स्टडीज़, गोवा यूनिवर्सिटी में एक युवा सहयोगी से कुछ जानकारियों में मदद ली गई है. )