केशवानंद भारती केस क्या है, जिससे संविधान की सर्वोच्चता कायम हुई
नई दिल्ली- मौलिक अधिकारों के लिए भारत में ऐतिहासिक कानूनी लड़ाई लड़ने वाले याचिकाकर्ता स्वामी केशवानंद भारती का रविवार को 80 साल की उम्र में निधन हो गया। भले ही सुप्रीम कोर्ट से उन्हें अपने केस में राहत नहीं मिली, लेकिन उनकी वजह से हमेशा के लिए देश में संसद पर भी संविधान की सर्वोच्चता कायम हो गई। आइए जानते हैं कि यह केस इतना चर्चित क्यों है और जो अब सदा के लिए भारतीय न्याय व्यवस्था का ऐसा हिस्सा बन चुका है, जिसके आधार पर अदालतें मुकदमों की दशा और दिशा तय करती हैं।
देश में कायम हुई संविधान की सर्वोच्चता
जगदगुरु शंकराचार्य संस्थानम एदनीर मठ के प्रमुख स्वामी केशवानंद भारती ही उस ऐतिहासिक केस के याचिकाकर्ता थे, जिसपर आए सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले ने देश में संविधान की सर्वोच्चता को व्यवहारिक रूप से कायम किया है। यही वजह है कि 'केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य' के मुकदमे को भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए हमेशा-हमेशा के वास्ते मील के पत्थर के रूप में स्थापित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने उस ऐतिहासिक फैसले से साफ कर दिया कि देश की संसद भी संविधान के आधारभूत ढांचे को नहीं बदल सकती; या एक तरह से यूं कह लीजिए की देश में संविधान की सर्वोच्चता कायम हुई। 24 अप्रैल, 1973 को सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद केस में अपना ऐतिहासिक निर्णय सुनाते हुए कहा, 'संविधान के मूलभूत ढांचे का उल्लंघन नहीं हो सकता और इसे संसद के द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता।' यानी इस फैसले से देश में यह संवैधानिक लकीर खींच दी गई कि संविधान संशोधन के अधिकार के जरिए संसद देश के संविधान के मूल ढांचे या आवश्यक तत्वों को संशोधित नहीं कर सकती।
मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए पहुंच थे सुप्रीम कोर्ट
स्वामी केशवानंद भारती ने केरल सरकार के एक फैसले को 21 मार्च, 1970 को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। वो इसलिए सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे कि केरल सरकार ने स्टेट रिवॉल्युशनरी लैंड रिफॉर्म्स ऐक्ट, 1969 के जरिए उनके मठ की जमीन ले ली थी। केशवानंद भारती को लगा कि सरकार अगर ऐसे मठ की संपत्ति पर कब्जा कर लेगी तो मठ के आय का संसाधन ही छिन जाएगा। इसीलिए उन्होंने मठ को उसका वाजिब हक दिलाने के लिए कानूनी हल तलाशने का फैसला किया। उन्होंने संविधान के तहत मिले मौलिक अधिकारों की बहाली के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसमें आर्टिकल- 25 (धर्म का पालन करने और उसके प्रसार का अधिकार), आर्टिकल-26 (धर्म से जुड़े मामलों के प्रबंधन का अधिकार), आर्टिकल-14 (समानता का अधिकार), आर्टिकल-19(1) (एफ) (संपत्ति अर्जित करने की स्वतंत्रता), आर्टिकल-31 (संपत्ति का अनिवार्य अधिग्रहण) शामिल था।
संविधान के मूल ढांचे का संशोधन नहीं हो सकता
स्वामी ने सर्वोच्च अदालत से केरल लैंड रिफॉर्म्स (अमेंडमेंट) ऐक्ट, 1969 (ऐक्ट 35 ऑफ 1969) को असंवैधानिक, अल्ट्रा वायरस और शून्य घोषित करने की गुहार लगाई थी। जब भारती की रिट याचिका की सुप्रीम कोर्ट में थी, उसी दौरान केरल लैंड रिफॉर्म्स (अमेंडमेंट ) ऐक्ट, 1971 पास किया गया और 7 अगस्त, 1971 को उसपर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर भी हो गए। केशवानंद भारतीय केस की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट के 13 सदस्यीय संविधान पीठ में हुई, जो सुप्रीम कोर्ट के इतिहास की अबतक की सबसे बड़ी बेंच है। यह सुनवाई 31 अक्टूबर, 1972 से 23 मार्च,1973 के बीच 68 कार्यदिवसों तक चली और अदालत ने 24 अप्रैल, 1973 को 7:6 के बहुमत से 703 पेज में जजमेंट सुनाया। इस फैसले में जस्टिस भी आधे-आधे में बंटे नजर आ रहे थे, तब जस्टिस एचआर खन्ना ने इस नजरिए का समर्थन किया कि संविधान संशोधन के जरिए संविधान के 'बेसिक स्ट्रक्चर' का संशोधन नहीं होना चाहिए।
केशवानंद भारती को अपने केस में नहीं मिली राहत
इस फैसले के बाद यह भी देखा गया कि बहुमत के फैसले में शामिल रहे सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों जस्टिस जेएम शेलाट, एएन ग्रोवर और केएस हेगड़े को चीफ जस्टिस बनने की राह में रोड़े अटकाए गए। तब इन जजों ने विरोध में इस्तीफा दे दिया। हालांकि, अपनी याचिका के जरिए स्वामीजी ने करोड़ों देशवासियों के मौलिक अधिकारों की रक्षा तो की, लेकिन इस फैसले से उन्हें अपने केस में कोई राहत नहीं मिली। सुप्रीम कोर्ट ने 1973 में केरल भूमि सुधार कानून के उस संशोधन को बरकरार रखा जिसे उन्होंने चुनौती दी थी। (केशवानंद भारती की तस्वीरें सौजन्य-सोशल मीडिया)
इसे भी पढ़ें- केरल में स्वामी केशवानंद भारती का निधन, पीएम मोदी ने दी श्रद्धांजलि