महाराष्ट्र-कर्नाटक के बीच सीमा विवाद क्या है, कितना पुराना है?
कुछ महीने पहले उद्धव ठाकरे ने विवादास्पद क्षेत्र को 'पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर' की तर्ज पर 'कर्नाटक अधिकृत महाराष्ट्र' तक कहा था.
लगभग पांच दशकों से हर साल महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच सीमा विवाद पर चर्चा ज़रूर होती है.
इस बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने अपने से पहले के मुख्यमंत्रियों की तुलना में इस विवाद को ज़्यादा गंभीरता से लिया है. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से विवादास्पद क्षेत्र को फ़ैसला होने तक केंद्र प्रशासित प्रदेश घोषित करने की मांग की है.
कुछ महीने पहले ठाकरे ने विवादास्पद क्षेत्र को 'पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर' की तर्ज़ पर 'कर्नाटक अधिकृत महाराष्ट्र' तक कहा था.
कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा और विपक्ष के नेता एवं राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने इस विवाद पर अपने पूर्ववर्तियों की तरह प्रतिक्रिया दी.
येदियुरप्पा ने अचरज जताते हुए कहा कि क्या है ये कोई मुद्दा भी है? वहीं सिद्धारमैया ने इसे राजनीति से प्रेरित मूर्खता करार दिया.
हालांकि कई राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक यह एक राजनीतिक मुद्दा है. कईयों के मुताबिक यह मामला राजनीतिक मुद्दा से भी बढ़कर भी है.
क्या है विवाद?
दोनों राज्यों के बीच में बेलगावी, खानापुर, निप्पानी, नंदगाड और कारवार (उत्तरी कन्नड़ ज़िले) की सीमा को लेकर विवाद है. साल 1956 में भाषाई आधार राज्यों के पुनर्गठन के दौरान महाराष्ट्र के कुछ नेताओं ने मराठी भाषी बेलगावी सिटी, खानापुर, निप्पानी, नांदगाड और कारवार को महाराष्ट्र का हिस्सा बनाने की मांग की थी.
जब मामला बढ़ा तो केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश मेहर चंद महाजन के नेतृत्व में एक आयोग के गठन का फ़ैसला लिया. मेहर चंद महाजन ने भारत में जम्मू कश्मीर के विलय में अहम भूमिका निभाई थी.
इसको लेकर कर्नाटक में विवाद शुरू हो गया. कर्नाटक को तब मैसूर कहा जाता था. विवाद इसलिए शुरू हुआ था क्योंकि मैसूर के तत्कालीन मुख्यमंत्री एस. निजालिंग्पा, प्रधानमंत्री इंदिरा गांदी और महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीपी नाइक के साथ बैठक में इसके लिए तैयार हो गए थे.
हालांकि जब आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी तो महाराष्ट्र ने इसे भेदभावपूर्ण और अतार्किक बताते हुए ख़ारिज़ कर दिया था. आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था, "पूरे मामले को गुण दोष के आधार पर वस्तुनिष्ठ आकलन के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि बेलगाम (बेलगावी का तत्कालीन नाम) को महाराष्ट्र राज्य में मिलाने की अनुशंसा नहीं कर सकता."
'महाजन आयोग रिपोर्ट एक नजर में' के लेखक सरजू काटकर ने बीबीसी हिंदी को बताया, "कर्नाटक इसके लिए तैयार हो गया था क्योंकि उसे 247 गांवों वाला बेलगावी मिल रहा था लेकिन उसे तंबाकू उत्पादक क्षेत्र निप्पानी और वन संपदा वाले क्षेत्र खानापुर को खोना पड़ा था. ये राजस्व दिलाने वाले क्षेत्र थे लिहाजा कर्नाटक में अंसतोष भी था."
आयोग ने निप्पानी, खानापुर और नांदगाड सहित 262 गावं महाराष्ट्र को दिया. हालांकि महाराष्ट्र बेलगावी सहित 814 गांवों की मांग कर रहा था. सूरज काटकर ने कहा, "जस्टिस महाजन ने गांवों और शहरी क्षेत्रों का दौरा किया. वे समाज में आर्थिक तौर पर पिछड़े लोगों के पास गए ताकि मालूम कर सके वे कौन सी भाषा बोलते हैं और उनके बच्चों की शादियां किन इलाकों में हुई है. बेलगावी से पांच किलोमीटर दूर बेलागुंडी गांव को आयोग ने महाराष्ट्र को सौंप दिया था."
दोनों राज्यों के बीच इस मुद्दे पर विवाद इतना गहराया कि दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक से कोई हल नहीं निकला. दोनों राज्य अपनी जगह ना छोड़ने और ना ही लेने की नीति पर कायम रहे और इसके चलते ही यह मुद्दा लगातार उठता रहा है.
विवाद की राजनीति क्या है?
मराठी भाषी इलाके को महाराष्ट्र में मिलाने की मांग के साथ ही महाराष्ट्र एकीकरण समिति का गठन हुआ. समिति के प्रतिनिधि नियमित तौर पर कर्नाटक विधानसभा पहुंचते रहे.
हालांकि कर्नाटक की संस्थाओं की कोशिश किसी भी राजनीतिक दल के किसी भी प्रत्याशी को जीताने की होती थी. हालांकि बाद के सालों में महाराष्ट्र एकीकरण समिति के प्रतिनिधियों की संख्या घटने लगी. पांच से चार-तीन होते हुए नगण्य तक पहुंच गई.
महाराष्ट्र एकीकरण समिति के अध्यक्ष दीपक दल्वी ने बीबीसी हिंदी से कहा, "इसकी वजह विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमण है. क्योंकि अधिकारियों ने कई गावों को शहर से मिला दिया. खानापुर विधानसभा क्षेत्र में लोगों को आधिकारिक काम कराने के लिए 26 किलोमीटर से ज़्यादा दूर तक जाना पड़ता था. ऐसे में हमलोग कैसे चुनाव जीत सकते थे."
इसके अलावा दूसरे क़दम भी उठाए गए. दीपक दल्वी के मुताबिक, "सरकारी आदेश की प्रतियां हासिल करने के लोकतांत्रिक अधिकार और संवाद करने के अधिकार तक छीन लिए गए. हम इसे मराठी में करना चाहते हैं लेकिन यह हमें कन्नड़ में करना होता है. जब राज्यों का गठन भाषाई आधार पर होता है तो यह सरकार का दायित्व है कि वह भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी भाषा में संवाद करने की सुविधा मुहैया कराए."
क्या यह मुद्दा ख़त्म हो चुका है?
मुंबई स्थित राजनीतिक विश्लेषक महेश वीजापुरकर ने बीबीसी हिंदी से कहा, "यह मुद्दा ख़त्म नहीं हुआ है क्योंकि मराठी लोग अपनी भाषाई पहचान को लेकर संवेदनशील होते हैं. यही वजह है कि भाषा के मुद्दे ने सभी राजनीतिक दलों को एकजुट कर रखा है. इस मुद्दे को लगातार उठाते रहने से अपनी पहचान जाहिर करने के साथ वे उम्मीद भी जाहिर करते हैं."
वीजापुरकर ने बताया, "अगर एक बार यह मुद्दा दब गया तो सबको मालूम है कि इसे दोबारा उठाना बेहद मुश्किल होगा. अगर उद्धव ठाकरे कहें कि इसे भूल जाइए तो उनकी मराठी अस्मिता को लेकर सवाल उठेंगे. अगर वे कहते हैं कि अपने कार्यकाल में हासिल करके रहेंगे तो इसका मतलब यह नहीं है कि ऐसा होगा. इसके लिए राज्यों के पुनर्गठन आयोग को नियुक्त करना होगा, संविधान में संशोधन करना होगा."
ऐसे में सवाल है कि राजनीतिक दल इस मुद्दे को लगातार उठाते क्यों रहते हैं? वीजापुरकर ने बताया, "जो राजनीतिक दल इस मुद्दे को नहीं उठाएगा, उसे मतों को नुकसान होगा. लेकिन ये एकमात्र वजह नहीं है. यह पहचान से भी जुड़ा मामला है."
सामाजिक और आर्थिक असर
वहीं दूसरी ओर कर्नाटक में स्थिति कुछ अलग है. काटकर ने बताया, "मराठी भाषी क्षेत्रों में भी तीसरी-चौथी पीढ़ी आ चुकी है. जिन्हें लगता है कि इस मुद्दे से उन्हें कोई मदद नहीं मिलने वाली है. कई बार बेलगावी में नेताओं के बयानों से सरगर्मियां बढ़ जाती हैं लेकिन बेलगावी सबसे शांतिपूर्ण इलाका है."
रानी चेनम्मा यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर कमलाक्षी जी ताडासाड ने बताया, "युवाओं का ध्यान रोज़गार हासिल करने पर है, इस विवाद में उनकी बहुत दिलचस्पी नहीं है. हमारे अध्ययन में हमने 18 से 25 और 25 से 35 साल के आयुवर्ग में 300 प्रतिभागियों से बात की. ये लोग अपने घरों में मराठी बोलते हैं और बाहर में कन्नड़."
हालांकि एक दूसरे अध्ययन का हवाला देते हुए कमलाक्षी जी ताडासाड कहती हैं, "लड़कियां मराठी सीखती हैं जबकि लड़के कन्नड़. जब हमने इन लोगों से इस बारे में पूछा तो लोगों का जवाब था कि बेटियां शादी करके महाराष्ट्र चली जाएगी. हालांकि कामकाजी महिलाओं और आर्थिक तौर पर पिछड़े वर्ग के लोगों में मिली जुली राय देखने को मिलती है."
दीपक दल्वी ने बताया, "16 साल पहले 2004 में महाराष्ट्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाख़िल करके कर्नाटक से 814 गांवों को हस्तांतरित करने की मांग की थी. यह मामला अभी भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है क्योंकि कर्नाटक मामले की सुनवाई में अनुपस्थित रहकर जिरह से बचता रहा है."