महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन की जल्दीबाजी के पीछे क्या ये है बीजेपी का दांव? जानिए
नई दिल्ली- मंगलवार को महाराष्ट्र में जिस तरह से केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति शासन लगाया है, उसको लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। आरोप लग रहे हैं कि जब राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने एनसीपी को मंगलवार रात साढ़े आठ बजे तक सरकार बनाने की इच्छा और विधायकों का समर्थन दिखाने का वक्त दिया था तो अचानक उसका इंतजार किए बिना ही राष्ट्रपति शासन क्यों थोप दिया गया? अगर इसका जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे तो इसके दो पहलुओं पर बात हो सकती है। एक तो घोर राजनीतिक है और शायद इसी के चलते मोदी सरकार विपक्ष के निशाने पर है। दूसरा इसका कानूनी और संवैधानिक पहलू है, जिसका शायद केंद्र सरकार ने अपने हिसाब से भरपूर इस्तेमाल किया है।
जल्दीबाजी में नहीं, पूरी तैयारी के साथ राष्ट्रपति शासन?
महाराष्ट्र के गवर्नर ने मंगलवार रात 8.30 तक एनसीपी के जवाब का इंतजार किए बिना, जिस तरह से केंद्र सरकार को राष्ट्रपति शासन की सिफारिश भेजी, वह देखने में भले ही जल्दीबाजी में उठाया गया कदम लग रहा है, लेकिन इसका ताना-बाना बहुत सोच-समझकर बुना गया है। मसलन, केंद्र को भेजी गई सिफारिश का लब्बोलुआब समझें तो पहले राजभवन ने चुनाव परिणाम आने के 15 दिन बाद तक इंतजार किया, मगर किसी ने दावा नहीं किया। जबकि, इस दौरान शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडलों ने राज्यपाल से कई दफे मुलाकात भी की, पर सरकार बनाने की इच्छा को लेकर कोई मेमोरेंडम तक नहीं दिया। 15 दिन बाद राज्यपाल ने अपनी ओर से पहल शुरू की और सबसे पार्टी होने के नाते बीजेपी को सरकार बनाने का निमंत्रण दिया, लेकिन उसने आंकड़े नहीं होने के चलते असमर्थता जता दी। उसके बाद दूसरे नंबर की पार्टी शिवसेना को मौका दिया गया, लेकिन वह 24 घंटे की मियाद पूरी होने से कुछ देर पहले और समय की मांग लेकर आ गई। उसने एक लिस्ट सौंपी भी, लेकिन औपचारिक तौर पर दावा नहीं ठोका। इसलिए, उसकी मांग ठुकरा दी गई। फिर, एनसीपी को बुलाया गया और मंगलवार रात 8.30 तक जवाब देने का वक्त दिया गया। लेकिन, जानकारी के मुताबिक सुबह में एनसीपी से जवाब मिला कि सहयोगियो और दूसरी पार्टियों से बातचीत के लिए उन्हें तीन दिन का वक्त और चाहिए। गवर्नर के दफ्तर के मुताबिक 'अनैतिक कोशिशों के लिए समय नहीं दिया जा सकता।' यानि, सरकार ने राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए अपनी ओर से पूरी कानूनी तैयारी की है।
शिवसेना को ड्राइविंग सीट से हटाना ?
शिवसेना ने बीजेपी के साथ चुनाव जीतने के बावजूद उसका साथ इसीलिए छोड़ दिया, क्योंकि इसबार वह अपना ही मुख्यमंत्री बनाना चाहती है। भाजपा इसके लिए तैयार नहीं हुई तो शिवसेना एनडीए से भी निकल गई। राजनीतिक तौर पर बीजेपी की अब यही कोशिश होगी कि किसी तरह शिवसेना ऐसी स्थिति में आ जाए कि अगर वह कांग्रेस-एनसपी के समर्थन से सरकार बना भी ले तो भी स्थिति में न रह जाए जिस तरह से 24 अक्टूबर के बाद से उसने अपने लिए बना ली थी। उसके बिना भाजपा सरकार बनाने से चूक गई। कांग्रेस और एनसपी ने उसे मुख्यमंत्री बनाने का भरोसा दिया। लेकिन, सोमवार जिस तरह से कांग्रेस-एनसीपी ने उसे घुमाया उससे अब वह भी घबरा चुकी है। टीओआई की जानकारी के मुताबिक शिवसेना के एक नेता ने कहा भी है, 'एनसीपी के कहने पर ही न केवल हमारे कैबिनेट मंत्री ने इस्तीफा दे दिया, बल्कि शिवसेना भी एनडीए से बाहर हो चुकी है। अब हम कहीं के नहीं रह गए हैं। हम तो कांग्रेस और एनसीपी के रवैए से हैरान हैं।' ये स्थिति तब बनी, जब उद्धव ठाकरे ने शरद पवार से मुलाकात करने के अलावा सोनिया गांधी से भी लंबी बात की। जब राष्ट्रपति शासन लगने से पहले शिवसेना की स्थिति इतनी मजबूर होने लगी थी, तब जाहिर है कि इसके बाद कांग्रेस और एनसीपी उसके साथ और तगड़ी सौदेबाजी करना शुरू कर देंगे। अगर, मजबूरन शिवसेना को उनके आगे और झुकना पड़ा तो बीजेपी की यह महाराष्ट्र की राजनीति में राजनीतिक जीत होगी।
महाराष्ट्र में हिंदुत्व की राजनीति से शिवसेना को बेदखल करना ?
बाल ठाकरे के जमाने से शिवसेना महाराष्ट्र में हमेशा से हिंदुत्व की राजनीति की अगुवा रही है। इसी के चलते जब राम मंदिर आंदोलन के वक्त भाजपा देश की सियासत में उभरने लगी तो प्रदेश में उसका समान विचारधारा के नाम पर पार्टी के साथ मजबूत और भरोसेमंद गठबंधन हो गया। तीन दशकों की लंबी राजनीति में दोनों पार्टियों के बीच अक्सर नोंकझोंक होती रही, लेकिन दोनों पार्टियां कभी भी पूरी तरह से अलग नहीं हुई। अब शिवसेना अपना मुख्यमंत्री बनाने के लिए कांग्रेस-एनसीपी जैसी पार्टियों के शरण में जा चुकी है, जो बाल ठाकरे की कट्टर राजनीतिक दुश्मन रही हैं। इन दोनों की सियासत ही बीजेपी और शिवसेना की हिंदुत्व की राजनीति की विरोधी रही है। ऐसे में अब भाजपा महाराष्ट्र में खुद को एकमात्र हिंदुत्व की अगुवा के तौर पर पेश करने की कोशिश करना चाहेगी। बीजेपी की ओर से ये कोशिश शुरू भी हो चुकी है। पार्टी नेता और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने ट्विटर पर बाल ठाकरे, अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की एक तस्वीर साझा करते हुए लिखा है, "बालासाहेब के वर्षों की तपस्या ने सनातनियों को महाराष्ट्र में एक उम्मीद और पहचान दी ..आज हिंदुत्व विरोधियों के साथ जाता देख बालासाहेब और शिवसैनिक कराह रहे होंगे। इतिहास गवाही देगा की कैसे बालासाहेब ने सबको एक किया और कुछ ने सबको बिखेर दिया।" जाहिर है कि अब शिवसेना की सरकार बने या न बने भाजपा राज्य में खुद को हिंदुत्ववादी विचारधारा की अकेली प्रतिनिधि के तौर पर पेश करने की कोशिश करेगी। आने वाले वक्त में केंद्र सरकार कुछ ऐसे फैसले भी ले सकती है, जैसे यूनिफॉर्म सिविल कोड, जिससे शिवसेना की स्थिति और भी असहज हो सकती है।
आगे बीजेपी की सरकार बनाने के मौके का इंतजार ?
भाजपा के वरिष्ठ नेता सुधीर मुनगंटीवार पहले ही कह चुके हैं कि पार्टी महाराष्ट्र में सही वक्त पर उचित फैसला लेगी। राष्ट्रपति शासन लगने से पहले ही पार्टी के एक नेता ने कहा था कि बदलते राजनीतिक हालात में हमारी सरकार बनाने के लिए सभी अदल-बदल और गठबंधन की संभावनाओं की तलाश की जाएगी। बीजेपी को ये भी भरोसा है कि शिवसेना ने जिस तरह से गठबंधन की जीत के बाद भी उसके साथ रोल निभाया है, उससे पार्टी का एक वर्ग भी मातोश्री से खुश नहीं है। खासकर केंद्र सरकार से पार्टी कोटे के मंत्री अरविंद सामंत के इस्तीफे के बाद जिस तरह से कांग्रेस और एनसीपी ने सत्ता के लिए उसे दौड़ाना शुरू किया है, उससे वे ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। ऐसे में बीजेपी नेतृत्व को यकीन है कि शिवसेना के ऐसे विधायक आज न कल नए विकल्प की तलाश जरूर शुरू करेंगे। बीजेपी की ओर से पहले से ही दावा किया जा रहा है कि शिवसेना के 25 विधायक लगातार उसके साथ संपर्क में हैं। यही नहीं, अगर तीनों पार्टियां जल्द किसी नतीजे पर नहीं पहुंचीं तो कुछ और विधायक भी नए विकल्प की तलाश में निकल सकते हैं और पार्टी को एक अच्छा मौका मिल सकता है।
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