आर्थिक मंदी क्या होती है, कब आती है और इसका क्या हल है?
कोई देश जब आर्थिक मंदी के दौर से गुज़रता है, तो हालात कैसे बन जाते हैं? हमने आर्थिक मंदी और उससे जुड़ी कुछ ऐसे ही बुनियादी और ज़रूरी सवालों के जवाब आपके लिए तैयार किए हैं.
'धंधा मंदा चल रहा है', अक्सर दुक़ानदारों या व्यापारियों की ज़ुबान से आपको ये सुनने को मिल जाता है.
आप इसका संदर्भ भी आसानी से समझ लेते हैं, लेकिन जैसे ही मंदी के आगे 'आर्थिक' शब्द जुड़ता है, हम अर्थशास्त्रियों की दी गई परिभाषा तलाशने लगते हैं.
फिर अर्थशास्त्रियों के भारी भरकम शब्द और अर्थशास्त्र का मकड़जाल हमें इतना उलझा देता है कि आर्थिक मंदी होती क्या है और कोई देश जब इस दौर से गुज़रता है, तो हालात कैसे बन जाते हैं?
इन सभी सवालों के जवाबों से हम महरूम रह जाते हैं.
ऐसे में हमने आर्थिक मंदी और उससे जुड़ी कुछ बुनियादी और ज़रूरी सवालों के जवाब तैयार किए हैं.
आर्थिक मंदी क्या होती है?
मंदी यानी किसी भी चीज़ का लंबे समय के लिए मंद या सुस्त पड़ जाना और जब इसी को अर्थव्यवस्था के संदर्भ में कहा जाए, तो उसे आर्थिक मंदी कहते हैं.
लंबे समय तक जब देश की अर्थव्यवस्था धीमी और सुस्त पड़ जाती है, तब उस स्थिति को आर्थिक मंदी के रूप में परिभाषित किया जाता है.
सोमवार को केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भारत में आर्थिक मंदी से जुड़ी आशंकाओं को ख़ारिज करते हुए कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था के मंदी में जाने का सवाल ही नहीं उठता.
लेकिन सवाल ये उठता है कि किसी देश की अर्थव्यवस्था मंदी में जाती कैसे है?
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कब आती है मंदी?
जब किसी अर्थव्यवस्था में लगातार दो तिमाहियों में जीडीपी ग्रोथ घटती है, तो उसे तकनीकी रूप में मंदी का नाम देते हैं.
आसान शब्दों में कहें तो अर्थव्यवस्था जब बढ़ने की बजाय गिरने लगे, और ये लगातार कई तिमाहियों तक होती रहे, तब देश में आर्थिक मंदी की स्थिति बनने लगती है.
इस स्थिति में महंगाई और बेरोज़गारी तेज़ी से बढ़ती है, लोगों की आमदनी कम होने लगती है, शेयर बाज़ार में लगातार गिरावट दर्ज की जाती है.
देश की जीडीपी (किसी एक साल में देश में पैदा होने वाले सभी सामानों और सेवाओं की कुल वैल्यू ) के आंकड़े ही बताते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था फल-फूल रही है या मंदी के बादल मंडराने लगे हैं.
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मंदी और स्टैगफ्लेशन में क्या अंतर है?
मंदी के साथ ही अर्थव्यवस्था के संदर्भ में जिस एक और शब्द का ख़ूब इस्तेमाल होता है, वो है स्टैगफ्लेशन.
स्टैगफ्लेशन वो स्थिति है जब अर्थव्यवस्था स्टैगनेंट यानी स्थिर हो जाती है.
मंदी में जहां अर्थव्यवस्था में गिरावट दर्ज की जाती है, वहीं स्टैगफ्लेशन में अर्थव्यवस्था न बढ़ती, न घटती है. यानी ग्रोथ ज़ीरो होता है.
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महंगाई और मंदी का कोई नाता है?
दुनिया भर के देश इस व़क्त महंगाई से जूझ रहे हैं. इनमें दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश भी शामिल हैं.
पहले कोरोना महामारी, रूस-यूक्रेन युद्ध और अब भी लॉकडाउन के साये में जीने को मजबूर चीन के कई बड़े शहरों के कारण सामानों की सप्लाई चेन में रुकावट आई है. जिससे वैश्विक स्तर पर मंदी की आहट सुनाई देने लगी है.
बढ़ती महंगाई को कम करने के लिए ज़्यादातर देशों के केंद्रीय बैंक अपने ब्याज़ दरों में वृद्धि कर रहे हैं, भारत भी उनमें एक है, लेकिन उच्च ब्याज़ दरें आर्थिक गतिविधियों में रुकावट पैदा करती देती हैं.
फोर्ब्स एडवाइज़र में छपे एक लेख के अनुसार 1970 के दशक में अमेरिका में बेतहाशा महंगाई एक बड़ी समस्या बन गई. महंगाई को नियंत्रित करने के लिए फेडरल रिज़र्व ने ब्याज़ दरों में वृद्धि की, जिससे मंदी आ गई.
आर्थिक मामलों के जानकार और जेएनयू के प्रोफेसर रहे चुके अरुण कुमार भी मानते हैं कि ब्याज़ दरों में इज़ाफ़ा करने से बाज़ार में मांग कम हो जाती है और डिमांड कम होने से अर्थव्यवस्था की विकास दर भी धीमी पड़ जाती है.
हालांकि डिफ्लेशन यानी महंगाई दर में भारी गिरावट भी मंदी पैदा कर सकती है. जबकी डिफ्लेशन इंफ्लेशन से ज़्यादा ख़तरनाक है.
डिफ्लेशन के कारण कीमतों में गिरावट आती है, जिससे लोगों की सैलरी कम हो जाती है और चीज़ों की कीमतें और घट जाती हैं.
आम लोग और व्यावसायी ख़र्च करना बंद कर देते हैं, जिससे अर्थव्यवस्था कमज़ोर हो जाती है और मंदी दरवाज़ा खटखटाने लगती है. 1990 के दशक में जापान में आई मंदी का कारण अत्यधिक डिफ्लेशन ही था.
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भारतीय में कब-कब आई मंदी?
रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के जीडीपी ग्रोथ आंकड़ों को देखें तो आज़ादी के बाद से अब तक भारत ने कुल चार मंदी देखी है. ये साल 1958, 1966,1973 और 1980 में आई.
साल 1957-58 के बीच भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था में पहली गिरावट तब दर्ज की, जब जीडीपी की ग्रोथ रेट माइनस में चली गई. इस साल जीडीपी ग्रोथ रेट -1.2 प्रतिशत रिकॉर्ड की गई थी.
इसके पीछे की वजह आयात बिलों में भारी वृद्धि थी, जो 1955 और 1957 के बीच 50 प्रतिशत से अधिक बढ़ गया था. वित्तीय वर्ष 1965-66 में भयंकर सूखे के कारण भारत का जीडीपी ग्रोथ फिर ऋणात्मक रहा.
इस साल ये -3.66% थी. वहीं 1973 की मंदी की वजह बना तेल संकट. पेट्रोलियम उत्पादक अरब देशों के संगठन (ओएपीईसी) ने उन तमाम देशों के तेल निर्यात करने पर रोक लगा दी थी, जो योम किप्पूर युद्ध में इसरायल के साथ थे.
इसके चलते कुछ वक्त के लिए तेल की कीमतें 400 फ़ीसदी तक बढ़ गई थीं. 1972-73 में भारत की जीडीपी ग्रोथ रेट -0.3 रही.
आख़िरी यानी साल 1980 में आई मंदी की वजह बनी ईरानी क्रांति. ईरानी क्रांति के कारण दुनिया भर में तेल उत्पादन को बड़ा झटका लगा. तेल आयात की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई.
भारत का तेल आयात का बिल भी क़रीब दोगुना हो गया और भारत के निर्यात में आठ फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई. साल 1979-80 में भारत का जीडीपी ग्रोथ -5.2 फीसदी रहा.
साल 2020 में जब पूरी दुनिया को कोरोना महामारी ने अपनी चेपट में लिया तब एक बार फिर भारत की अर्थव्यवस्था की हालत ख़राब हुई.
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अभी क्या हालात हैं - मंदी आ सकती है या नहीं?
पूर्व राज्यसभा सांसद और बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने मंदी पर, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के दिए बयान को सही ठहराते हुए एक ट्वीट किया है.
अपने इस ट्वीट में वो कहते हैं, "भारत के मंदी में जाने का सवाल ही नहीं उठता, वित्त मंत्री सही कहती हैं क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था तो पिछले साल ही मंदी में चली गई थी."
https://twitter.com/Swamy39/status/1554283859805556738
अपनी ही पार्टी के नेताओं को अक्सर सवालों के घेरे में खड़े कर देने वाले सुब्रमण्यम स्वामी की इस टिप्पणी को कितनी गंभीरता से लेना चाहिए, इस सवाल के जवाब में आर्थिक मामलों के जानकार और जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं कि सुब्रमण्यम स्वामी की बात को पूरी तरह ग़लत नहीं ठहराया जा सकता. देश की अर्थव्यवस्था पहले से ही स्टैगफ्लेशन में है और अब ये मंदी की ओर ही बढ़ रही है.
वे कहते हैं, "निर्मला सीतारमण जो भी दावे या आंकड़ें पेश कर रही हैं, वो संगठित क्षेत्रों के हवाले से कर रही हैं. उनमें असंगठित क्षेत्रों के आंकड़े शामिल नहीं हैं. ये बात बिल्कुल सही है कि संगठित क्षेत्र अच्छा कर रहे हैं, लेकिन असंगठित क्षेत्रों की स्थिति ख़स्ताहाल है. उनकी ख़स्ताहाल स्थिति के कारण ही डिमांड संगठित क्षेत्रों की तरफ़ बढ़ रही है."
"सरकार को पहले ये बताना चाहिए कि असंगठित क्षेत्रों में कितनी बढ़त हो रही है, फिर किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए. केवल संगठित क्षेत्र के आंकड़ों के हवाले से आप ये नहीं कह सकते कि मंदी नहीं आ सकती."
अरुण कुमार का कहना है कि ब्याज़ दरों में वृद्धि हो रही है, दुनिया के बाकी देश भी इंटरेस्ट रेट बढ़ा रहे हैं, इससे सारी दुनियाभर में डिमांड कम हो जाएगी.
"दूसरी तरफ़ रूस-यूक्रेन युद्ध और चीन के बड़े शहरों में जारी लॉकडाउन के कारण सप्लाई चेन प्रभावित है, इसका असर ये हो रहा है कि महंगाई कम नहीं हो रही. तो जब तक महंगाई बढ़ती रहेगी, असंगठित क्षेत्रों प्रभावित रहेंगे और हमारी अर्थव्यवस्था मंदी की ओर जाएगी."
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मंदी से कोई देश कैसे बाहर निकल सकता है?
प्रोफ़ेसर अरुण कुमार बताते हैं कि किसी देश को मंदी से निकालने के लिए सबसे पहले उसकी अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाने की ज़रूरत होती है. अगर निवेश बढ़ता है तो रोज़गार पैदा होगा, लोगों के हाथ में पैसा आएगा और उनकी परचेज़िंग पावर बढ़ेगी.
"भारत के संदर्भ में बात करें तो रोज़गार एक बहुत बड़ी समस्या है. शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में रोज़गार गारंटी स्कीम के ज़रिए इस समस्या से निपटा जा सकता है. वहीं, इनडायरेक्ट टैक्सेस जैसे जीएसटी दरों को भी कम करने की ज़रूरत है. अगर उत्पादों पर लगी जीएसटी कम होगी तो लोगों की बचत बढ़ेगी और वो बाज़ार में ज़्यादा निवेश करेंगे."
"सरकार को जीएसटी रिफॉर्म पर भी सोचने की ज़रूरत है. जीएसटी से असंगठित क्षेत्रों को बहुत धक्का लगा है. इसके अलावा कॉर्पोरेट सेक्टर, जो लगातार मुनाफ़े में हैं, उन पर सरकार को विंडफॉल टैक्स लगाने की ज़रूरत है. विंडफॉल टैक्स एक ऐसी तरह का टैक्स है जिसे सरकार कंपनियों पर लगाती है. जब कंपनी किसी माध्यम से मुनाफ़े में जाती है, तो उसे विंडफॉल प्रॉफिट कहा जाता है."
"सरकार कंपनी के इसी प्रॉफिट पर टैक्स वसूलती है इसलिए इसे विंडफॉल टैक्स कहा जाता है. तो कॉर्पोरेट कंपनियों पर टैक्स लगाने से इनडायरेक्ट टैक्स में कटौती करना आसान होगा. इससे आम लोगों की जेब में ज़्यादा पैसा बचेंगे और वो ज़्यादा निवेश कर सकेंगे."
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