अल्मोड़ा में जन्मे थे मलेरिया की अचूक दवा बनाने वाले डॉ. रॉस, भारत ने ऐसे पाया काबू
नई दिल्ली। भारत ने मंगलवार को साफ कर दिया है कि कहा है कि वो कोरोना वायरस संकट के बीच अमेरिका और दुनिया के उन देशों को मलेरिया की दवाई सप्लाई करेगा जिन पर इस महामारी का सबसे ज्यादा असर पड़ा है। विदेश मंत्रालय की तरफ से स्पष्ट कर दिया गया है हाईड्रॉक्सीक्लोरीन और पैरासिटामोल पर लगे प्रतिबंध को आशिंक तौर पर हटाया जा रहा है। मलेरिया की दवा पिछले 20 मार्च से तब से खबरों में है जबसे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इसे कोरोना वायरस के लिए एक कारगर उपाय बताया था। भारत इस दवा के कुछ सबसे बड़े उत्पादक देशों में शामिल है। आइए आपको देश की उस नीति के बारे में जो मलेरिया की दवाई से जुड़ी है।
यह भी पढ़ें-भारत ने दिखाया बड़ा दिल, अमेरिका को सप्लाई करेगा दवाएं
17वीं सदी में हुई मलेरिया की दवा की खोज
17वीं सदी में डॉ. रोनाल्ड रॉस ने मलेरिया की अचूक दवाई कुनैन की खोज की थी। भारत ने सन् 1953 में मलेरिया कंट्रोल प्रोग्राम की शुरुआत की थी। जब देश आजाद हुआ तो संस्थाओं के सामने सबसे बड़ी चुनौती मलेरिया पर काबू पाना था। पब्लिक सेक्टर्स की तरफ से क्लोरोक्वीन की मदद से इसका इलाज मुहैया कराया जाने लगा। कई दशकों तक यह मलेरिया की अहम दवाई बनी रही। इसके बाद कुछ दवाईओं को मिलाकर एक नए तरीके से इलाज की शुरुआत हुई। मलेरिया के इलाज में जटिलताओं के चलते देश में नेशनल एंटी-मलेरियल ड्रग पॉलिसी की शुरुआत हुई।
बनाई गई इलाज की नीति
यह पॉलिसी पब्लिक और प्राइवेट दोनों ही प्रकार के हेल्थकेयर सेक्टर्स के लिए था। इस नीति के तहत उन चुनौतियों को दूर करना था जो इलाज से तो जुड़ी ही थी साथ ही वैकल्पिक दवाईयों के इलाज से भी जुड़ी थीं। इसके अलावा प्राइमाक्वीन थैरेपी ताकि मलेरिया को दोबारा होने से रोका जा सके, गर्भावस्था में मलेरिया के इलाज और बीमारी को रोकने के लिए प्रयुक्त होने वाली दवाईयों के चुनाव से जुड़ी चुनौतियों को भी इस नीति के जरिए दूर किया गया। समय-समय पर इस नीति का रिव्यू होता है और फिर भविष्य के फैसले लिए जाते हैं।
भारत में ही जन्में थे डॉक्टर रॉस
कुनैन की खोज करने वाले डॉक्टर रॉस का जन्म भारत के अल्मोड़ा में हुआ था। डॉक्टर रॉस, ब्रिटिश शासन में गठित रॉयल इंडियन आर्मी के स्कॉटिश ऑफिसर सर कैम्पबेल रॉस की दस संतानों में सबसे बड़े थे। इंग्लैंड में स्कूली शिक्षा खत्म करने के बाद उन्होंने पिता के दबाव में आकर लंदन के सेंट बर्थेलोम्यू मेडिकल स्कूल में प्रवेश ले लिया। अपनी मेडिकल एजुकेशन पूरी होने के बाद वे इंडियन मेडिकल सर्विस की प्रवेश परीक्षा में बैठे लेकिन नाकाम रहे। हार ना मानते हुए उन्होंने फिर अगले साल परीक्षा में बैठे जिसमें वे 24 छात्रों में से 17 वें नम्बर पर आए।
मलेरिया की वजह से कई मौतें
आर्मी मेडिकल स्कूल में चार महीने के ट्रेंनिग के बाद वें इंडियन मेडिकल सर्विस में एडमिशन लेकर अपने पिता का सपना पूरा किया। इसके बाद वह मद्रास प्रेसीडेंसी में गए और अपनी सेवाएं दीं। डॉक्टर रॉस का काम मलेरिया पीड़ित सैनिकों का इलाज करना था। रॉस ने पाया कि इलाज के बाद रोगी ठीक तो हो जाते थे लेकिन मलेरिया इतना घातक था कि उसके वजह से लोगों की मौतें तेजी होना शुरू हो गई। भारत में सात साल काम करने के बाद वह 1888 में इंग्लैंड लौट गए थे। पब्लिक हेल्थ में डिप्लोमा करने के बाद डॉक्टर रॉस साल 1889 में भारत लौट आए। डॉक्टर रॉस खुद एक बार मलेरिया जैसी बीमारी का शिकार हो चुके हैं, इसके बावजुद भी उन्होंने करीब एक हजार मच्छरों पर अध्ययन किया। सन् 1894 में वह लंदन लौट गए थे। सन् 1902 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।