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हाशिमपुरा दंगों में 'इंसाफ़' का क्या हुआ?

अली सरदार जाफ़री का ये शेर आज से तक़रीबन साढ़े 31 बरस पहले मैंने साप्ताहिक 'रविवार' में अपनी उस रिपोर्ट में लिखा था जिसे हाशिमपुरा नरसंहार के बाद प्रकाशित किया गया था. मेरी उस रिपोर्ट का शीर्षक था "दंगों से ज़्यादा ख़तरनाक था दंगों को रोकने का तरीक़ा."

आपकी ज़िंदगी में कुछ घटनायें ऐसी होती हैं जो दिल-दिमाग़ पर कुछ इस तरह चस्पा हो जाती हैं जिन्हें आप चाहकर भी भुला नहीं पाते.

By BBC News हिन्दी
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हाशिमपुरा कांड
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"तेग़ मुंसिफ हो जहाँ दारो रसन हों शाहिद, बेगुनाह कौन है उस शहर में क़ातिल के सिवा."

अली सरदार जाफ़री का ये शेर आज से तक़रीबन साढ़े 31 बरस पहले मैंने साप्ताहिक 'रविवार' में अपनी उस रिपोर्ट में लिखा था जिसे हाशिमपुरा नरसंहार के बाद प्रकाशित किया गया था. मेरी उस रिपोर्ट का शीर्षक था "दंगों से ज़्यादा ख़तरनाक था दंगों को रोकने का तरीक़ा."

आपकी ज़िंदगी में कुछ घटनायें ऐसी होती हैं जो दिल-दिमाग़ पर कुछ इस तरह चस्पा हो जाती हैं जिन्हें आप चाहकर भी भुला नहीं पाते.

31 बरस पहले मेरठ में हुए ख़ौफ़नाक दंगे मेरी स्मृति में कुछ इसी तरह बैठ गए हैं और मुझे लगातार 'हौंट' करते रहते हैं.

31 बरस पुराना दर्द

मेरा ज़मीर लगातार मुझे इस बात के लिए धिक्कारता रहता है कि इतना बड़ा ज़ुल्म ओ सितम तुम्हारी आँखों के सामने हुआ और तुम उसे सिर्फ़ रिपोर्ट करके ख़ामोश बैठे रहे.

तुमने मज़लूमों को इंसाफ़ दिलाने के लिए कुछ भी नहीं किया. जिन मज़लूमों को तुम दिलासा देकर आये थे कि तुम उन लोगो के लिए लड़ोगे और इंसाफ़ दिलाओगे उनके पास दोबारा लौट कर भी नहीं गए.

हाशिमपुरा कांड
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मेरठ में सांप्रदायिक दंगों का सिलसिला अप्रैल 1987 में शुरू हुआ था जो तक़रीबन तीन माह तक चला. मैं इन दंगो का प्रत्यक्षदर्शी था और उन्हें लगातार रिपोर्ट कर रहा था.

उस दौरान आपसी दंगों में क़रीब सौ लोग मारे गए थे. लेकिन सबसे ख़तरनाक क़त्लेआम शहर के हाशिमपुरा और नज़दीक के एक गांव मलियाना में 22 और 23 मई 1987 को हुआ जिसमें तक़रीबन सवा सौ बेगुनाह मुसलमानों को जो ज़्यादातर नौजवान थे पुलिस और पीएसी की गोलियों से भून दिया गया.



जब सेना ने चलाई गोलियां

चौंकाने वाली बात तो ये है कि स्वतंत्र भारत में 'कस्टोडियल किलिंग' के इस सबसे बड़े मामले को अंजाम देने में सेना की मदद ली गयी और हाशिमपुरा मुहल्ले से रमजान के महीने में 22/23 मई की रात 50 से ज़्यादा मुस्लिम नौजवानो को सेना की निगरानी में गिरफ़्तार किया गया.

हाशिमपुरा कांड
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बाद में पीएसी ने उन्हें ग़ाज़ियाबाद ज़िले के दो स्थानों मुरादनगर क़स्बे के नज़दीक गंग नहर पर और दिल्ली-यूपी बॉर्डर पर स्थित मकनपुर गांव के नज़दीक हिंडन नदी में गोली मारकर बहा दिया.

तक़रीबन साढ़े 31 साल बाद हाशिमपुरा नरसंहार मामले में तो दोषी 16 पीएसी वालों को आजीवन क़ैद की सज़ा सुना भी दी गई.

लेकिन 23 मई 1987 को मलियाना नरसंहार मामले में तो अभी अदालती कार्यवाही शुरू भी नहीं हुई है जहाँ 72 मुसलमानों को पीएसी की एक प्लाटून ने गोली मारकर एक कुएं में दफना दिया था.

हाशिमपुरा कांड
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ढाई बरस पहले 30 मार्च 2016 को 'द हिन्दू' अख़बार ने इस मुक़दमे की कहानी प्रकाशित करते हुए लिखा था कि 800 तारीख़ें पड़ने के बावजूद इस्तग़ासे के 35 गवाहों में से सिर्फ तीन को 'क्रॉस एग्ज़ामिन' किया गया है और इस मुक़दमे की असल एफ़आईआर ग़ायब है.



ईमानदार पुलिसवाले का काम

हाशिमपुरा नरसंहार का मामला तो इसलिए लोगों के सामने आ सका क्योंकि उस समय ग़ाज़ियाबाद में एक कर्तव्यनिष्ठ पुलिस कप्तान विभूति नारायण राय एसपी थे और उन्होंने इस घटना की रिपोर्ट थाना लिंक रोड में दर्ज करवा दी थी.

इसके आधार पर सीबी सीआईडी ने जांच की और मुक़दमा पहले ग़ाज़ियाबाद की एक अदालत और फिर दिल्ली की तीस हज़ारी अदालत में चला.

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लेकिन मलियाना का वाक़या इसलिए सामने नहीं आ सका क्योंकि वो मेरठ के एकदम पास में था और वहां पीएसी ने 72 मुसलमानों का क़त्ले आम कर लाशों को वहीं दफ़न कर दिया था. कहा जाता है कि यह क़त्लेआम पीएसी के एक कमांडेंट आरडी त्रिपाठी के नेतृत्व में हुआ था, जिनके ख़िलाफ़ कार्रवाई होना तो दूर की बात उन्हें सर्विस मैं मज़ीद तरक़्क़ी दी गयी.

इसके अलावा मेरठ शहर के तक़रीबन दस अन्य मुसलमानों की मौत गिरफ़्तारी के बाद पुलिस हिरासत में हुई. जिनमें छह लोग फतेहगढ़ जेल में पीट-पीट कर मार डाले गए और चार मेरठ की अब्दुल्लापुर जेल में.

इन दस लोगों की मौत के मुक़दमे तो दर्ज किये गए, लेकिन हुकूमत ने इंसाफ़ देने के बजाये उन मुक़दमों की फ़ाइल दबा दी.



जब अनशन पर बैठे सुब्रमण्यम स्वामी

उस समय के देश के जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने अपनी रिपोर्टों में इन तथ्यों का ज़िक्र किया था, जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल, जस्टिस राजिंदर सच्चर, कुलदीप नैय्यर, बदरुद्दीन तैय्यबजी ,सुभद्रा जोशी, एजी नूरानी, प्रोफेसर एएम ख़ुसरो, नंदिता हक्सर और प्रोफ़ेसर दलीप स्वामी शामिल हैं,

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देशी मानवाधिकार संस्थाओं जैसे 'पीपुल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टी' और पीपुल्स यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स' के अलावा अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी अप्रैल 1987 में मेरठ में हुए इन खौफ़नाक नरसंहारों पर विस्तृत रिपोर्टें जारी की थीं.

इतना ही नहीं उस समय जनता पार्टी के नेता और अब बीजेपी के वरिष्ठ नेता और सांसद डॉक्टर सुब्रमण्यम स्वामी हाशिमपुरा मामले की जाँच कराये जाने की मांग को लेकर बोट क्लब पर आमरण अनशन पर बैठे थे.

और इस नरसंहार के लिए तत्कालीन गृह राज्य मंत्री पी चिदंबरम को दोषी ठहराते हुए उन पर मुक़दमा चलाये जाने की मांग की थी.

सन 2006 में उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह को एक चिट्ठी लिखकर इस मामले को इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस (आई जे सी) में ले जाने की मांग की थे.

वे अपनी इस मांग पर अब भी क़ायम हैं और उन्होंने दिल्ली हाई कोर्ट में एक याचिका भी दायर कर रखी है.

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English summary
What happened to justice in the Hashimpura riots
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