कुंभ पर अरबों रुपए ख़र्च कर सरकार को क्या मिलता है?
कुंभ मेले का परिसर पिछली बार के मुक़ाबले क़रीब दोगुने वृद्धि के साथ 3,200 हेक्टेयर है, 2013 में इसका फैलाव 1,600 हेक्टेयर तक था.
बहरहाल, कुंभ जैसे धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन पर सरकार भले ही लाभ को ध्यान में रखकर न ख़र्च करती हो लेकिन अगर सरकारी आंकड़े ख़र्च की तुलना में आय ज़्यादा दिखाते हैं तो निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि सरकार के दोनों हाथ में लड्डू होंगे.
प्रयागराज में संगम किनारे रेतीली ज़मीन पर बसने वाले अस्थाई कुंभ नगर की चकाचौंध देखकर कोई भी अंदाज़ा लगा सकता है कि इस पूरी व्यवस्था के लिए सरकार ने अरबों रुपए खंर्च किए होंगे.
इन्हीं चमकदार रोशनियों के बीच गुज़रते हुए बरबस ही यह ख़्याल मन में उठने लगता है कि आख़िर इतने बड़े आयोजन और ख़र्च के ज़रिए सरकार को क्या हासिल होता होगा, उसे कितनी आय होती है या फिर राजस्व के लिहाज़ से उसे कोई लाभ होता है या नहीं?
इन तमाम सवालों के जुड़े कोई आंकड़े सरकार के पास नहीं है.
हालांकि जानकारों का कहना है कि सरकार को प्रत्यक्ष लाभ भले ही न हो लेकिन परोक्ष रूप से यह आयोजन सरकारों के लिए घाटे का सौदा नहीं होता है.
मौजूदा कुंभ का गणित
मौजूदा कुंभ की बात की जाए तो इस बार सरकार इसके आयोजन पर क़रीब 4200 करोड़ रुपए ख़र्च कर रही है जो कि पिछली बार हुए कुंभ की तुलना में तीन गुना ज़्यादा है. राज्य सरकार ने इसके लिए वित्तीय वर्ष 2018-19 के बजट में 1500 करोड़ रुपये का प्रावधान किया था और कुछ राशि केंद्र सरकार की ओर से भी दी गई थी.
भारतीय उद्योग परिसंघ यानी सीआईआई ने एक अनुमान लगाया है कि 49 दिन तक चलने वाले इस मेले से राज्य सरकार को क़रीब 1200 अरब रुपये का राजस्व मिलने की उम्मीद है.
हालांकि ख़ुद सरकार ने इस तरह का कोई अनुमान अब तक नहीं लगाया है लेकिन मेला क्षेत्र के ज़िलाधिकारी विजय किरण आनंद कहते हैं कि सरकार को आय होती है ज़रूर है.
बीबीसी से बातचीत में विजय किरण आनंद कहते हैं कि सरकार को यह आय दो तरह से होती है, एक तो प्राधिकरण की आय है और दूसरी जो कई तरीक़े से होते हुए राज्य के राजस्व खाते में जाती है.
उनके मुताबिक़, "प्राधिकरण मेला क्षेत्र में जो दुकानें आवंटित करता है, तमाम कार्यक्रमों की अनुमति दी जाती है, कुछ व्यापारिक क्षेत्रों का आवंटन किया जाता है, इन सबसे थोड़ी बहुत आय होती है. मसलन इस बार हम लोगों ने क़रीब दस करोड़ रुपये कमाए हैं कुंभ मेले से. लेकिन परोक्ष रूप से इसकी वजह से राज्य के राजस्व में काफ़ी लाभ होता है जिसका हम लोग इस बार अध्ययन भी करा रहे हैं."
विजय किरण आनंद कहते हैं कि पिछले कुंभ, अर्धकुंभ या फिर हर साल प्रयाग क्षेत्र में लगने वाले माघ मेले में अब तक इस तरह का आंकड़ा जुटाने का प्रयास नहीं किया लेकिन इस बार किया जा रहा है.
रोज़गार और कमाई के साधन
सीआईआई की एक रिपोर्ट की मानें तो मेले के आयोजन से जुड़े कार्यों में छह लाख से ज़्यादा कामगारों के लिए रोज़गार उत्पन्न हो रहा है. रिपोर्ट में अलग-अलग मदों पर होने वाले राजस्व का आंकलन किया गया है जिसमें आतिथ्य क्षेत्र, एयरलाइंस, पर्यटन, इत्यादि विभिन्न क्षेत्रों से होने वाली आय को शामिल किया गया है. रिपोर्ट के मुताबिक़ इन सबसे सरकारी एजेंसियों और व्यापारियों की कमाई बढ़ेगी.
यही नहीं, कुंभ में इस बार जगह-जगह लक्ज़री टेंट, बड़ी कंपनियों के स्टॉल इत्यादि की वजह से भी आय की संभावना जताई जा रही है.
हालांकि लखनऊ के आर्थिक पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस इस आंकलन को बहुत भरोसेमंद नहीं मानते हैं. वो कहते हैं, "इस बार अर्धकुंभ है, सरकार भले ही इसे कुंभ प्रचारित कर रही है. अर्धकुंभ में भी ज़्यादातर लोग आस-पास से ही आते हैं जबकि कुंभ में बाहर से आने वालों की तादाद काफ़ी होती है. इसलिए जो लोग आ रहे हैं, वो अर्थव्यवस्था में बहुत ज़्यादा योगदान देने वाले लोग नहीं हैं."
सिद्धार्थ कलहंस के मुताबिक़ बड़ी कंपनियां सिर्फ़ अपने प्रचार-प्रसार के मौक़े तलाशने यहां आई हैं, उन्हें कारोबार से ज़्यादा न तो उम्मीद है और न ही वो कमाई कर पा रही हैं.
उनके मुताबिक़, "छोटे व्यापारी और पंडे जो कमाई करते हैं उससे भी सरकार को कुछ न कुछ राजस्व की प्राप्ति होती ही है लेकिन ये राशि इस आयोजन पर ख़र्च होने वाले धन की तुलना में बहुत कम होती है."
विदेशी पर्यटकों का आगमन
बताया जा रहा है कि कुंभ में पंद्रह करोड़ लोगों के आने की संभावना है और इस लिहाज़ से कुछ गणनाएं ऐसी भी की गई हैं कि यदि हर व्यक्ति लगभग 500 रुपये ख़र्च कर रहा है तो ये आंकड़ा क़रीब 750 हज़ार करोड़ रुपये के ऊपर पहुंचता है.
मेले में बड़ी संख्या में विदेशी नागरिक ऑस्ट्रेलिया, यूके, कनाडा, मलेशिया, सिंगापुर, साउथ अफ़्रीका, न्यूज़ीलैंड, ज़िम्बावे और श्रीलंका जैसे देशों से भी आ रहे हैं.
राज्य सरकार के पर्यटन विभाग ने मेहमानों को रहने के लिए और अन्य जगहों की यात्रा साथ-साथ करने संबंधी टूरिज़म पैकेज भी निकाला है और निजी क्षेत्र में तंबुओं में ठहरने का एक दिन का किराया दो हज़ार रुपये से लेकर पैंतीस हज़ार रुपये तक बताया जा रहा है.
कुंभ और महाकुंभ का आयोजन क्रमश छठे और बारहवें साल पर होता है जबकि इसी जगह पर प्रयागराज में माघ मेला हर साल लगता है. सरकार इन मेलों पर भारी मात्रा में ख़र्च करती है. वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र कहते हैं कि सरकार को सीधे भले ही राजस्व की प्राप्ति ज़्यादा न होती हो लेकिन परोक्ष रूप से तो लाभ पर्याप्त होता ही है.
उनके मुताबिक़, "सरकार ने कभी आकलन नहीं कराया है लेकिन ये मेले पर ख़र्च की गई राशि से कहीं ज़्यादा होती है. इसकी वजह ये है कि सरकार को विभिन्न चैनलों के माध्यम से और विभिन्न तरीक़े से आय होती है. हां, सीधे तौर पर देखा जाए तो ये घाटे का ही सौदा लगता है."
योगेश मिश्र कहते हैं कि कुंभ जैसे सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजन में आय का मूल्यांकन नहीं किया जाता है लेकिन जिस जगह पर ऐसे आयोजन होते हैं वहां अर्थव्यवस्था में धन का प्रवाह होता है जिसकी वजह से स्थानीय स्तर पर लोग लाभ लेते हैं और आख़िरकार तमाम तरीक़े से ये फ़ायदा राज्य सरकार का ही होता है.
सीआईआई के अनुमान के मुताबिक़, कुंभ की वजह से पड़ोसी राज्यों जैसे राजस्थान, उत्तराखंड, पंजाब और हिमाचल प्रदेश के राजस्व में भी बढ़ोत्तरी संभव है क्योंकि बड़ी संख्या में देश और विदेश से आने वाले पर्यटक इन राज्यों में भी घूमने जा सकते हैं.
कार्यक्रम से पहले राज्य के वित्त मंत्री राजेश अग्रवाल ने कहा, "प्रदेश प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद में कुंभ के लिए 4,200 करोड़ रुपये की राशि दी है और यह अब तक का सबसे महंगा तीर्थ आयोजन बन गया है. पिछली सरकार ने 2013 में महाकुंभ मेले पर क़रीब 1,300 करोड़ रुपये की राशि ख़र्च की थी."
कुंभ मेले का परिसर पिछली बार के मुक़ाबले क़रीब दोगुने वृद्धि के साथ 3,200 हेक्टेयर है, 2013 में इसका फैलाव 1,600 हेक्टेयर तक था.
बहरहाल, कुंभ जैसे धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन पर सरकार भले ही लाभ को ध्यान में रखकर न ख़र्च करती हो लेकिन अगर सरकारी आंकड़े ख़र्च की तुलना में आय ज़्यादा दिखाते हैं तो निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि सरकार के दोनों हाथ में लड्डू होंगे.
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