मंदिर और मस्जिद में से क्या चाहते हैं अयोध्या वाले?
'कई मंदिर भी हैं और कई मस्जिद भी हैं. पता नहीं क्यों लोग इसे लेकर इतनी लड़ाई कर रहे हैं.'
अयोध्या में नया घाट पर दोपहर के क़रीब दो बजे गुनगुनी धूप में घूम रहे कुछ युवाओं से मेरी ये जानने की इच्छा हुई कि हर साल छह दिसंबर को मीडिया की अचानक बढ़ जाने वाली हलचल को ये किस तरह से देखते हैं?
हाथ में दो-तीन कॉपियां लिए वहां से गुज़र रहे सुधांशु रंजन मिश्र के साथ जब ये चर्चा मैंने छेड़ी तो बताने लगे कि मैं तो कॉलेज से लौट रहा हूं. मुस्कराते हुए बोले, "मुझे तो पता भी नहीं कि दो दिन बात छह दिसंबर है और फिर यहां लोगों का जमावड़ा होगा."
सुधांशु बीएससी प्रथम वर्ष के छात्र हैं और ये उन लोगों में से हैं जिनका जन्म 1992 के बाद यानी बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद हुआ है.
वो आगे बताते हैं. "मंदिर तो बनना चाहिए क्योंकि वो भगवान राम की जन्मस्थली है लेकिन सच बताएं कि यहां हम लोग इसे लेकर उतनी चर्चा नहीं करते जितनी कि अख़बारों में पढ़ने को मिलती है और चैनलों पर देखने को मिलती है."
कुछ युवा रामजन्मभूमि परिसर में नहीं गए
उन्हें इस विवाद की शुरुआत और उससे संबंधित मुक़दमेबाज़ी के बारे में बहुत नहीं पता है, सिर्फ़ ये जानते हैं कि मस्जिद कई साल पहले कारसेवकों ने ढहा दी थी. सुधांशु ये भी कहते हैं कि बाहर के नेता इस मसले को हल नहीं होने देना चाहते.
वहीं, देवेश बताते हैं कि वो अयोध्या के ही रहने वाले हैं और उनका जन्म भी अयोध्या में ही हुआ है लेकिन वो आज तक रामजन्मभूमि परिसर में नहीं गए हैं. देवेश भी कॉलेज में पढ़ते हैं और मुस्कराते हुए बताते हैं, "रामजन्मभूमि हमने टीवी पर ही देखी है. कहते हैं कि रामलला वहां टेंट के अंदर हैं और उनके लिए एक अदद घर यानी मंदिर के लिए ये सब झगड़ा है."
देवेश को इसकी उम्मीद नहीं दिखती कि ये विवाद आपसी सहमति से सुलझ जाएगा.
वो कहते हैं, "अयोध्या की ज़मीन है. झगड़ा यहीं के हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच होना चाहिए, लेकिन यहां के हिन्दू-मुसलमान आराम से हैं, बाक़ी देश भर के हिन्दुओं और मुसलमानों को तकलीफ़ होती रहती है. मेरा तो मानना है कि ये सब मामला राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए ही ज़िंदा है, कभी हल नहीं हो पाएगा."
नया घाट पर तब तक कई और लोग जमा हो गए. कुछ लोग मंदिर बनाने को लेकर काफी जोशीले अंदाज़ में आ गए. हालांकि, हम अपनी चर्चा को युवाओं पर ही केंद्रित किए हुए थे. वहां मौजूद युवाओं में एक राकेश मिश्र भी थे जो साकेत महाविद्यालय से बीकॉम कर रहे हैं.
वो कहने लगे, "हम लोग बचपन से मुसलमान लड़कों के साथ पढ़ते आए हैं. कभी लड़ाई-झगड़ा नहीं हुआ. मंदिर-मस्जिद की बात भी होती है लेकिन ऐसी गरम चर्चा हम लोगों ने आज तक नहीं की जैसी कि टीवी पर देखने को मिलती है."
पढ़ाई-लिखाई से मतलब
नया घाट पर ही एक घर के सामने एक लड़की बाइक से रुकी. पूछने पर उसने अपना नाम आंचल यादव बताया और कहा कि वो बारहवीं कक्षा में पढ़ती हैं.
मंदिर-मस्जिद मुद्दे पर बड़ी बेबाकी से आंचल ने अपनी राय रखी, "हम लोगों के घर में भी इस बारे में बहुत चर्चा नहीं होती और स्कूल में करने का तो कोई मतलब नहीं है. हमें अपनी पढ़ाई-लिखाई से मतलब, मंदिर मस्जिद जिन्हें बनाना है, वो जानें."
आंचल कहती हैं, "कोई एक ही मंदिर तो है नहीं अयोध्या में. कई मंदिर भी हैं और कई मस्जिद भी हैं. पता नहीं क्यों लोग इसे लेकर इतनी लड़ाई कर रहे हैं. एक ही जगह पर मंदिर और मस्जिद दोनों का बनना तो मुश्किल ही है. वैसे हमारे अयोध्या में ज़्यादातर लोग चाहते हैं कि वहां मंदिर बने."
वहीं, अयोध्या रेलवे स्टेशन के पास कुटिया मोहल्ले के रहने वाले मोहम्मद इफ़्तिख़ार से मेरी मुलाक़ात हुई.
कभी फ़साद नहीं हुआ
उनकी हाफ़ जैकेट पर 1992 लिखा हुआ था. उसके बारे में जब मैंने सवाल किया तो मुस्कुराकर बोले, "तब एक हफ़्ते के थे हम जब मस्जिद गिरी थी."
इफ़्तिख़ार एमकॉम कर रहे हैं और आगे रिसर्च करना चाहते हैं. कहते हैं, "युवाओं की जहां तक बात है तो इस मामले में बहुत ज़्यादा दिलचस्पी किसी की नहीं है. हिन्दू दोस्त भी हमारे हैं लेकिन उनसे भी कभी कोई बात इस मसले पर ऐसी नहीं हुई कि कोई फ़साद हो. और यहां पर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच कभी फ़साद हुआ भी नहीं, बाहर के लोग आकर चाहे जो करा दें."
वहीं, मोहम्मद आमिर कहते हैं कि अयोध्या में लोगों को पता है कि इन सब मसलों में उलझे तो नुकसान हमारा ही होगा, "धंधा चौपट होगा, दुकानदारी प्रभावित होगी, स्कूल जाने वाले बच्चों की पढ़ाई प्रभावित होगी, तो हम क्यों करें इसकी चर्चा? बाहर से फ़साद कराने वाले तो अपने घर लौट जाएंगे, नुक़सान तो हमें होगा."
आमिर कहते हैं कि ये बात न सिर्फ़ मुसलमान बल्कि हिन्दू भी जानते हैं और समझते भी हैं.