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बाबरी मस्जिद विध्वंस के गवाह पत्रकारों ने क्या-क्या देखा था?

पत्रकारों ने बताया कि कैसे उस दिन पुलिस और प्रशासन सब कुछ होते देखते रहे और बाबरी तोड़ दी गई.

By सर्वप्रिया सांगवान
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बाबरी मस्जिद
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"भीड़ की मार क्या होती है, लुटना क्या होता है, ये मैंने उस दिन देखा. मेरा जबड़ा टूट गया था."

"मैंने इस घटना पर बहुत लिखा है लेकिन आज तक भी मैं ये ठीक से बयां नहीं कर पाया कि मैं उस वक़्त वहां क्या महसूस कर रहा था."

"मुझे जान से मारने तक की कोशिश हुई लेकिन मैं किसी तरह बचकर कार की डिक्की में छुपकर वापस आ पाई."

"मैं इस केस में 19वां गवाह था और मेरी आख़िरी गवाही 7-8 साल पहले हुई थी."

ये उन पत्रकारों के कुछ बयान हैं जिन्होंने 6 दिसंबर 1992 को अपनी आंखों से बाबरी मस्जिद विध्वंस देखा था.

6 दिसबंर 1992 का दिन सांकेतिक कारसेवा के लिए तय किया गया था.

लेकिन उससे पहले 5 दिसंबर को गीता जयंती के दिन इस कारसेवा की रिहर्सल भी रखी गई.

ये कारसेवा एक प्रतीकात्मक पूजा थी जिसमें सरयू नदी की बालू और पानी से प्रस्तावित मंदिर की जगह को धोना तय हुआ था.

इस तारीख़ तक लगभग एक लाख से ज़्यादा कारसेवक अयोध्या पहुंच चुके थे जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल थीं.

सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ़ शांतिपूर्ण कारसेवा की इजाज़त दी थी, जिसमें लोग एक साथ इकट्ठा होकर भजन गा सकते थे और प्रतीकात्मक पूजा कर सकते थे.

बीजेपी के दिवंगत नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने एक दिन पहले उत्तर प्रदेश के लखनऊ में रैली के दौरान कहा था कि कारसेवा पर सुप्रीम कोर्ट की आज्ञा का पूरी तरह पालन किया जाएगा.

लेकिन उनके इस भाषण में उन्होंने ये भी कहा, "खुदाई बाद वहां जो नुकीले पत्थर निकले हैं, उन पर तो कोई नहीं बैठ सकता, तो ज़मीन को समतल करना पड़ेगा, बैठने लायक बनाना पड़ेगा. यज्ञ का आयोजन होगा."

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अयोध्या का माहौल उन दिनों कैसा था?

इस घटना को बीबीसी के लिए कवर करने गए पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी ने बताया कि अयोध्या में कुछ दिन पहले से ही माहौल बिगड़ने लगा था.

उनके अनुसार, "30 नवंबर से ही वहां माहौल गर्म होने लगा था. कारसेवकों ने वहां मज़ारें भी क्षतिग्रस्त कर दी थी. जहां वो बाबरी मस्जिद थी, उसके पीछे ही मुसलमानों की आबादी भी है. कब्रगाह और मस्जिदें वगैरह भी हैं. बाहर से जो आए थे कारसेवक, वे काफ़ी आक्रामक थे. इन लोगों को मस्जिद के पास ही ठहराया गया था."

वहां मौजूद कारसेवकों के बीच एक भ्रम की स्थिति थी क्योंकि नेताओं के तरफ़ से अलग-अलग बयान आ रहे थे. कुछ कह रहे थे कि ये सांकेतिक पूजा ही होगी और कुछ इशारों-इशारों में बयान दे रहे थे.

कई कारसेवक भी चाहते थे कि कुछ बड़ा होना चाहिए, सिर्फ़ बालू वगैरह से पूजा करके काम नहीं चलेगा.

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रामदत्त त्रिपाठी ने बताया, "मैं और बीबीसी के साथी पत्रकार मार्क टली जब 6 दिसंबर को कारसेवकपुरम पहुंचे थे तो वहां अशोक सिंघल (विहिप नेता) को घेर कर कुछ कारसेवकों ने दुर्व्यवहार किया. उनके साथ गाली-गलौच भी की कि आप तो नेतागिरी कर रहे हैं, इस आंदोलन को राजनीतिक ढंग से चलाना चाहते हैं, हम तो गिरा देंगे ढांचा."

वहीं, मरकज़ अख़बार के लिए कारसेवा कवर करने गए हिसाम सिद्दीक़ी ने बताया कि जब लखनऊ के कारसेवकों से वे मिले तो सब सामान्य लग रहा था, हंसी-मज़ाक चल रहा था और उन लोगों ने बताया कि सिर्फ़ सांकेतिक पूजा ही की जाएगी.

क्या हो रहा था 6 दिसंबर की सुबह?

अयोध्या-फ़ैज़ाबाद से निकलने वाला अख़बार जनमोर्चा बहुत सालों से इस विवाद को कवर करता आ रहा था.

इस अख़बार की पत्रकार सुमन गुप्ता जब फ़ैज़ाबाद से अयोध्या की ओर चलीं तो उन्होंने देखा, "रास्ते में लोगों ने जगह-जगह कैंप लगा रखे थे. काफ़ी संख्या में लोग पैदल जा रहे थे. कारों को रोक कर उनमें बैठकर भी जा रहे थे. वहां कारसेवक सामान्य लोगों को भी रोक-रोक कर टीका लगाते थे और लड्डू खिला कर उन्हें जय श्रीराम बोलने को कहते थे."

बाबरी मस्जिद के पूर्व में लगभग 200 मीटर दूर रामकथा कुंज में एक बड़ा स्टेज लगाया गया था जहां सब नेता, महंत और साधु मौजूद थे.

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आस-पास की इमारतें, जैसे जन्मस्थान, सीता रसोई और मानस भवन- जहां से मस्जिद दिखाई देती थी, वहां भी वे लोग थे जो इस 'सांकेतिक कारसेवा' को देखने आए थे.

सीता रसोई की इमारत को प्रशासन ने अपना केंद्र बना रखा था. वहीं सुप्रीम कोर्ट के पर्यवेक्षक भी थे. डीएम-एसपी सब वहीं थे.

मानस भवन की छत पर पत्रकारों का जमावड़ा था. पुलिस और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के स्वयंसेवक भी व्यवस्था बनाए रखने के लिए मुस्तैद थे.

तब राष्ट्रीय सहारा के लिए रिपोर्ट कर रहे पत्रकार राजेंद्र कुमार बताते हैं, "सुबह सात बजे मैं पहुंचा था राम जन्मभूमि परिसर में. वहां परिसर में आरएसएस के लोगों ने बैरिकेंडिग कर रखी थी कि इस जगह पूजा होगी, एक साइड महिलाएं बैठेंगी. पुलिस कंट्रोल रूम बना हुआ था. कैमरे भी लगे थे जिनसे मॉनिटरिंग की जा रही थी."

"मैंने उमा भारती, लाल कृष्ण आडवाणी, कलराज मिश्रा, मुरली मनोहर जोशी, अशोक सिंहल, विनय कटियार इन सबकी तस्वीरें उस वक्त खींची थी, जब ये लोग व्यवस्था देखने के लिए विवादित परिसर में आए थे कि कहां पूजा होनी है और क्या इंतज़ाम है. रामचंद्र परमहंस भी उनके साथ थे. लल्लू महाराज जो अब सांसद हैं, वे पत्रकारों को मानस भवन में चाय पिलवा रहे थे."

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सुबह 9 बजे से ही मंच से मीटिंग शुरू हो गई थी. एक तरफ भाषण चल रहे थे तो दूसरी तरफ बड़ी संख्या में कारसेवक आते जा रहे थे.

11 बजते-बजते वहां अच्छी-ख़ासी भीड़ इकट्ठा हो गई थी.

पत्रकार हिसाम सिद्दीक़ी बताते हैं कि सुबह मस्जिद के पीछे के मैदान में उन्होंने कुछ लोगों को देखा जो रस्सियां और फ़ावड़े लेकर बैठे थे.

हिसाम के अनुसार, "वे लोग मराठी में बोल रहे थे. हमारे साथ सकाल के पत्रकार राजीव साबले थे, उन्होंने पूछा कि ये सब क्यों लिया हुआ है तो उन लोगों ने कहा कि आपको थोड़ी देर में पता चल जाएगा."

'एक धक्का और दो, बाबरी को तोड़ दो'

मंच पर सब मुख्य लोग ही मौजूद थे जिनमें बीजेपी और वीएचपी के नेता, साधु-संत वगैरह थे.

सुमन गुप्ता बताती हैं, "11 बजे के आस-पास अशोक सिंघल और उनके साथ कुछ लोगों को मैंने आते हुए देखा. वो लोग चबूतरे के पास जाते दिखे. जैसे ही वो वहां दिखे, कारसेवकों का बाबरी मस्जिद के ढांचे पर चढ़ना शुरू हो गया."

"मस्जिद के पीछे की साइड ढलान थी. उस तरफ़ सुरक्षा कारणों से लोहे की पाइपों से बाड़ बनाई हुई थी. लेकिन उन्हीं लोहे की पाइपों से लोग चढ़े भी और उनसे तोड़ने-फोड़ने का काम शुरू कर दिया. कारसेवा का जो समय तय हुआ था, उससे पहले ही लोग बाबरी मस्जिद पर चढ़ गए."

रामदत्त त्रिपाठी ने बताया कि 200-250 लोग मस्जिद की तरफ़ दौड़े और पूरे परिसर में बहुत ज़ोर-ज़ोर से नारे लगने लगे. कारसेवकों के वहां कैंप लगाए गए थे तो इसलिए वहां फावड़े, बेलचा, कुल्हाड़ी जैसे औज़ार थे ही. कुछ लोग औज़ार लेकर भी दौड़े.

बीबीसी के लिए उस घटना को कवर करने पहुंचे क़ुर्बान अली ने बताया कि आरएसएस के कुछ कार्यकर्ताओं ने उन लोगों को रोकने की भी कोशिश की जो बाबरी में घुस रहे थे.

"शुरुआत में लाल कृष्ण आडवाणी की तरफ से भी ये कोशिश की गई लेकिन वहीं कुछ उमा भारती और साध्वी ऋतंभरा जैसे नेता भी थे जो बहुत खुशी मना रहे थे.

वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं कि "वहां ऐसा बोलने वाले लोग भी थे- एक धक्का और दो, बाबरी को तोड़ दो."

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दो बजे के आस-पास पहला गुंबद गिरा जिसके गिरने में ज़्यादा वक़्त लगा था. मोटे-मोटे रस्सों के ज़रिए गुंबदों को खींचा जा रहा था. कुछ लोग औज़ारों से नींव खोदने में लगे थे.

ऐसी भी ख़बरें थी कि पहला गुंबद जब गिरा तो कुछ लोग नीचे दब गए.

हिसाम सिद्दीक़ी ने बताया, "मैंने देखा कि किसी कारसेवक के हाथ से ख़ून बह रहा है, किसी का हाथ टूट गया, किसी पर मलबा गिर गया लेकिन उसके बावजूद भी वे पूरे जज़्बे से मस्जिद तोड़ने में लगे थे."

वे बताते हैं कि "एक तरफ़ तो लोग मस्जिद पर चढ़ना शुरू करते हैं, तोड़ना शुरू करते हैं, वहीं कुछ कारसेवक पत्रकारों को खोजने लगते हैं. उनकी मंशा ये थी कि कोई ख़बर यहां से निकलने ना पाए."

ख़ासकर वे पत्रकार जिनके पास कैमरा था.

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'पत्रकारों को बुरी तरह से पीटा गया'

राजेंद्र कुमार कहते हैं कि "भीड़ की मार क्या होती है, लुटना क्या होता है, ये मैंने उस दिन देखा.

वो कहते हैं, "जब मैंने फ़ोटो खींचने की कोशिश की तो कारसेवक मुझे पकड़कर पीटने लगे. मैंने देखा कि दूसरे पत्रकार साथियों को भी पीटा जा रहे थे. मुझे इतनी बुरी तरह से मारा था कि मेरा जबड़ा टूट गया था."

ऐसा ही बीबीसी की टीम के साथ भी हुआ. बीबीसी के मार्क टली के साथ मौजूद रामदत्त त्रिपाठी और कुर्बान अली दोनों ने इस बात की तसदीक़ की.

कुर्बान अली ने बताया, "हम मार्क टली को बचाने की कोशिश कर रहे थे. तभी भीड़ में ही किसी ने कहा कि कारसेवा चल रही है, अभी इन्हें मत मारो, वरना कारसेवा में विघ्न पड़ जाएगा. तो हमें बराबर के एक मंदिर में ले जाकर बंद कर दिया गया. 3-4 घंटे तक हम वहां बंद रहे. यानी दोपहर के 3 बजे से क़रीब 7 बजे तक."

जनमोर्चा की पत्रकार सुमन गुप्ता अपने साथ हुए बर्ताव के बारे में बताती हैं कि उनके कपड़े तक फट गए थे, उन्हें चाकू मारने की कोशिश भी की गई लेकिन अचानक दो लोग हाथ बांधे आए और जिन कारसेवकों ने उन्हें पकड़ रखा था, वो उनके बीच से भागते हुए निकल गए.

इसके बाद उन लोगों को ध्यान बंट गया और वो किसी तरह भाग कर एक घर में छुप गईं.

सामाजिक कार्यकर्ता निर्मला देशपांडे उन्हें गाड़ी की डिक्की में छिपा कर फ़ैजाबाद तक लेकर आई थीं.

हिसाम सिद्दीक़ी के शब्दों में, "मैंने इस घटना पर काफ़ी लिखा है लेकिन मैं आज तक बयां नहीं कर पाया कि मैं वहां क्या महसूस कर रहा था."

पत्रकारों के कैमरे छीने जा रहे थे, तोड़े जा रहे थे.

लेकिन जब इतना सब हो रहा था तो पुलिस और प्रशासन क्या कर रही थी?

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'ये अंदर की बात है, पुलिस हमारे साथ है'

राजेंद्र कुमार कहते हैं कि जब कारसेवकों ने ढांचे पर चढ़ना शुरू किया तो सीआरपीएफ़ के जवानों को जो तेज़ी दिखानी चाहिए थी, वो उन्होंने बामुश्किल दो-तीन मिनट ही दिखाई.

वह बताते हैं, "जब मैं देख रहा था कि वे लोग चढ़ रहे हैं तो ये सिलसिला लगातार चलता ही रहा. उनको रोकने के लिए जो प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए थी, वो नहीं अपनाई गई."

कुछ पुलिसकर्मी वहां मस्जिद की सुरक्षा में पहले से ही तैनात रहते थे. उस दिन सीआरपीएफ़ के लोग भी मौजूद थे. लेकिन वहां कारसेवकों ने उन पर पत्थर बरसाने शुरू कर दिए और वे देखते ही देखते चंद मिनटों में पस्त हो गए.

वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान, जो इस मुक़दमे में गवाह भी हैं, वे बताते हैं कि उन्होंने खुद सीआरपीएफ़ के एक डीआईजी को मस्जिद से निकलकर भागते देखा.

सभी पत्रकारों ने बताया कि वहां भीड़ को तितर-बितर करने के लिए कोई हवाई फायरिंग तक नहीं की गई और ना कोई और उपाय ही किए गए.

क़ुर्बान अली के मुताबिक़, "वहां जो डीएम या एसएसपी थे, उनका भी एक 'सॉफ्ट कॉर्नर' था. जब बाबरी गिराई जा रही थी तो मैंने देखा कि डीएम और एसएसपी बैठकर चाय की चुस्कियां ले रहे थे. बाद में वही एसएसपी साहब बराबर के लोकसभा क्षेत्र से बीजेपी के उम्मीदवार के तौर पर चुने गए."

उन्होंने बताया, "मशहूर फ़ोटो जर्नलिस्ट प्रवीण जैन वहां दो-तीन दिन से थे और उन्होंने उस रिहर्सल की तस्वीरें खींची थीं जो 6 दिसंबर के पहले हुई थी. तो इस बार वे लोग तय करके आए थे कि मस्जिद गिरानी ही है. उनको इस बात का कोई डर नहीं था क्योंकि उन्हें सरकार से ही उम्मीद थी. बल्कि वहां नारा भी लगता था- ये अंदर की बात है, पुलिस हमारे साथ है. उन्हें पता था कि उनके ख़िलाफ़ वो कदम नहीं उठाए जाएंगे जो 2 साल पहले 1990 में मुलायम सरकार के दौरान उठाए गए थे."

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केंद्र की भेजी गई सुरक्षा पूरा दिन नहीं आई

केंद्र ने सीपीएफ़ (सेंट्रल पुलिस फोर्स) की 200 कंपनियां भेजी थीं लेकिन वे सब अयोध्या के बाहर फ़ैज़ाबाद कैंट में ठहराए गए थे. उन्हें सिर्फ़ राज्य सरकार की इजाज़त पर ही मूव करना था.

रामदत्त त्रिपाठी ने बताया, "सेंट्रल फोर्स को जब वायरलेस से ख़बर मिली तो उन्होंने मजिस्ट्रेट से कहा कि आप आदेश दीजिए क्योंकि फोर्स खुद नहीं जा सकती. तो राज्य सरकार या डीएम ने उन्हें आदेश ही नहीं दिया. उन्हें कहा गया कि वहां लाठी-गोली नहीं चलेगी, किसी और तरह से रोकना हो तो रोकिए. ये बात वहां आरएएफ़ (रैपिड ऐक्शन फोर्स) के कंमाडर बीएम सारस्वत ने बताई थी."

रामदत्त एक प्रशासनिक मुद्दे का ज़िक्र करते हैं कि क़ानून की प्रक्रिया के मुताबिक़ शांति व्यवस्था की ज़िम्मेदारी डीएम और पुलिस पर होती है, तो उन्हें किसी से पूछने की ज़रूरत नहीं थी. लेकिन वे मुंह ताक रहे थे कि मुख्यमंत्री क्या कहते हैं, बीजेपी नेता क्या कहते हैं, तो ज़ाहिर है कि प्रशासन अपना निर्णय लेने में स्वतंत्र नहीं था और उनके अंदर इच्छाशक्ति नहीं थी.

रामदत्त के अनुसार, "वहां मुरादाबाद के ज़िला जज प्रेम शंकर की ड्यूटी थी जो 6 दिसंबर के सुबह 11 बजे तक रिपोर्ट कर रहे थे कि सब सामान्य है."

केंद्र की भेजी गई सुरक्षा वहां पूरे दिन नहीं पहुंच सकी और चार-पांच बजे तक सभी गुंबद गिरा दिए गए.

उमा भारती की एक फ़ोटो भी उन दिनों अख़बारों में छपी थी जब वे ख़ुशी का इज़हार करते हुए मुरली मनोहर जोशी की पीठ पर चढ़ गई थीं.

पत्रकारों ने बताया कि जब ढांचा गिर गया तो शाम तक किसी नेता को उस ओर आते नहीं देखा गया. यहां तक की लल्लू जी महाराज भी नहीं दिखे.

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हो गई ज़मीन समतल

राजेंद्र कुमार ने बताया, "ढांचा गिराए जाने के बाद देखा कि कारसेवक सब पत्थरों को हटाने लगे थे. ज़मीन को समतल करने की एक प्रक्रिया शुरू हो गई. रामचंद्र परमहंस की देख-रेख में ये हो रहा था. ऐसा कहा जा रहा था कि शाम तक इसे बराबर कर एक बाउंड्री बनाई जाएगी."

रामदत्त त्रिपाठी ने बताया कि इन लोगों ने रामलला के बालरूप की जो मूर्ति रखी थी उसको भी निकाल लिया था और उसके बाद वहां रस्सी, बांस, तंबू की मदद से अस्थाई मंदिर बना दिया था.

क़ुर्बान अली ने बताया कि सरकारी मीडिया यानी तब ऑल इंडिया रेडियो ने ख़बर दी थी कि विवादित ढांचे को कुछ 'नुक़सान' पहुंचा है लेकिन उन्होंने बीबीसी उर्दू पर ख़बर दी कि अब वहां कुछ नहीं बचा है, सिर्फ़ एक मलबे का ढेर है.

7 दिसंबर को क्या हुआ?

पत्रकार राजेंद्र कुमार ने बताया, "अगले दिन जब मैं गया तो देखा कि बाउंड्री बनाने का काम चल रहा था और वो काम शाम तक पूरा कर लिया गया था. लेकिन फिर रात को 11 बजे के क़रीब ये लोग निकलने लगे क्योंकि उन्हें बताया गया कि पुलिस आ जाएगी. कुछ साधु-संतों ने गिरफ़्तारी भी दी. सात तारीख़ को इन लोगों ने क़ब्ज़ा पूरा कर लिया था."

हिसाम सिद्दीक़ी बताते हैं कि कारसेवक सात तारीख़ को ही निकलना शुरू हो चुके थे. कल्याण सिंह की सरकार बर्खास्त हो चुकी थी. अब उस साइट को सीआरपीएफ़ ने अपने नियंत्रण में ले लिया था.

क़ुर्बान अली ने एक तस्वीर के बारे में बताया जो 8 दिसंबर 1992 में छपी थी, "ये तस्वीर एक सीआरपीएफ़ के जवान की थी जो वहां सबसे पहले पहुंचा और तिरपाल में बने उस अस्थायी मंदिर के सामने उसने हाथ जोड़ पूजा की."

कारसेवकों का उन्माद

शरत प्रधान बताते हैं, "कारसेवक पूरे भारत से आए थे क्योंकि माइक से घोषणा हो रही थी कि अब आंध्र प्रदेश के कारसेवकों का जत्था आ रहा है, अब पश्चिम बंगाल के कारसेवकों का जत्था आ रहा है, अब उड़ीसा से आ रहे हैं, हरियाणा से आ रहे हैं. महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश से बहुत लोग थे. शिव सैनिक भी बहुत संख्या में थे."

पत्रकारों के मुताबिक़ कारसेवकों ने सिर्फ़ मस्जिद तोड़ने का काम ही नहीं किया बल्कि मस्जिद के पीछे मुसलमानों के मोहल्लों में भी हिंसा की.

लोगों के घरों में आग लगाई गई, लोगों को पीटा गया. कुछ लोगों की जान भी चली गई.

रामदत्त त्रिपाठी ने बताया, "वहां के स्थानीय मुसलमानों का कहना था कि ये हिंसा का काम बाहर के लोगों ने किया था. क्योंकि वहां के स्थानीय हिंदुओं के साथ मुसलमानों के अच्छे संबंध थे, उनके भी जो मंदिर आंदोलन के कर्ता-धर्ता थे. उन्होंने तो मुसलमानों को बचाया भी था."

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'अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ'

हिसाम सिद्दीक़ी कहते हैं कि बहुत सारे लोग और कुछ साधुओं को भी देखा जो रो रहे थे कि 'हम तो कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहे. ऐसा नहीं था कि एकतरफ़ा बात थी.'

राजेंद्र कुमार बताते हैं कि जब उन्हें पीटा जा रहा था तो एक बुज़ुर्ग आदमी ने उन्हें बचाया और भीड़ से बाहर ले आए. वे नहीं जानते कि वह कौन थे.

क़ुर्बान अली बताते हैं कि एक बाबा पागलदास थे तब जो पखावज़ बजाते थे, वे इस घटना के बाद बदहवास से कहते घूमते थे कि ये क्या धतकर्म कर दिया इन लोगों ने.

उन्होंने बताया, "मुझे ये भी उम्मीद थी कि विविधताओं से भरा ये देश इस झटके को सह लेगा. ये सही भी साबित हुआ क्योंकि तीन दिन बाद बड़ी तादाद में इंडिया गेट पर लोग इकट्ठा भी हुए और उनमें ग़ैर-मुसलमान ज़्यादा थे. उन लोगों ने अफ़सोस ज़ाहिर किया तो लगा कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है."

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English summary
What did the journalists witness of the Babri Masjid demolition
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