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भारतीय बैंकिंग सेक्टर किस वजह से बीमार है

भारत में महामारी से पहले से ही आर्थिक मोर्चे पर सुस्ती का दौर चल रहा है. इस हालत में बैंकों की दशा और चिंतित करने वाली है.

By निधि राय
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भारतीय बैंकिंग सेक्टर किस वजह से बीमार है

फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडियन चैंबर्स ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फ़िक्की) के एक हालिया कार्यक्रम में देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार (सीईए) कृष्णमूर्ति सुब्रह्मण्यम ने कहा कि भारत का बैंकिंग सेक्टर अर्थव्यवस्था की ग्रोथ को रोके हुए है.

सीईए ने कहा, "हम बैंकिंग सेक्टर के पैदा किए गए एक चक्रव्यूह में फँसे हुए हैं."

उन्होंने कहा कि किसी भी अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा बड़े बैंकों से मिलकर बनता है और भारत में अकेला स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) ही ऐसा बैंक है, जो दुनिया के टॉप 100 बैंकों में आता है. भारतीय बैंकों के साथ "स्केल और क्वॉलिटी की दिक्कतें हैं."

तो भारतीय बैंकिंग सेक्टर किस वजह से बीमार है?

इसका जवाब आसान नहीं है. आंशिक रूप से यह मसला विरासत में मिला है, यह इस पूरे तंत्र की समस्याओं से जुड़ा है और आंशिक रूप से इसके पीछे बुरे वक़्त में उधार लेने वालों की मदद के लिए राजनेताओं और नीति-निर्धारकों का कोई कोशिश न करना है.

मौजूदा वक़्त में बैंक क़र्ज़ देने से पीछे हट रहे हैं क्योंकि उन पर बैड लोन का भारी दबाव है. बैड लोन ऐसे क़र्ज़ होते हैं, जिन्हें उधार लेने वाले चुका नहीं पाते हैं और इस तरह से बैंकों का यह पैसा फँस जाता है.

अगर बैंक पैसे उधार देने का काम नहीं करते हैं, तो उनके पास पूँजी नहीं आएगी और इस तरह अर्थव्यवस्था के बढ़ने को धक्का लगता है.

कई वजहों के चलते क़र्ज़ बैड लोन में तब्दील हो जाते हैं. इनमें आर्थिक सुस्ती और कई बार धोखाधड़ी के मामले भी शामिल होते हैं.

भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) सख़्त रेगुलेशंस और नीतियाँ बनाकर इस स्थिति से निबटने की कोशिश करता रहा है और उसे इसमें कुछ हद तक सफलता भी मिली है, लेकिन यह अभी भी एक लंबी लड़ाई है.

देश में महामारी के फैलने के पहले से सुस्ती का दौर चल रहा था. देश का सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी 2016-17 में 8.3 फ़ीसदी की रफ़्तार से बढ़ा. 2017-18 में देश की विकास दर गिरकर 7 फ़ीसदी पर आ गई, 2018-19 में यह और नीचे आकर 6.1 फ़ीसदी रह गई, जबकि 2019-20 में ये लुढ़ककर महज 4.2 फ़ीसदी रह गई.

भारतीय बैंकिंग सेक्टर किस वजह से बीमार है

देश की ग्रोथ पिछले लगातार तीन सालों से गिर रही है. कोविड-19 ने इस हालात को और ख़राब कर दिया है.

केयर रेटिंग्स के सीनियर डायरेक्टर संजय अग्रवाल कहते हैं, "कोविड सबसे बड़ी चुनौती है और जब तक हम इकॉनॉमी पर इसके असर को समझने की हालत में नहीं आएँगे, तब तक बाक़ी सभी फ़ैक्टर अस्थिर बने रहेंगे."

इंडसइंड बैंक, एक्सिस बैंक, इंडियन बैंक, बंधन बैंक, आरबीएल बैंक और कोटक महिंद्रा बैंक सभी को कोविड-19 की वजह से घाटे हुए हैं. इन बैंकों को कोविड के चलते पैसों का अलग प्रावधान करना पड़ा है.

ग्लोबल रेटिंग एजेंसी मूडीज़ ने कहा है कि पब्लिक सेक्टर बैंकों को इस महामारी से उबरने के लिए 2.1 लाख करोड़ रुपए की अतिरिक्त पूँजी की ज़रूरत पड़ेगी.

भारतीय बैंकिंग सेक्टर किस वजह से बीमार है

नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स (एनपीए)

मूडीज और एसएंडपी ग्लोबल ने कहा है कि महामारी से अर्थव्यवस्था को उबारने की कोशिशों के दौरान ऊँचे एनपीए के चलते भारत को दूसरे एशियाई देशों के मुक़ाबले और ज़्यादा चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है.

जब बैंक अपने दिए गए क़र्ज़ में से मूलधन और ब्याज दोनों ही रिकवर नहीं कर पाते हैं, तो वे ऐसे लोनों को एनपीए में डाल देते हैं.

जुलाई में फाइनेंशियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट (एफएसआर) में आरबीआई ने कहा है कि सभी बैंकों का सकल एनपीए (जीएनपीए) रेशियो मार्च 2020 के 8.5 फ़ीसदी से बढ़कर मार्च 2021 में 12.5 फ़ीसदी पर पहुँच सकता है. अगर ऐसा होता है तो यह गुज़रे दो दशकों में जीएनपीए का सबसे ऊँचा स्तर होगा.

आरबीआई ने यह भी चेतावनी दी है कि बेहद गंभीर स्थिति में यह अनुपात बढ़कर 14.7 फ़ीसदी पर भी पहुँच सकता है. बैंक ऐसे हालात से चिंतित हैं और क़र्ज़ नहीं देना चाहते हैं.

अर्थशास्त्री विवेक कौल बताते हैं, "बैंकों को अच्छे उधार लेने वाले नहीं मिल रहे हैं इसलिए वे क़र्ज़ नहीं दे रहे हैं. ज़्यादातर कंपनियों पर बहुत क़र्ज़ है और कोई भी अच्छा बैंकर ऐसे समय में क़र्ज़ नहीं देना चाहेगा."

बैंक क्या ज़रूरत से ज़्यादा सजग हैं?

भारतीय बैंकिंग सेक्टर किस वजह से बीमार है

आरबीआई ने रेपो रेट्स में कटौती की है, ताकि ग्रोथ को बढ़ाया जा सके और उधार की दरों को कम किया जा सके. फरवरी और मार्च में कुल मिलाकर आरबीआई ने रेपो रेट को 1.15 फ़ीसदी घटाया है. फरवरी 2019 के बाद से आरबीआई रेपो रेट को 2.5 फ़ीसदी घटा चुका है.

रेपो रेट में कटौती का मतलब यह है कि बैंक अपने ग्राहकों को कम ब्याज दर पर पैसे उधार दे सकते हैं क्योंकि उन्हें आरबीआई से कम दर पर पैसे उपलब्ध होते हैं.

आरबीआई रेपो रेट का इस्तेमाल महंगाई को कंट्रोल करने बैंकों को क़र्ज़ बाँटने के लिए उत्साहित करने के लिए करता है.

लेकिन, आरबीआई की ब्याज दरों में की गई कटौतियों से अपेक्षित परिणाम नहीं मिले हैं क्योंकि बैंक अभी भी क़र्ज़ बाँटने से पीछे हटे हुए हैं.

देश में क्रेडिट ग्रोथ अप्रैल 2019 में 6.9 फ़ीसदी थी, जो मार्च 2020 में घटकर 1.4 फ़ीसदी ही रह गई है.

इकरा के फ़ाइनेंशियल सेक्टर रेटिंग्स के ग्रुप हेड कार्तिक श्रीनिवासन कहते हैं, "आर्थिक ग्रोथ में सुस्ती आना और बैंकों का जोखिम से बचने की ज़्यादा कोशिश करना क्रेडिट ग्रोथ में तेज़ गिरावट की वजह है."

एक्सपर्ट्स का मानना है कि भारतीय बैंक ज़्यादा सतर्कता बरत रहे हैं और केवल चुनिंदा सेक्टरों को क़र्ज़ देने को तरजीह दे रहे हैं. बैंकों के लिए क़र्ज़ देना सस्ता रहे, इसके अलावा आरबीआई ने यह भी सुनिश्चित करने की कोशिश की है कि बैंक अपना पैसा आरबीआई के पास रखकर सीधा मुनाफ़ा न कमाएँ.

आरबीआई ने रिवर्स रेपो रेट को घटाकर 3.35 फ़ीसदी कर दिया है. महामारी के शुरू होने के बाद से आरबीआई रिवर्स रेपो रेट को 1.55 फ़ीसदी घटा चुका है. इसके बावजूद बैंक अपने पैसे आरबीआई के पास जमा करा रहे हैं.

रिवर्स रेपो रेट वह ब्याज दर होती है, जिस पर बैंक अपनी पूँजी को आरबीआई के पास जमा कराते हैं.

भारतीय बैंकिंग सेक्टर किस वजह से बीमार है

टेलीकॉम टावर बनाने वाली कंपनी चलाने वाले विनय नोवाल को पिछले दो सालों से सुस्ती का सामना करना पड़ रहा है और अब कोविड ने उनकी परेशानियाँ और बढ़ा दी हैं.

एनकॉर्प पावरट्रेन्स प्राइवेट लिमिटेड के डायरेक्टर विनय नोवाल कहते हैं, "फ़िलहाल दिक़्क़त ख़ुद को टिकाए रखने की है. कारोबार में बने रहने के लिए वर्किंग कैपिटल की ज़रूरत पड़ती है जो बैंकों से मिलती है."

वे कहते हैं, "बैंक कह रहे हैं कि आपकी अच्छी साख नहीं है और हम आपको क्रेडिट लाइन नहीं दे सकते हैं. मैं अपने बैंकर से हर रोज़ बात करता हूँ, लेकिन वे बात सुनने को राज़ी नहीं हैं."

ऑनलाइन फ़ाइनेंशियल सर्विसेज़ मार्केटप्लेस बैंक बाज़ार का कहना है कि पर्सनल लोन, कार लोन, होम लोन जैसे क़र्ज़ की मांग में गिरावट आई है, लेकिन क्रेडिट कार्ड्स की मांग बढ़ी है.

बैंक बाज़ार के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) आदिल शेट्टी ने बताया, "कोविड संकट के वक़्त ज़्यादातर बैंक क़र्ज़ देने को लेकर कड़ा रुख़ अपना रहे हैं, लेकिन क्रेडिट कार्ड्स की मांग बढ़ रही है क्योंकि लोग इन्हें अलग-अलग ख़र्चों के लिए इस्तेमाल करते हैं. आगे भी यह मांग क़ायम रहने वाली है."

पूरे देश में लॉकडाउन लागू होने के चलते आर्थिक गतिविधियाँ थम गई हैं. ऐसे में कंपनियाँ भी ज़्यादा सतर्क हैं.

सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपए के आर्थिक पैकेज का ऐलान करके छोटे कारोबारों को मदद देने की कोशिश की है और बैंकों को भरोसा दिलाया है कि वे क़र्ज़ देना शुरू कर सकते हैं.

एक्सपर्ट्स का मानना है कि सरकार की तरफ़ से अधिक स्पष्टता और उत्तरदायित्व अपने हाथ में लेने से बैंकों का भरोसा वापस लौट सकता है, लेकिन वे बड़े और वित्तीय रूप से मज़बूत कारोबारों को ही क़र्ज़ देने को तरजीह देना जारी रख सकते हैं.

जून और जुलाई में केयर रेटिंग के एक सर्वे में 345 एमएसएमई को कवर किया गया. इस सर्वे में पता चला कि सर्वे में शामिल केवल एक-तिहाई कंपनियों को ही सरकार की इस स्कीम का फ़ायदा मिल सका है.

केयर रेटिंग्स के एमएसएमई के हेड सैकत रॉय के मुताबिक़, "कंपनियाँ इस पैसे का क्या करेंगी? वे कोविड के पहले के स्तर पर काम नहीं कर पा रही हैं."

ग्लोबल अलायंस फॉर मास आन्ट्रप्रेन्योरशिप की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के एमएसएमई सेक्टर की 30-40 फ़ीसदी कंपनियाँ कोविड के दौर में बंद हो सकती हैं.

मोरेटोरियम (क़र्ज़ चुकाने से छूट)

भारतीय बैंकिंग सेक्टर किस वजह से बीमार है

रिटेल क़र्ज़ भी महामारी के दौरान रुक गए हैं. आरबीआई ने भी सभी तरह के लोनों को चुकाने से 31 अगस्त तक के लिए अस्थायी राहत दे दी है ताकि उधार लेने वालों को राहत मिल सके.

इसका मतलब है कि मार्च से लेकर अगस्त तक बैंकों के पास न तो कोई पैसा आएगा और न ही क़र्ज़ लेने के लिए ग्राहक ही आएँगे.

अब आरबीआई ने पर्सनल लोन्स पर भी अपने तरह की पहली डेट रिस्ट्रक्चरिंग का ऐलान कर दिया है.

इससे उधार लेने वालों को चरणबद्ध तरीक़े से अपना पैसा चुकाने की आज़ादी मिल सकेगी. बैंकों के पास यह अधिकार होगा कि वे यह तय कर सकें कि यह ऑफ़र किसे देना है और किसे नहीं. इस गतिविधि में भी समय लगेगा और अगर यह योजना फेल हो जाती है तो इससे भी बैंकों की जेब को चोट लगेगी.

आगे क्या होगा?

एक्सपर्ट्स का मानना है कि भारतीय बैंकिंग सेक्टर के लिए एनपीए से अधिक बड़ी समस्या क्रेडिट ग्रोथ की है. बैंकों को क़र्ज़ देना शुरू करना होगा, जो उनकी कमाई का मुख्य ज़रिया हैं.

बैंकों को अपने फ़ैसलों पर भरोसा करना होगा. ऐसा नहीं है कि बैंकिंग सेक्टर लड़खड़ा रहा है. बैंक बैड लोन की प्रोविजनिंग के ज़रिए एक सही स्थिति में हैं.

प्रोविज़निंग का मतलब यह है कि बैंक अपने बैड लोन्स के लिए पहले ही पर्याप्त पैसा अलग रखते हैं. आरबीआई भी सजग है और बैड लोन्स और फ़्रॉड के लिए एक मज़बूत स्ट्रक्चर मौजूद है.

आनंद राठी सिक्योरिटीज के चीफ़ इकनॉमिस्ट सुजन हाजरा के मुताबिक़, "सबसे बड़ी चुनौती सरकारी बैंकों में गवर्नेंस की है. उन पर सामाजिक ज़िम्मेदारियों को पूरा करने की भी मजबूरी है."

वे कहते हैं, "मुझे लगता है कि बैंकों को मौजूदा हालात से उबरने में 24 से 36 महीने तक का वक़्त लग सकता है."

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English summary
What caused the Indian banking sector to fall ill?
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