किसान और सरकार के बीच बातचीत में क्या-क्या हुआ है, क्या हैं टकराव के मुद्दे
सरकार ने आंदोलन शुरू होने से पहले 14 अक्तूबर और 13 नवंबर को किसानों के साथ बातचीत की थी, जो बेनतीजा रही थी. इसके बाद पंजाब और हरियाणा के किसानों ने 'दिल्ली चलो' के नारे के तहत दिल्ली की ओर मार्च शुरू किया. लगभग दो महीने से चल रहे इस आंदोलन के दौरान, किसानों और सरकार के बीच अब तक 11 दौर की बातचीत हुई है.
दिल्ली की विभिन्न सीमाओं पर आंदोलन कर रहे किसानों ने स्पष्ट कर दिया है कि वे तीन कृषि क़ानूनों के निरस्त होने तक अपना आंदोलन जारी रखेंगे.
हालाँकि केंद्र सरकार और किसान संगठनों के बीच शुक्रवार को 11वें दौर की बैठक हुई, लेकिन पिछली बैठकों की तरह यह बैठक भी बेनतीजा रही और इसके साथ ही दोनों पक्षों के बीच अगली बैठक के लिए भी कोई सहमति नहीं बनी है. लेकिन इस बीच, सबकी निगाहें अब 26 जनवरी की ट्रैक्टर परेड पर है, जिसे आख़िरकार दिल्ली पुलिस ने अपनी मंज़ूरी दे दी है.
दिल्ली पुलिस इसे रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट भी गई, लेकिन जब मामला नहीं सुलझा, तो उन्होंने किसानों के साथ बैठकें शुरू कर दीं.
दिल्ली पुलिस ने तर्क दिया था कि वे गणतंत्र दिवस के दिन सुरक्षा चिंताओं के कारण परेड की अनुमति नहीं दे सकती है. जबकि किसानों ने तर्क दिया कि वे शांति से परेड करना चाहते हैं और उन्हें गणतंत्र दिवस मनाने का अधिकार है. दोनों पक्षों के बीच पाँच दौर की बातचीत के बाद सर्वसम्मति बनी.
दिल्ली पुलिस ने न केवल किसानों को ट्रैक्टर मार्च की अनुमति दी है, बल्कि सभी अवरोधों को हटाने के लिए भी सहमति व्यक्त की है. 8 दिसंबर के भारत बंद के बाद किसान ट्रैक्टर परेड के माध्यम से 26 जनवरी को फिर से बड़ा प्रदर्शन करना चाहते हैं.
इससे पहले, किसानों ने कृषि बिलों के विरोध में कुंडली-मानेसर हाईवे (केएमपी) पर पूर्वाभ्यास किया था. यह जानना महत्वपूर्ण है कि यह किसान आंदोलन 26 जनवरी की ट्रैक्टर परेड तक कैसे पहुँचा है.
किसान आंदोलन में अब तक क्या हुआ है?
पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान के किसान 26 नवंबर, 2020 से दिल्ली के टिकरी, सिंघू और गाज़ीपुर बॉर्डर पर कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण तरीक़े से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं.
किसानों और सरकार के बीच 14 अक्तूबर से बैठकें चल रही हैं. लेकिन अभी तक कोई नतीजा नहीं निकला है. केंद्र सरकार ने 10 वें दौर की बातचीत के दौरान कृषि क़ानूनों को डेढ़ से दो साल की अवधि के लिए निलंबित करने और क़ानूनों पर विचार करने के लिए एक संयुक्त समिति गठित करने का प्रस्ताव दिया था.
उस समय ऐसा लग रहा था कि किसान इस प्रस्ताव पर विचार करेंगे, लेकिन किसानों ने यह स्पष्ट किया कि वह तीन क़ानूनों को रद्द करवाना चाहते हैं और इसके अलावा उन्हें कुछ और मंज़ूर नहीं है.
सरकार ने आंदोलन शुरू होने से पहले 14 अक्तूबर और 13 नवंबर को किसानों के साथ बातचीत की थी, जो बेनतीजा रही थी. इसके बाद पंजाब और हरियाणा के किसानों ने 'दिल्ली चलो' के नारे के तहत दिल्ली की ओर मार्च शुरू किया.
लगभग दो महीने से चल रहे इस आंदोलन के दौरान, किसानों और सरकार के बीच अब तक 11 दौर की बातचीत हुई है. केवल दो बैठकों में, किसानों और सरकार के बीच दो मांगों पर सहमति हुई है.
पहली बैठक 14 अक्तूबर: केंद्रीय कृषि सचिव संजय अग्रवाल ने किसानों से बातचीत करने के लिए बैठक में भाग लिया. किसानों ने बैठक का यह कहते हुए बहिष्कार कर दिया कि वे कृषि मंत्री के साथ बातचीत के लिए आए थे.
फिर 13 नवंबर को कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और रेल मंत्री पीयूष गोयल ने किसान संगठनों के साथ बैठक की. बैठक में सरकार ने किसानों को बातचीत के लिए एक छोटी समिति बनाने की सलाह दी, जिसे किसानों ने अस्वीकार कर दिया. बैठक लगभग सात घंटे तक चली और बिना किसी परिणाम के समाप्त हुई.
दूसरी बैठक 1 दिसंबर: किसान संगठनों और भारत सरकार के मंत्रियों के बीच तीन घंटे की लंबी बैठक चली थी. इसी बीच, सरकार ने किसानों को पूरे मामले पर विशेषज्ञों की एक समिति बनाने का सुझाव दिया, जिसे किसान संगठनों ने अस्वीकार कर दिया.
बैठक के बाद, केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने कहा, "भारत सरकार के साथ किसानों की बैठक सुचारू रूप से चल रही है और 3 दिसंबर को फिर से चर्चा की जाएगी."
तीसरी बैठक 3 दिसंबर: इस बैठक के दौरान सरकार ने किसान नेताओं को आश्वासन दिया कि एमएसपी (MSP) जारी रहेगा और भविष्य में किसी भी तरह से इससे छेड़छाड़ नहीं की जाएगी. लेकिन किसानों ने फिर से सरकार से तीनों क़ानूनों को निरस्त करने की मांग की.
बैठक के बाद, कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि सरकार पांच बिंदुओं पर विचार करने के लिए सहमत हुई है जो इस प्रकार हैं:
निजी और सरकारी बाज़ारों में टैक्स बराबर लगता रहना चाहिए, ताकि नए क़ानून एपीएमसी अधिनियम को कमज़ोर न करें.
केवल पंजीकृत व्यापारी ही ख़रीद करें ना कि कोई भी केवल पैन कार्ड के साथ व्यापर कर पाए.
एसीडीएम कोर्ट की ओर से विवाद सुलझाने पर किसानों को जो आपत्ति है, उस पर भी सरकार विचार विमर्श करेगी.
सरकार एमएसपी पर किसानों को आश्वस्त करने के लिए भी पूरी तरह से तैयार है.
सरकार बिजली और पराली से जुड़े अध्यादेश पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार है.
चौथी बैठक 5 दिसंबर: यह बैठक दोपहर 2 बजे शुरू हुई और लगभग 7 बजे समाप्त हुई. इसमें किसानों ने सरकार से क़ानून को निरस्त करने के लिए "हां या ना में" जवाब देने को कहा.
इस बीच, कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने संघर्ष में शामिल बुज़ुर्गों और बच्चों की वापस भेजे जाने की अपील भी किसान नेताओं से की. इसी दौरान किसानों ने 8 दिसंबर को देशव्यापी बंद का आह्वान भी कर दिया.
8 दिसंबर को पाँचवीं बैठक: किसानों के देशव्यापी बंद के आह्वान बीच उसी दिन गृह मंत्री अमित शाह ने देर शाम किसानों के साथ बैठक की. बैठक में, भारत सरकार ने किसानों के लिए 22 पृष्ठ के प्रस्ताव की भेजने की बात कही.
बैठक को महत्वपूर्ण रूप से देखा गया, क्योंकि यह पहली बार था जब गृह मंत्री किसानों से बात कर रहे थे. लेकिन किसानों ने भारत सरकार द्वारा भेजे गए 22 पन्नों के प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया और आंदोलन जारी रखने का फ़ैसला किया. इसके बाद बातचीत फिर बंद हो गई और किसानों ने अपना संघर्ष जारी रखा.
छठी बैठक 30 दिसंबर: इस बैठक में सरकार ने किसानों की दो मांगों पर सहमति जताई. ये मांगें विद्युत संशोधन अधिनियम 2020 को निरस्त करने और पराली के नाम पर किसानों पर 1 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाने के प्रावधान को वापस लेने की थीं.
सरकार के इस रुख़ से स्पष्ट हो रहा था कि आपसी बातचीत सही दिशा में जा रही है और सरकार जल्द ही कृषि बिलों पर भी कोई घोषणा करेगी.
सातवीं बैठक 4 जनवरी: नए साल की यह पहली बैठक थी, जो लगभग चार घंटे तक चली थी. इस बैठक में किसानों का रवैया स्पष्ट था कि क़ानूनों को वापस लिया जाना चाहिए. बैठक के बाद, कृषि मंत्री ने कहा कि ताली दोनों हाथों से बजती है.
सरकार और किसानों के बीच बातचीत एक नोट के साथ समाप्त हुई कि 8 जनवरी की बैठक में कृषि क़ानूनों को रद्द करने की मांग और एमएसपी की क़ानूनी गारंटी पर चर्चा होगी.
आठवीं बैठक 8 जनवरी: इस बैठक में भी कुछ नहीं हुआ. बैठक में किसानों ने भी कड़ा रुख़ अपनाया और गुरमुखी में पोस्टर पर लिखा था "जीतेंगे या मरेंगे".
बैठक के बाद, केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा, "बैठक में, सरकार यह कहती रही कि अगर क़ानूनों को निरस्त करने के अलावा कोई सुझाव है, तो सरकार इस पर विचार करने के लिए तैयार है.''
लेकिन किसान कृषि क़ानूनों को निरस्त करने की बात करते रहे और "जब कोई फ़ैसला नहीं हो सका, तो दोनों पक्षों ने अगली बैठक की तारीख़ 15 जनवरी तय की. लेकिन इससे पहले ही 11 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने अगले आदेश तक नए कृषि क़ानूनों पर रोक लगा दी और जानकारों की एक समिति के गठन का आदेश दिया. किसानों ने कहा यह पर्याप्त नहीं है और आंदोलन जारी रखने का फ़ैसला किया.''
9वीं बैठक 15 जनवरी: इस बैठक में दोनों पक्षों के बीच कोई बातचीत नहीं हुई.
10वीं बैठक 20 जनवरी: इस बैठक में, केंद्र सरकार ने कृषि क़ानूनों को डेढ़ से दो साल की अवधि के लिए निलंबित करने और क़ानूनों पर विचार करने के लिए एक संयुक्त समिति बनाने का प्रस्ताव रखा. एक बार फिर ऐसा लग रहा था कि इस बार चीजें कारगर हो सकती हैं और अगली बैठक 22 जनवरी को बुलाई गई.
11वीं बैठक 22 जनवरी: किसानों ने केंद्र के प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया, जिससे बैठक समाप्त हो गई और सरकार ने बातचीत के लिए किसी नई तारीख़ की घोषणा नहीं की.
क्या कहते हैं विशेषज्ञ?
कृषि के विशेषज्ञ रणजीत सिंह घुम्मन का कहना है कि वास्तव में किसानों को सरकार पर भरोसा नहीं है.
उन्होंने कहा कि पहले सरकार किसानों को आश्वस्त कर रही थी कि क़ानून बहुत अच्छे हैं और इससे उन्हें लाभ होगा, लेकिन जैसे-जैसे आंदोलन तेज़ हुआ, सरकार ने क़ानूनों में संशोधन करने का विचार बनाया, लेकिन जब किसान अपनी बात पर क़ायम रहे, तो सरकार डेढ़ साल के लिए क़ानूनों को स्थगित करने के लिए तैयार हो गई.
उन्होंने कहा कि 2014 के आम चुनावों के दौरान, भाजपा ने स्वामीनाथन समिति की सिफ़ारिशों को लागू करने का वादा किया था, लेकिन यह पुरी तरह अमल में नहीं आया, इसलिए किसानों को सरकार के प्रस्तावों पर भरोसा नहीं था.
घुम्मन के अनुसार, किसानों को लगता है कि अगर सरकार डेढ़ साल बाद नए क़ानून में संशोधन करने की बात करती है, तो मामला वही रहेगा, इसलिए किसान सरकार पर भरोसा नहीं कर रहे हैं.
इसी मुद्दे पर बीबीसी ने कृषि अर्थशास्त्री सरदारा सिंह जौहल से बात की. जोहल के अनुसार, जिस तरह सरकार ने पहले इन क़ानूनों को पारित किया और फिर उन्हें संसद में बहस के बिना पारित कर दिया और उन्हें राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद जल्दबाज़ी में लागू किया गया है, उससे सरकार आपनी विश्वसनीयता खो चुकी है और यही कारण है कि किसान अब सरकार की किसी भी बात पर विश्वास नहीं कर रहे हैं.
उन्होंने कहा कि इन क़ानूनों को लागू करने से पहले चर्चा की जानी चाहिए थी. उन्होंने कहा कि इस मुद्दे का हल आपसी बातचीत से ही संभव है और अगर एक पक्ष ने दो क़दम आगे बढ़ाया तो दूसरे पक्ष को भी पहल करनी होगी. उन्होंने कहा कि अगर ऐसे ही ज़िद की स्थिति बानी रही, तो बातचीत का कोई मतलब नहीं है.
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