kolkata rally: सिंहासन खाली करो कि ‘कोलकाता’ आती है!
नई दिल्ली। 'कोलकाता' यानी कोलकाता रैली में इकट्ठा हुए देश भर के नेता। 20 से ज्यादा राजनीतिक दल और उनके नेताओं ने एक सुर में सिंहासन खाली करने की आवाज़ दिल्ली तक पहुंचाने की कोशिश की है। अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को भूलते हुए हर कुर्बानी देने के लिए तैयार रहने का संकल्प इन नेताओं ने दिखलाया है। इस प्रश्न को परे रखा है कि कौन होगा प्रधानमंत्री और कोलकाता के जमघट को 'जनता का पर्याय' बताने-जताने की कोशिश दिखी। बीजेपी नेता और प्रवक्ता राजीव प्रताप रूडी ने कोलकाता रैली के समांतर यही प्रश्न उठाया है- मोर्चा का नेता कौन है? रूडी जानना चाहते दिखे कि अगर कोई पतवार चलाने वाला नहीं होगा, तो नाव मंजिल तक कैसे पहुंचेंगी?
जो लोग प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और इसके लिए राजनीतिक दलों के महत्वाकांक्षी नेताओं में सम्भावित आपसी खींचतान पर ज़ोर दे रहे हैं, वो शायद इस बात को भूल जाते हैं कि परिवर्तन पीएम के दावेदार नहीं लाते, परिवर्तन लाती है जनता अन्यथा रामधारी सिंह दिनकर ने ये नहीं लिखा होता- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। अगर परिवर्तन पीएम उम्मीदवार लाते, तो शायद रामधारी सिंह दिनकर लिख जाते- सिंहासन खाली करो कि पीएम आता है। यह सवाल निरर्थक है कि कोलकाता में जुटे नेताओं में से कोई प्रधानमंत्री होगा या इस जमघट से दूर, सत्ता विरोधी धुरी बनने की कोशिश करने वालों में से कोई प्रधानमंत्री होगा? क्योंकि अगर ऐसे सवाल उठेंगे तो जवाब यह भी दिया जा सकता है कि इनमें से कोई भी पीएम नहीं होने वाला है क्योंकि पीएम पद खाली नहीं होने जा रहा है।
रैली से कहां दूर रह पाए राहुल-मायावती !
कोलकाता में जो रैली हुई, जो जमघट हुआ उसमें मायावती ने अपने प्रतिनिधि को भेजा। राहुल गांधी ने भी खुद न जाकर अपने दो नेताओं को रैली में भेजा और शुभकामनाएं भी दीं। इसके क्या मतलब हैं? इसका मतलब क्या ये नहीं है कि जो लोग मन में प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखते हैं और जिन्होंने इस इच्छा को किसी न किसी रूप में सार्वजनिक किया है, उन्होंने रैली से अपनी दूरी बना ली? मगर, सवाल ये भी है कि पूरी तरह से कोलकाता रैली से दूर न राहुल रह सकते थे, न मायावती। यही वो विवशता है जो दरअसल ममता बनर्जी के आयोजन की सफलता है। ममताल बनर्जी ने जिन नेताओं को जुटाया, उनमें प्रधानमंत्री बनने की काबिलियत तो है लेकिन उन्होंने 2019 के आम चुनाव के बाद इस पद की दावेदारी नहीं करने के लिए खुद को मना लिया है। ऐसे नेताओं में अखिलेश यादव का नाम भी ले सकते हैं, शरद पवार का भी।
बिना बोले ममता बन चुकी हैं ‘विकल्प'
कोलकाता रैली के बाद ममता बनर्जी की प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी अचानक मजबूत हो गयी है भले ही वह भी इस दावेदारी को खुलकर व्यक्त न करें। इसके कई कारणों हैं। ममता बनर्जी एक ऐसे नेता के रूप में उभरी हैं जिन्होंने केंद्र में वैकल्पिक सरकार देने के लिए लम्बे समय से मेहनत की है। देश भर में मोदी विरोधी नेताओं को एकजुट किया है। और, आखिरकार एक मंच पर इकट्ठा करने में कामयाबी पायी है। वह अरुणाचल प्रदेश के गेगांग अपांग को जोड़ने में भी सफल रहीं तो राहुल गांधी को पीएम उम्मीदवार बताने वाले डीएमके नेता स्टालिन को भी।
ममता ने देश में फेडरल एलायंस बनाने का भी प्रयास छोड़ा नहीं है। इस प्रयास से भी उन्हें चंद्रशेखर राव जैसे मित्र मिले हैं। ममता ने वर्तमान सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए ‘हर सीट पर जीतने वाला उम्मीदवार' जैसा फॉर्मूला दिया। इसी फॉर्मूले के करीब पहुंचने की कोशिश है कोलकाता की यह रैली।
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मोदी सरकार से मुक्ति' ही न्यूनतम साझा कार्यक्रम
कोलकाता की रैली और ममता बनर्जी के प्रयास की अहमियत इस बात में है कि 20 से ज्यादा दलों के लोगों ने एक जगह इकट्ठा होना स्वीकार किया। बंद कमरे में तो पार्टियां इकट्ठी होती रही हैं मगर खुले मंच पर ऐसी सभा बिरले ही देखने को मिलती है। सबके भाषण से जो साझा न्यूनतम कार्यक्रम निकलकर आया है वह है ‘मोदी सरकार से मुक्ति'। इसे देश को बचाने के लिए सबसे जरूरी माना गया। कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री बनने के मंसूबे को 20 से ज्यादा नेताओं ने अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर हावी होने नहीं दिया।
कोलकाता के मंच की खासियत ये भी रही कि हर नेता ने मोदी विरोध के लिए कुर्बानी देने की जरूरत बतायी। यानी नुकसान उठाने के लिए हर दल और उनके नेता तैयार दिखे। एसपी-बीएसपी गठबंधन की बात दोहराते हुए अखिलेश यादव ने यूपी में बीजेपी का खाता नहीं खोलने देने की बात कही, तो ममता बनर्जी ने भी यही वादा दोहराया। तमिलनाडु, बिहार, झारखण्ड से भी ऐसी ही आवाज़ आयी। कांग्रेस नेताओं अभिषेक मनु सिंघवी और मल्लिकार्जुन खड़गे की मौजूदगी यह आवाज़ अपना अर्थ तलाशती दिखी।
कोलकाता रैली से ऊंचा हुआ ममता का कद
ममता बनर्जी ने एक विकल्प रखने की कोशिश में इस ओर देश का ध्यान खींचा है कि वह खुद भी सबसे बेहतर विकल्प हो सकती हैं, जो राजनीतिक दलों को जोड़ सकती हैं और हार्दिक-जिग्नेश-शरद यादव, अजित सिंह, फारूख अब्दुल्ला, चंद्र बाबू नायडू, एचडी देवेगौड़ा जैसे नेताओं को भी अपने साथ एकजुट रख सकती हैं। वह कांग्रेस का भी साथ ले सकती हैं और एसपी-बीएसपी का भी। यही वजह है कि आम चुनाव के बाद दिल्ली की सियासत का रास्ता बंगाल से होकर गुजरता दिख रहा है। इस रैली ने ममता बनर्जी का कद वास्तव में ऊंचा कर दिया है।
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