पश्चिम बंगाल: शिवसेना बीजेपी के हिंदू वोट बैंक में कितनी सेंध लगा पाएगी?
पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव में शिवेसना ने भी उतरने की घोषणा की है लेकिन इससे बीजेपी को क्या कोई ख़ास फ़र्क़ पड़ेगा?
पश्चिम बंगाल में इस साल होने वाला विधानसभा चुनाव लगातार दिलचस्प मोड़ ले रहा है.
राज्य में बीते दस साल से राज कर रही ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस सरकार को एक ओर जहां बीजेपी से कड़ी चुनौती मिलने के आसार नज़र आ रहे हैं वहीं दूसरी ओर, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने भी मैदान में उतरने का एलान कर दिया है.
अब बीजेपी की सहयोगी रही शिवसेना ने भी सौ से ज़्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान कर सबको चौंका दिया है.
बंगाल में शिवसेना के ज़मीनी आधार और उसके चुनावी इतिहास को ध्यान में रखते हुए राजनीतिक हलकों में सवाल उठ रहा है कि क्या बीजेपी के वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए ही उसने मैदान में उतरने का फ़ैसला किया है?
कम से कम राजनीतिक पर्यवेक्षकों और बंगाल बीजेपी के नेता तो यही मानते हैं. शिवसेना के मैदान में उतरने के पीछे मुख्यमंत्री और टीएमसी अध्यक्ष ममता बनर्जी का हाथ भी बताया जा रहा है.
लेकिन शिवसेना का दावा है कि वह बांग्ला भाषा, संस्कृति और अस्मिता की रक्षा के लिए चुनाव लड़ेगी. कोलकाता स्थित प्रदेश मुख्यालय में फ़िलहाल कोई वरिष्ठ नेता मौजूद नहीं है.
कितनी सीटों पर लड़ेगी चुनाव?
प्रदेश अध्यक्ष शांति दत्त शिवसेना के शीर्ष नेतृत्व के साथ चुनावी रणनीति को अंतिम रूप देने के लिए मुंबई में हैं.
बीबीसी से फ़ोन पर बातचीत में दत्त कहते हैं, "शीर्ष नेतृत्व के साथ बैठक में कम से कम सौ सीटों पर उम्मीदवार उतारने का फ़ैसला किया गया है. हमने चुनावी तैयारियाँ शुरू कर दी हैं."
पार्टी के प्रदेश महासचिव अशोक सरकार फ़िलहाल उत्तर बंगाल के विभिन्न ज़िलों के दौरे पर हैं. बीबीसी के साथ बातचीत में वो बताते हैं, "हमने वर्ष 2016 के विधानसभा और वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भी उम्मीदवार उतारे थे. दोनों बार बिना किसी ख़ास प्रचार के हमारे उम्मीदवारों को हर सीट पर चार से साढ़े चार हज़ार तक वोट मिले थे. इस बार हमें कामयाबी मिलना तय है."
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सरकार का कहना है कि शिवसेना बांग्ला भाषा, संस्कृति और अस्मिता की रक्षा के लिए चुनाव मैदान में उतर रही है. हम बंगाल में बढ़िया काम करना चाहते हैं और अपना आधार मज़बूत करना चाहते हैं. हमारा मक़सद यह साबित करना है कि लोकतंत्र में छोटे दल भी किसी राज्य से चुनाव लड़ सकते हैं.
शिवसेना ने वर्ष 2016 के विधानसभा में मालदा के अलावा उत्तर और दक्षिण 24-परगना, नदियाँ, मुर्शिदाबाद, मेदिनीपुर और अलीपुरदुआर समेत कई ज़िलों की 22 सीटों पर चुनाव लड़ा था. इसी तरह बीते लोकसभा चुनावों में भी पार्टी ने 15 सीटों पर चुनाव लड़ा था. लेकिन वह अपनी ख़ास छाप नहीं छोड़ सकी थी.
बीजेपी को कितना पड़ेगा फ़र्क़?
आरोप लग रहे हैं कि बीजेपी के वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए ही पार्टी मैदान में उतर रही है?
इस सवाल पर सरकार कहते हैं, "यह आरोप निराधार है. उलटे बीजेपी हमारे वोट काटने के लिए करोड़ों रुपए ख़र्च कर रही है. केंद्र की बीजेपी सरकार फ़ासिस्ट है. वह महज़ चंद उद्योगपतियों के हित साध रही है, आम लोगों के नहीं. इंदिरा गांधी ने तो कह कर आपातकाल लागू किया था. लेकिन मोदी सरकार बिना कहे आपातकाल लागू कर रही है."
किसान आंदोलन का ज़िक्र करते हुए वो कहते हैं कि पचास से ज़्यादा किसानों की मौत के बावजूद प्रधानमंत्री या पार्टी के दूसरे नेताओं के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी है.
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शिवसेना नेता का दावा है कि अगले कुछ दिनों में बीजेपी के 12 हज़ार से ज़्यादा समर्थक शिवसेना में शामिल हो जाएँगे.
शिवसेना नेताओं का दावा है कि राज्य में उद्धव ठाकरे, आदित्य ठाकरे, अनिल देसाई और संजय राउत पार्टी के स्टार प्रचारक होंगे. सरकार कहते हैं कि टीएमसी के साथ पार्टी किसी तरह का तालमेल नहीं करेगी. वो कहते हैं, हम बांग्ला भाषा, संस्कृति और हिंदू अस्मिता को बचाने के लिए लोगों से वोट माँगेंगे.
टीएमसी के साथ गठजोड़ के आरोप
लेकिन दूसरी ओर, बीजेपी का दावा है कि यहाँ शिवसेना का कोई आधार नहीं है. पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष जय प्रकाश मजुमदार कहते हैं, "बंगाल में शिवसेना का कोई आधार नहीं है. वह बीजेपी के ख़िलाफ़ टीएमसी की मदद के लिए ही मैदान में उतर रही है. लेकिन इससे हमारी पार्टी की चुनावी संभावनाओं पर कोई असर नहीं होगा."
उधर, टीएमसी के वरिष्ठ नेता तापस रे कहते हैं, "बीजेपी शिवसेना के चुनाव मैदान में उतरने की कैसी व्याख्या करती है, यह उसका निजी मामला है. लोकतंत्र में कोई भी राजनीतिक दल किसी भी राज्य में चुनाव लड़ सकता है. हम किसी को ऐसा करने से रोक नहीं सकते."
लेकिन राजनीति पर्यवेक्षकों का कहना है कि शिवसेना के मैदान में उतरने से साफ़ है कि उसकी निगाहें बीजेपी के वोट बैंक पर हैं.
ओवैसी की तरह शिवेसना की भूमिका?
राजनीतिक विश्लेषक समीरन पाल कहते हैं, "शिवसेना का मैदान में उतरना ममता बनर्जी के लिए अच्छी ख़बर है. बंगाल में ऐसा चुनावी राजनीति पहले देखने को नहीं मिली है जब कोई पार्टी ख़ुद जीतने के बजाय किसी दूसरे दल की मदद के लिए मैदान में उतर रही हो. शिवसेना पहले कभी बंगाल में नहीं जीती है और इस बार भी इसकी संभावना कम ही है. यह बीजेपी के ख़िलाफ़ उसी भूमिका में रहेगी जैसे टीएमसी के ख़िलाफ़ असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी."
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उनका कहना है कि शिवसेना को मिलने वाला एक-एक वोट बीजेपी के वोट बैंक में सेंध की तरह होगा.
एक अन्य पर्यवेक्षक निर्माल्य बनर्जी कहते हैं, "शिवसेना बांग्ला राष्ट्रवाद की भावना को उकसाने का प्रयास कर रही है. टीएमसी और ममता बनर्जी का मुद्दा भी यही है. सेना इस मुद्दे के ज़रिए बीजेपी के वोट बैंक में सेंध लगाने का प्रयास करेगी."
बनर्जी भी कहते हैं कि जिस तरह ओवैसी ममता के अल्पसंख्यक वोट बैंक में सेंध के इरादे से मैदान में उतर रहे हैं. बीजेपी के हिंदू वोट बैंक में शिव सेना भी इसी तरह सेंध लगाने का काम करेगी.