West Bengal election date 2021:कैसे 10 साल में ममता के मां-माटी और मानुष से आगे निकल चुका है बंगाल
कोलकाता: 2011 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल से 34 साल पुराने लेफ्ट फ्रंट की सरकार को जड़ से उखाड़ फेंका था। तब उनका एक ही नारा था जो आम बंगालियों के सिर चढ़कर बोल रहा था- 'मां, माटी और मानुष'। एक दशक बाद एकबार फिर से बंगाल में चुनाव का बिगुल बज चुका है। तब ममता 'पोरिवर्तन' की बात कहकर 'भद्र लोक' के बंगाल की सत्ता पर काबिज हुई थीं। अबकी बार उन्हें भारतीय जनता पार्टी के 'पोरिवर्तन रथ' का सामना करना पड़ रहा है। 'दीदी' ने इसबार भी चुनावी लड़ाई को बंगाली बनाम बाहरी बनाने की कोशिश से शुरुआत की थी, लेकिन लगता है कि उनके रणनीतिकारों ने उन्हें जल्द ही समझा दिया कि वो अब हिंदीभाषियों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर देने की भूल ना करें।
पिछले लोकसभा चुनाव ने बदल दी बंगाल की राजनीति
तीन दशक से ज्यादा वक्त तक बंगाल के शासनतंत्र पर वामपंथी विचारधारा जिस तरह से हावी हो चुका था, उसे मिटाने का 'श्रेय' मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपने ऊपर लेने से नहीं थकतीं। 8 वर्षों तक वह यह सोचकर ही निश्चिंत भाव से सत्ता का संचालन करने में मशगूल रहीं कि उन्हें उनके राजनीतिक करियर में बंगाल की धरती पर शायद ही कोई राजनीतिक चुनौती देने वाला पैदा हो पाए। लेकिन, पहली बार उनकी नींद तब खुली जब उन्होंने देखा कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी 42 सीटों में 18 सीटें जीत गई। टीएमसी सुप्रीमो को शायद कभी सपने में भी इसका अंदाजा नहीं था। वो तो भाजपा को हिंदी हार्टलैंड की पार्टी मानती रही थीं। तब जाकर शायद उनको प्रदेश में हिंदीभाषी वोट बैंक के वजूद का पता चला।
हिंदी बोलने वाले वोटरों में जगह बनाने की कोशिश
भाजपा के लिए हिंदीभाषी वोटरों पर फोकस करना उसकी राजनीति का कोर इश्यू रहा है। नई बात ये है कि अब ममता को मां-माटी और मानुष से आगे निकलकर बंगाल के हिंदीभाषी वोटरों पर भी ध्यान देना पड़ रहा है। यह बदलाव कोई हिंदीभाषियों के प्रति उनके हृदय परिवर्तन के चलते नहीं हुआ है। राज्य में सक्रिय चुनावी रणनीतिकार मानते हैं कि यहां पर कम से कम 80 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां के हिंदीभाषी वोटर किसी भी पार्टी का खेल बनाने और बिगाड़ने का माद्दा रखते हैं। पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा की बड़ी जीत में भी इन्हीं का रोल बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है। इसलिए टीएमसी सुप्रीमो ने भी हिंदीभाषियों के प्रति अपना रवैया बदलना शुरू किया है।
टीएमसी का बढ़ रहा है 'हिंदी' प्रेम
इस चुनाव में हिंदीभाषी मतदाताओं को अपनी पार्टी की ओर आकर्षित करने के लिए तृणमूल सारा जुगाड़ लगाने की कोशिश कर रही है। क्योंकि, बीजेपी को साधने के लिए उसे और कोई उपाय सूझ भी नहीं रहा है। मुख्यमंत्री ने मां,माटी और मानुष के नाम से बांग्ला में एक कविता संग्रह भी तैयार कर रखा है। अब उनकी ओर से उसका हिंदी अनुवाद हिंदी बोलने वालों के बीच बांटा जाने लगा है। पिछले साल 14 सितंबर को उन्होंने पश्चिम बंगाल हिंदी अकादमी का गठन किया और हिंदी अखबार 'सन्मार्ग' के संपादक विवेक गुप्ता को उसकी जिम्मेदारी सौंपी। दिलचस्प तो ये है कि इस चुनाव में उन्होंने तृणमूल कांग्रेस में भी हिंदी सेल बना दिया है।
बंगाल में अब हिंदीभाषी बन चुके हैं वोट बैंक
यह कटु सत्य है कि बंगाल के विकास में सदियों से बिहार और पूर्वांचल के हिंदी बोलने वालों के अहम योगदान के बावजूद राज्य के 'भद्र लोक' के बीच उन्हें उचित सम्मान नहीं मिला। उनकी पहचान उनकी गरीबी से की गई है और उनका श्रम जाने-अनजाने में नजरअंदाज हो गया। यही वजह है कि बंगाली समाज में यह वर्ग देसवाली या हिंदुस्तानी के तौर पर ही पहचाना जाता रहा है। बंगाल के शहरों और कस्बों में हिंदी बोलने वाले मारवाड़ियों की भी अच्छी-खासी तादाद है, लेकिन वो ज्यादा संपन्न हैं तो उनका सम्मान भी वैसा ही है। लेकिन, लोकतंत्र में अब जब हिंदीभाषी वोट बैंक बनकर उभरा है तो अबतक बांग्लाभाषियों की ही राजनीति करने वाले दलों में उनके प्रति प्यार उमड़ने लगा है।
बंगाल और हिंदी का नाता अटूट है!
वैसे बंगाल और हिंदी का रिश्ता सदियों पुराना तो है ही, बहुत ही अटूट भी है। मसलन, हिंदी और हिंदी पत्रकारिता का जुड़ाव बहुत ही अनोखा माना जाता है और हिंदी के विकास में भी हिंदी पत्रकारिता का योगदान अनमोल है। और तथ्य ये है कि हिंदी का पहला दैनिक 'उदंत मार्तंड' 30 मई,1826 को जुगल किशोर शुक्ल जी ने कोलकाता से ही शुरू किया था। वहीं से जाने-माने बांग्ला और अंग्रेजी पत्रकार रामानंद चटर्जी ने 'प्रवासी' नाम से हिंदी पत्र भी निकाला। पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' और आचार्य शिवपूजन सहाय की संपादकीय वाला हास्य-व्यंग से भरपूर 'मतवाला' भी कोलकाता से ही प्रकाशित हुआ था। बंगाल और हिंदी पत्रकारिता की फेहरिस्त इससे कहीं ज्यादा लंबी है। कहते हैं कि आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती 'सत्यार्थ प्रकाश' की रचना संस्कृत में करना चाह रहे थे। लेकिन, तब ब्रह्म समाज के केशवचंद्र सेन ने ही उन्हें सलाह दी थी कि उन्हें लोकभाषा हिंदी में इसे लाना चाहिए। मुंशी प्रेमचंद्र के उपन्यासों पर आधारित सत्यजीत रे ने जिस तरह की फिल्में बनाई हैं, उसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिल सकता।
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