पश्चिम बंगाल में दो मुख्यमंत्री हार चुके हैं चुनाव, क्या ममता बनर्जी भी हारेंगी?
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कोलकाता। पश्चिम बंगाल में दो मुख्यमंत्री खुद चुनाव हार चुके हैं। क्या इतिहास फिर अपने को दोहराएगा ? क्या मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी चुनाव हार सकती हैं ? यह सवाल इसलिए क्योंकि ममता बनर्जी अब 2016 की तरह ताकतवर नहीं रह गयी हैं। पिछले चार महीने में तृणमूल कांग्रेस के 3 मंत्री, 14 विधायक और दो सांसद पार्टी छोड़ चुके हैं। उनके दो सबसे मजबूत सहयोगी मुकुल राय और शुभेंदु अधिकारी अब भाजपा की जीत की रणनीत बना रहे रहे हैं। पश्चिम बंगाल में जो नयी राजनीतिक परिस्थितियां पैदा हुई हैं क्या उससे इस बार कुछ नया होने वाला है ? ममता बनर्जी ने नंदीग्राम से चुनाव लड़ने का ऐलान कर क्या एक बहुत बड़ा जोखिम उठाया है?
ममता के खिलाफ मजबूत मोर्चाबंदी
ममता बनर्जी शक्तिशाली नेता हैं। दस साल से मुख्यमंत्री हैं। तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के लिए चुनावी मैदान में हैं। 2021 में पहली बार वे कांटे के मुकाबले में फंसी है। आज जो सूची जारी हुई है, उसमें उन्होंने नंदीग्राम से चुनाव लड़ने का आधिकारिक ऐलान कर दिया है। उनकी परम्परागत सीट भवनीपुर रही है। भवानीपुर से इस बार सोभनदेब चट्टोपाध्याय चुनाव लड़ेंगे। नंदीग्राम के मजबूत नेता शुभेंदु अधिकारी ममता बनर्जी को चुनौती देने के लिए उतावले हैं। भाजपा अपने समर्थकों में भरोसा पैदा करना चाहती है कि ममता बनर्जी को भी हराया जा सकता है। वैसे पश्चिम बंगाल में दो मुख्यमंत्री पद पर रहते खुद चुनाव हार चुके हैं। 2011 में बुद्धदेव भट्टाचार्या और 1967 में प्रफुल्ल चंद्र सेन। अगर 2021 में ममता भी चुनाव हार जाएं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। जब बदलाव की आंधी चलती है तो बड़े-बड़े सूरमा धाराशायी हो जाते हैं।
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2011 में कैसे हारे थे मुख्यमंत्री ?
सीपीएम के बटवृक्ष ज्योति बसु ने स्वेच्छा से 2000 में मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ दी थी। इसके बाद बुद्धदेव भट्टाचार्या सीएम की कुर्सी पर बैठे। वे 2001 और 2006 का चुनाव जीत चुके थे। 2006 में बुद्धदेव भट्टाचार्या के नेतृत्व में सीपीएम ने पहले से बेहतर प्रदर्शन किया था। 2001 में सीपीएम को 143 सीटें मिली थीं तो 2006 में यह बढ़ कर 173 हो गयीं थी। लेकिन 2011 के चुनाव के समय ममता बनर्जी की मजबूत चुनौती से माहौल बदला-बदला सा था। लेकिन किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्या खुद चुनाव हार जाएंगे। वे पिछले 24 साल से जादवपुर से विधायक थे। जनता में उनकी पकड़ थी। तब ममता बनर्जी के पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्य सचिव मनीष गुप्ता को बुद्धदेव भट्टाचार्या के खिलाफ मैदान में उतारा। मनीष उनके मातहत मुख्य सचिव रह चुके थे। तब लोग यही मान रहे थे कि एक पूर्व आइएएस अधिकारी भला मुख्यमंत्री को क्या टक्कर दे पाएगा। लेकिन जब चुनाव का नतीजा निकला तो मनीष गुप्ता ने मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्या को 16 हजार 684 वोटों से हरा दिया। जिसकी कल्पना नहीं की गयी वही हुआ।
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1967 में रसगुल्ला क्रांति से हार गये सीएम
1962 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जीत मिली थी। प्रफुल्ल चंद्र सेन मुख्यमंत्री थे। 1965 में सरकार को शिकायत मिली कि बंगाल में दूध की इतनी कमी हो गयी है मां अपने नवजात बच्चों का दूध नहीं पिला पा रही हैं। प्रफुल्ल चंद्र गांधीवादी नेता थे और जनता के हक में तुरंत फैसला लेते थे। उन्होंने अफसरों को दूध की कमी का पता लगाने का आदेश दिया। उन्हें बताया गया कि राज्य में उपलब्ध दूध का अधितकतम इस्तेमाल रसगुल्ला बनाने में हो रहा है। अधिकांश दूध का छेना फट जा रहा है इसलिए पीने के लिए दूध नहीं मिला पा रहा। तब मुख्यमंत्री प्रफुल्ल चंद्र सेन ने कुछ समय के लिए रसगुल्ला बनाने पर रोक लगा दी। रसगुल्ला बंगाल में केवल मिठाई ही नहीं बल्कि संस्कृति का एक हिस्सा भी है। रसगुल्ला पर प्रतिबंध से लोग नाराज हो गये। उस समय वामपंथी दल पश्चिम बंगाल में अपनी जड़े जमा रहे थे। उन्होंने इस मुद्दे पर आंदोलन छेड़ दिया। शहर-शहर में प्रफुल्ल सरकार के खिलाफ प्रदर्शन होने लगे। 1967 का चुनाव हुआ तो लोगों में कांग्रेस और प्रफुल्ल चंद्र के खिलाफ गुस्सा था। इसका नजीजा ये हुआ कि कांग्रेस तो हारी ही सीएम प्रफुल्ल चंद्र सेन भी खुद विधानसभा का चुनाव हार गये। कई बार सत्तारुढ़ दल बदलाव की लिखी इबारत को पढ़ नहीं पाते। इसका इल्म तब होता है जब नतीजे सामने आते हैं।