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क्या चौहान की विदाई के साथ ख़त्म हो गई एफ़टीआईआई की मुश्किल?

पुणे के फ़िल्म इंस्टीट्यूट का चेयरमैन अनुपम खेर को बनाए जाने से कितने खुश हैं छात्र?

By BBC News हिन्दी
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एफ़टीआईआई
Reuters
एफ़टीआईआई

पुणे स्थित एफ़टीआईआई आंदोलन को अब दो साल से ज़्यादा का समय बीत चुका है. पर अभी भी उस आंदोलन का प्रभाव उस कैम्पस में दिखता है.

इस आंदोलन में जो विद्यार्थी थे उनमें से बहुत से पास होकर संस्थान से बाहर निकल गए हैं. अब तो सिर्फ़ गिने चुने विद्यार्थी ही एफ़टीआईआई कैम्पस मे मौजूद हैं.

लेकिन अभी भी उस आंदोलन के बारे में वहां के चपरासी से लेकर प्राध्यापकों तक कोई भी बात करने से कतराता है.

2015 में गजेंद्र चौहान की एफ़टीआईआई के चेयरमैन पद पर नियुक्त होने के बाद तत्कालीन विद्यार्थियों का 139 दिनों तक आंदोलन चला था.

आंदोलन में अजयन अडात भी शामिल रहे हैं. उनकी इस आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका थी. उन पर पुलिस एफ़आईआर भी दर्ज है.

इसकी वजह से उन्हें पासपोर्ट नहीं मिला और वो विदेश नहीं जा पाए. अजयन ने बहोत से मुद्दों पर बीबीसी से बात की. बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, "ये छात्रों के हक़ की लड़ाई थी."

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संघ के लोगों के आने से शुरू हुआ विवाद

वो कहते हैं, "हमने जो आंदोलन किया था वह सिर्फ सरकार के विरोध में नही था. ये लड़ाई सिर्फ अभी एफ़टीआईआई में पढ़ रहे छात्रों की नहीं, इससे पहले जो भी इस संस्था से पढ़कर गए हैं, उन सभी की यह लड़ाई थी."

अजयन ने बताया कि, "पिछले दो सालों में देशभर के विश्वविद्यालयों में और उच्च शिक्षा संस्थानों पर सरकार की तरफ से बहुत से हमले हो रहे हैं. इसमें एकेडमिक काउंसिलिंग, रिव्यू कमेटी के अंदर अपनी विचारधारों के व्यक्ति घुसाने की कोशिश शुरू की है. यहां तक कि, किताबों में दिया गया इतिहास बदला जा रहा है. विज्ञान को हेट स्टोरीज़ के रूप में आगे लाया जा रहा है."

वो कहते हैं, "एक तरफ राजस्थान की किताबों से नेहरू और गांधीजी को हटाकर दूसरे लोगों को जगह दी जा रही है, दूसरी तरफ आईआईटी दिल्ली में बाबा रामदेव गाय और एनर्जी के बारे में पाठ पढा रहे हैं. साथ ही में उच्च शिक्षा के महत्त्वपूर्ण संस्थानों के पदों पर आरएसएस के लोगों को बिठाने जैसी घटनाएं पूरे देशभर में घट रही थीं, यह हम देख रहे थे."

वो कहते हैं, "एफ़टीआईआई के चेयरमैन पद के लिए व्यक्ति में कुछ गुण होना ज़रूरी है, उसे कुछ अनुभव भी होना चाहिए. हमारा विरोध सिर्फ गजेंद्र चौहान के लिए नहीं बल्कि उस कमेटी के सभी छह लोगों के लिए था."

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आईआईटी मद्रास से शुरू हुआ आंदोलनत

पूरे देशभर के विश्वविद्यालयों मे हो रहे छात्र आंदोलन का हवाला देते हुए, "एफ़टीआईआई, हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी, दिल्ली यूनिवर्सिटी, जेएनयू, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी इन सभी जगहों पर छात्र आंदोलन हुए. ये सभी छात्र पिछले दो साल में सरकार का विरोधी पक्ष बनकर खड़े हैं. इन सभी आंदोलनों की शुरुआत आईआईटी मद्रास से हुई."

वो कहते हैं, "अंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल को जब बैन किया गया तबसे इस आंदोलन की शुरुआत हुई थी. तब सरकार को उनकी ग़लती जल्दी ही समझ में आई. अंबेडकर और पेरियार इनके नाम पर कोई संस्था बंद करना यह तमिलनाडु में तो मुमकीन नहीं था. इसलिए उन्होंने यह बैन जल्द ही हटा लिया."

लेकिन एफ़टीआईआई का छात्र आंदोलन सबसे लंबा खिंचा. उसकी वजह अजयन बताते हैं कि जिनका सिनेमा से किसी भी प्रकार का संबंध नहीं था, ऐसे लोग कमेटी में शामिल कर लिए गए थे.

उनके मुताबिक, मद्रास के बाद गजेंद्र चौहान और अन्य छह आरएसएस सदस्यों को सरकार ने एफ़टीआईआई की कमेटी में शामिल किया. इनमें से गजेंद्र चौहान को छोड़ अन्य किसी भी व्यक्ति का सिनेमा से कुछ लेना देना नहीं था और वो सभी आरएसएस के नेता थे.

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एफ़टीआईआई बनाम एबीवीपी

अजयन के अनुसार, एक नरेंद्र पाठक तो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) महाराष्ट्र के अध्यक्ष थे. तो दूसरे व्यक्ति अनघा घैसाल आरएसएस के लिए प्रोपेगैंडा वीडियो बनाती थी. इनमें से एक शैलेश गुप्ता वो तो एफ़टीआईआई के ही पूर्व छात्र थे, पर वो फिलहाल नरेंद्र मोदी के लिए चुनाव प्रचार में वीडियो बनाते रहे हैं.

वो कहते हैं कि इनके अलावा जो भी मेंबर थे वे किसी ना किसी रुप से आरएसएस से जुडे थे. इन लोगों ने एफ़टीआईआई के ख़िलाफ़ कई टिप्पणियां की थीं.

हालांकि एबीवीपी और एफ़टीआईआई के बीच के संबंधों के बारें में एबीवीपी राज्य कार्यकारी कमेटी सदस्य निखिल कर्मापूरी का कहना है, "एफ़टीआईआई के छात्रों से हमारे अच्छे संबंध हैं. मैं ख़ुद बहुत बार एफ़टीआईआई में गया हूँ. वहाँ मेरे कुछ मित्र भी हैं. उनसे हमारी कोई दुश्मनी नहीं है, बल्कि अच्छे संबंध हैं."

वो कहते हैं, "एफ़टीआईआई से हमारी कोई प्रॉब्लम नहीं है, बल्कि इसके छात्रों को हमसे ज़रूर समस्या है. हमने गजेंद्र चौहान के विरोध के आंदोलन में एफ़टीआईआई को सपोर्ट किया था. दरअसल एफ़टीआईआई के सभी छात्र सरकार के निर्णय के ख़िलाफ़ नहीं थे. उनमें से कुछ दो चार छात्र हैं जो अति वामपंथी हैं. वो केरल, पश्चिम बंगाल ऐसे राज्यों से हैं. उनपर लेफ्ट का ज़्यादा प्रभाव है. वे ही छात्र ज़्यादा विरोध करते हैं."

उनके मुताबिक़, "अभी कुछ ही दिनों पहले हमें पता चला है कि अभी जो नया बैच आया है वो बहुत अच्छा है. वो सिर्फ़ अपनी पढ़ाई पर ध्यान देते हैं. बाक़ी चीजों से उनका कुछ लेना देना नहीं है."

हालांकि इन मुद्दों पर एफ़टीआईआई प्रशासन ने संपर्क करने पर बात करने से इनकार कर दिया.

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अनुपम खेर
Getty Images
अनुपम खेर

अनुपम खेर के आने का असर

अभी वहाँ पढ़ रहे रोहित कुमार का कहना है, "उस वक्त जो कुछ छात्र आंदोलन में थे, उनमें से कुछ छात्र अभी भी कैंपस में हैं. उनमें से कुछ छात्रों के उपर एफ़आईआर दर्ज है. इस वजह से उनका वजीफ़ा रुकवा दिया गया है."

वो कहते हैं, "हमारे अभ्यास क्रम में एक्सचेंज प्रोग्राम के अंतर्गत हमें बाहर के देशों में जहां ऐसा कोर्स है वहाँ जाने का मौका होता है. परंतु इस मौके का उन्हें लाभ नहीं मिल सका. साथ ही प्रशासन ने भी छात्रों की बात न सुनने का रुख़ अपनाया हुआ है.

हालांकि वो कहते हैं कि अनुपम खेर के आने से संस्थान में कई मुद्दों पर बदलाव आया है लेकिन अभी भी कई मुद्दे लंबित हैं.

वो कहते हैं, "अभी अनुपम खेर आने के बाद 2016 के बैच ने डायलॉग नॉर्म्स में कुछ बदलाव करने का सुझाव दिया था. उसमें से कुछ बातों को उन्होंने स्वीकार किया है. लेकिन अभी कोई ख़ास बदलाव हुआ हो ऐसा नहीं कह सकते. पर कुछ सकारात्मक शुरुआत ज़रूर हुई है."

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English summary
Was the failure of FTI ended with the departure of Chauhan
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