प्रेमचंद पर स्त्री-विरोधी होने का आरोप लगाना किस हद तक सही?
हिंदी के शीर्ष साहित्यकार प्रेमचंद की लिखी एक पुरानी चिट्ठी के आरोप पर उन्हें महिला विरोधी ठहराया जा रहा है.
अपनी बेटी के विवाह के लिए अपने होने वाले दामाद को लिखा गया प्रेमचंद का एक पत्र सोशल मीडिया के हिंदी संसार में लगभग वायरल हो चुका है. इस पत्र में प्रेमचंद ने लिखा है कि उन्होंने अपनी बेटी को स्कूली शिक्षा नहीं दिलाई क्योंकि 'वर्तमान शिक्षा पद्धति' को वे स्त्रियों और अपने आदर्शों के लिए उपयुक्त नहीं मानते.
इसमें संदेह नहीं कि पहली दृष्टि में प्रेमचंद जैसे बड़े और प्रगतिशील लेखक की ये पंक्तियाँ उनके प्रशंसकों को मायूस करती हैं. हालांकि बहुत संभव है कि यह उनकी मान्यता न रही हो, बल्कि अपने होने वाले दामाद के सामने अपनी बेटी की उपयुक्तता साबित करने के लिए उन्होंने इसे एक दलील की तरह इस्तेमाल किया हो. क्योंकि अन्यथा प्रेमचंद के लेखन में स्त्रियों के प्रति एक प्रगतिशील दृष्टि और संवेदनशीलता भी प्रचुर दिखाई पड़ती है.
'गोदान' की स्त्रियां अपने साथ के पुरुषों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा सशक्त हैं. होरी जितने कशमकश में दिखता है, धनिया कई बार उतना ही खुल कर बोलती नज़र आती है. बल्कि यह नज़र आता है कि 'गोदान' के पुरुष चरित्र अपनी सामाजिक स्थिति का फ़ायदा उठाते हुए अपनी स्त्रियों को दबा कर रखना चाहते हैं, लेकिन वे आसानी से दबने को तैयार नहीं होतीं.
ब्राह्मण मातादीन अछूत सिलिया के साथ रिश्ता तो बनाता है लेकिन उसे पत्नी बनाने को तैयार नहीं होता. सिलिया उसके मुंह में हड्डी डाल कर उसे ब्राह्मणत्व के उसके दर्प से वंचित कर डालती है. विधवा झुनिया के साथ गोबर का रिश्ता बनता है और वह उसके घर भी आ जाती है.
हालांकि इन प्रसंगों या ऐसी अन्य कहानियों के ज़िक्र का मक़सद यह साबित करना नहीं है कि प्रेमचंद के नाम से चली यह चिट्ठी झूठी है या फिर प्रेमचंद स्त्रियों के मामले में घर-परिवार और लेखन में एक जैसे हैं.
शिवरानी देवी की किताब 'प्रेमचंद घर में' पहले ही उस दूसरे और भिन्न प्रेमचंद को हिंदी की दुनिया में प्रस्तुत कर चुकी है जो लेखक प्रेमचंद से कुछ दूर खड़ा है. सवाल चिट्ठी का ही नहीं है, यह भी है कि क्यों प्रेमचंद ने अपनी बेटी कमला को स्कूली शिक्षा से दूर रखा?
1928 की चिट्ठी का ज़िक्र
जिस घर में श्रीपत राय और अमृत राय अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ते रहे, उस घर की लड़की हाई स्कूल तक न जा सकी, इसकी अपनी एक विडंबना है जिससे मुंह चुराया नहीं जा सकता. प्रेमचंद के जो भक्त यह दलील दे रहे हैं कि वह दौर अलग था और उसी के मुताबिक प्रेमचंद को देखना चाहिए, वे शायद उस दौर की स्त्री तेजस्विता को भूल जा रहे हैं. प्रेमचंद की यह चिट्ठी 1928 की है.
यह वह समय है जब महादेवी वर्मा कविताएं लिख रही थीं जिन्हें प्रेमचंद जानते थे. यह अंदेशा डराने वाला है कि अगर वे प्रेमचंद की पुत्री होतीं तो कमला हो गई होतीं. यह वह समय है जब आशापूर्णा देवी अपना घर बसा चुकी थीं और लेखन की ओर प्रवृत्त हो रही थीं, जब इस्मत चुगतई और अमृता प्रीतम सरीखी लेखिकाएं युवा हो रही थीं और इन्हीं वर्षों के आसपास महाश्वेता देवी, कृष्णा सोबती और कुरर्तुलऐन हैदर जन्म ले चुकी थीं. भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में सरोजिनी नायडू की कौंधती हुई उपस्थिति भारत की बहुत सारी लड़कियों को प्रेरणा दे रही थी और गांधी का सजल-करुण नेतृत्व उन्हें अपने साथ जोड़ रहा था.
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खुद प्रेमचंद की कई कहानियां स्त्रियों को लेकर पुरुषों के नज़रिए का मज़ाक बनाती हैं. यह सच है कि उनके यहां 'बड़े घर की बेटी' जैसी कहानियां भी मिलती हैं, लेकिन वे बिल्कुल प्रारंभिक दौर की कहानियां हैं. बाद के वर्षों में प्रेमचंद बदलते हैं, उनकी कहानियां बदलती हैं, कहानियों की स्त्रियां बदलती हैं.
फिर यह चिट्ठी कहां से चली आती है जो प्रेमचंद ने अपने भावी दामाद को लिखी है? दरअसल इस चिट्ठी का इस्तेमाल अगर प्रेमचंद पर निजी हमले की तरह करेंगे तो फिर उस बड़ी विडंबना की शिनाख्त करने से चूक जाएंगे जो हमारे समाज में कई समाज-सुधार आंदोलनों के बावजूद बनी और बची रही. प्रेमचंद की तो एक चिट्ठी है, हमारे सबसे क्रांतिकारी नेताओं में एक, हमारी राष्ट्रीयता के शिल्पियों में एक लोकमान्य तिलक ने खुल कर स्त्री शिक्षा का विरोध किया था.
पुणे में लड़कियों के लिए खोले गए पहले स्कूल के विरोध में उन्होंने लिखा. वे अंतरजातीय विवाह के भी विरुद्ध थे. देश के पहले राष्ट्रपति और स्वाधीनता सेनानी राजेंद्र प्रसाद का रूढ़िवाद सर्वज्ञात है ही.
नायकों की विडंबना
तो कुछ मायूसी के साथ हमें स्वीकार करना चाहिए कि बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में हमारी जो राष्ट्रीय धाराएं थीं, जो सांस्कृतिक और प्रगतिशील दृष्टियां थीं वे कम से कम दो प्रश्नों को लेकर सजग नहीं थीं- वे जातिगत जड़ता को तोड़ने को तैयार नहीं थीं और स्त्रियो की शिक्षा-स्वाधीनता को लेकर उतनी सजग नहीं थीं जितना उन्हें होना चाहिए था.
लोकमान्य तिलक अपनी बहुत सारी विशिष्टताओं के बावजूद जातिवाद को बनाए रखने के पक्षधर थे. गांधी भी शुरू में चार वर्णों के समर्थक थे जिसकी निरर्थकता, बल्कि अमानुषिकता उन्होंने बाद में समझी और इससे मुक्त होते चले गए. बल्कि टैगोर के भीतर भी जातिगत पूर्वग्रह नजर आते हैं.
इतिहासकर सुधीरचंद्र बताते हैं कि पुणे पैक्ट के दौरान मानी गई शर्तों को लागू न करने के विरोध में गांधी जब दोबारा अनशन की तैयारी कर रहे थे तब रवींद्रनाथ टैगोर ने किन तर्कों से उन्हें रोकने की कोशिश की.
दरअसल भारत जिस समय अंग्रेज़ों से लड़ रहा था उस समय कई और सांस्कृतिक गुलामियों से भी लड़ रहा था. लेकिन जाति का यथार्थ इतना दुर्धर्ष था और स्त्रियों को घर में रखने का अभ्यास इतना पुराना और जड़ कि इन दोनों मामलों में हमारे बौद्धिक अगर पूरी तरह फिसड्डी नहीं तो काफ़ी कुछ पीछे छूट गए दिखाई पड़ते हैं. अपने इतिहास को और उसके नायकों को हमें इस विडंबना के साथ ही समझना होगा.
प्रेमचंद पर लौटें. एक चिट्ठी या कुछ और प्रसंगों से उनका वह पूरा साहित्य खारिज नहीं हो सकता जिसने हिंदी प्रदेश को उसकी पहली बौद्धिक खुराक दी है. लेखक बहुत हुए, लेकिन जनता का लेखक आज भी एक ही है.
पिछले कम से कम दो दशकों में इन पंक्तियों के लेखक ने जिन पचासों युवा छात्रों का साक्षात्कार लिया होगा, उनसे जब भी यह पूछा जाता है कि उन्होंने किस लेखक को पढ़ा है, तो बेखटके वे प्रेमचंद का नाम ले लेते हैं. यह भी बस कोर्स की किताबों में आने से संभव नहीं हुआ है. कोर्स में प्रसाद भी रहे, यशपाल भी रहे, पांडेय बेचन शर्मा उग्र भी रहे, लेकिन प्रेमचंद जिस सरलता, सहजता और प्रामाणिकता के साथ अपने पाठकों तक पहुंचते रहे, वह दूसरे लेखकों के लिए संभव नहीं हुआ.
लेकिन यह जनप्रियता ही नहीं है, जिसने प्रेमचंद को प्रेमचंद बनाया है. इसमें संदेह नहीं कि प्रेमचंद के पास बहुत सारी कहानियां हैं जो नितांत मध्यवर्गीय घरों और वहां से बनने वाली मानसिकता के बीच बनती हैं. उनकी अपनी सीमाएं हैं. लेकिन इसके बावजूद प्रेमचंद अपने राजनीतिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण में अंततः बेहद प्रगतिशील और लगभग क्रांतिकारी रूप में मिलते हैं. खासकर अपने लेखों में तमाम जड़ताओं पर वे बिल्कुल प्रहार करते दिखाई पड़ते हैं. इनमें अछूतों की स्थितियों, स्त्रियों की आज़ादी, महाजनी सभ्यता- सब पर विचार शामिल है.
प्रेमचंद को कौन ख़ारिज करना चाहता है?
कभी एक रूसी विचारक ने गोगोल के योगदान के संदर्भ में लिखा था कि तमाम लेखक गोगोल के "ओवरकोट' से निकले हैं. 'ओवरकोट' गोगोल की एक कहानी है. कुछ सावधानी से हम कह सकते हैं कि हिंदी लेखन और विचार भी प्रेमचंद की रंगभूमि से निकला है- अपनी शक्ति के साथ, अपनी सीमाओं के साथ. इन सीमाओं को पहचानना ज़रूरी है, लेकिन उससे ज़रूरी यह पहचानना है कि प्रेमचंद को- या उनकी दृष्टि को- ख़ारिज करने की कोशिश के पीछे कौन सी शक्तियां लगी हुई हैं.
ये वही शक्तियां हैं जो प्रेमचंद के दिनों में तमाम प्रगतिशील मूल्यों के ख़िलाफ़ रहीं, सांप्रदायिकता और जातिवाद का पोषण करती रहीं, अपने घरों की लड़कियों का दहेज देकर विवाह करती रहीं और उनका उत्पीड़़न करती रहीं. वे गांधी के विचार के ख़िलाफ़ रहीं और अंत में उनकी हत्या तक चली गईं. अब उन्हें प्रेमचंद का स्त्री-विरोधी चरित्र नज़र आ रहा है. अगर वह है तो वह उस पूरे इतिहास में है जिस पर हमें ठीक से विचार करना चाहिए.
निश्चय ही प्रेमचंद की चिट्ठी सामने आने से उनके प्रशंसकों को बिलबिला नहीं जाना चाहिए. आज की दुनिया में इस आपत्ति का भी कोई मतलब नहीं है कि वह एक निजी चिट्ठी थी या वह अमृत राय के संग्रह में नहीं है. अगर वह असली है और वाकई प्रेमचंद अपनी बेटी को स्कूली शिक्षा दिला नहीं पाए तो इस तथ्य से भी आंख मिलाने की ज़रूरत है. उससे यह समझ आएगा कि हमारी प्रगतिशील चेतना में कहां-कहां फांक छूट गई. मूर्तियों को पूज कर या फिर उनको ध्वस्त करने के नाम पर पूरी परंपरा को ख़ारिज कर हम प्रेमचंद का नहीं, अपना नुक़सान करेंगे.
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