नज़रिया: आंबेडकर-ओवैसी की दोस्ती के सियासी मायने क्या हैं
प्रकाश आंबेडकर की ही तरह एमआईएम भी बड़ा ख़्वाब देख रही है. एमआईएम का सपना है कि वह देशभर के मुसलमानों का नेतृत्व करे.
मुसलमानों की राजनीति पर मौजूदा वक्त तक हुई तमाम स्टडीज़ बताती हैं कि अखिल भारतीय मुस्लिम राजनीति जैसी कोई चीज़ वास्तव में नहीं है और यही वजह है कि मुस्लिम वोट-बैंक भी असल में प्रभावी नहीं है.
जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव का वक़्त नज़दीक आता जा रहा है, वैसे-वैसे तमाम दलों के गठबंधनों के बनने बिगड़ने का गणित भी तेज़ होने लगा है.
ख़ासतौर पर इस संभावना को देखते हुए कि बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिलने के बहुत कम आसार हैं तो बीजेपी से अलग रहने वाली पार्टियां एकजुट होने के प्रयास करती दिख रही हैं.
ऐसे माहौल में बहुत से लोगों का मानना है कि महाराष्ट्र में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) कुछ अन्य छोटे दलों को साथ लेकर गठबंधन बना सकती है.
लेकिन इन संभावनाओं के बीच अचानक ख़बर मिलती है कि भारतीय रिपब्लिकन पार्टी-बहुजन महासंघ (भरिप-बहुजन महासंघ) के नेता प्रकाश आंबेडकर ने घोषणा की है कि उनकी पार्टी असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एमआईएम) के साथ जा रही है.
महाराष्ट्र की मौजूदा विधानसभा में भरिप और एमआईएम के दो-दो सदस्य हैं. दोनों ही दल अपने-अपने स्तर पर एक फ़ीसदी से अधिक मत प्राप्त नहीं कर पाए थे. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इस गठबंधन का कितना महत्व रहेगा और यह एंटी-बीजेपी गठबंधन के रूप में कितना कारगर साबित होगा.
हालांकि औरंगाबाद में कुछ दिन पहले इस नए गठबंधन की प्रेस कांफ्रेंस के बाद कई लोगों का ध्यान इनकी ओर ज़रूर गया.
विपक्षी दलों के पास बीजेपी का विरोध करने के अलावा दूसरा कोई एजेंडा नहीं है, ऐसे में सभी विपक्षी दलों के लिए वोटों का बंटवारा बेहद अहम मुद्दा है.
इसी वजह से एक सवाल सभी के ज़ेहन में है कि आखिर इस राजनीतिक हलचल का विपक्ष के गठबंधन पर कितना असर पड़ेगा?
इसके साथ ही दलित-मुस्लिम गठबंधन भी आने वाले समय में भविष्य की राजनीति में अपना अहम किरदार निभाने के लिए तैयार दिखता है.
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छोटे दलों के पास कितना मौक़ा?
मौजूदा वक़्त में कोई भी पार्टी चुनाव में अकेले दम पर बीजेपी को हराने में सक्षम नहीं दिखती.
तो जैसे इतिहास में कभी कांग्रेस बेहद मज़बूत हुआ करती थी और तब तमाम दूसरे विपक्षी दल उसे हराने के लिए एकजुट होते थे वैसे ही आज बीजेपी को मात देने के लिए दूसरे दल एक-दूसरे के साथ जुड़ रहे हैं.
लेकिन असल राजनीति इतनी सीधी और सरल नहीं होती.
बीजेपी को लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत ना मिले और फ़िलहाल कांग्रेस की जैसी स्थिति नज़र आती है, वो बीजेपी को अकेले दम पर हराने का माद्दा तो नहीं रखती है, ऐसे में राज्यस्तरीय पार्टियां और अन्य छोटे दल इन परिस्थितियों का फ़ायदा उठाने की कोशिश करेंगे.
हमारा चुनावी तंत्र कुछ ऐसा है कि यहां नई और छोटी पार्टियां चुनावी दौड़ में बनी नहीं रह पातीं, वो हमेशा ही बिना प्रभाव के रहती हैं.
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लेकिन जब बड़ी पार्टियों का प्रभाव कम होने लगता है और उनके हाथों से सत्ता की ताक़त छिटकने लगती है तब छोटी पार्टियां अपना महत्व दर्शाती हैं.
इन्हीं अहम मौक़ों पर नई और छोटी पार्टियां मोलभाव शुरू करती हैं. इन्हीं मोलभाव के चलते वो आगे बढ़ती है.
ऐसा ही मौक़ा साल 1989 में बना था जब कुछ दल खुद को लंबी दौड़ में शामिल करने में कामयाब रहे थे.
इसके बाद साल 1996 में भी इसी तरह के हालात बने थे जब बमुश्किल एक या दो लोकसभा सदस्यों वाली पार्टियां बेहद महत्वपूर्ण हो गई थीं.
और आज एक बार फिर वही हालात बन रहे हैं और इसी को देखते हुए छोटे दल अपने लिए राजनीतिक रणनीतियां बनाने लगे हैं.
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मोदी का ज़ादू निश्चित रूप से कम हुआ है महाराष्ट्र में, इसके साथ ही शिवसेना और बीजेपी के गठबंधन में बने रहने पर सवाल उठ रहे हैं.
कांग्रेस और एनसीपी अपने ही मसलों में उलझी हुई हैं. ऐसे हालात में छोटे दलों के पास ख़ुद का विस्तार करने का मौक़ा है और ये दल इतना सुनहरा मौक़ा कैसे जाने दे सकते हैं.
दलित-मुस्लिम और बीजेपी
बीजेपी देश में मौजूद दलित वोटबैंक को अपनी तरफ़ खींच पाने में कामयाब नहीं दिख रही है. दलित बहुल सीटों पर यह बात समझी जाती है कि बीजेपी उनके ख़िलाफ़ है.
दूसरी तरफ़ बीजेपी अपनी निजी वजहों से मुस्लिम वोटर्स से दूरी बनाए रखती है. इस तरह ये दोनों ही वर्ग बीजेपी के ख़िलाफ़ चले जाते हैं.
यही वजह है कि ये दोनों वर्ग विपक्षी दलों को अपनी ओर खींचते हैं और कम से कम काग़ज़ पर तो उन्हें आकर्षित ज़रूर करते हैं.
यही वजह है कि आंबेडकर-ओवैसी गठबंधन इतना महत्वपूर्ण नज़र आ रहा है.
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दोनों दलों को कितना फ़ायदा?
जैसा कि हम पहले इस बारे में बता चुके हैं कि ये दोनों ही दल अलग-अलग रूप से पिछले विधानसभा चुनाव में एक प्रतिशत मत भी प्राप्त नहीं कर पाए थे, लेकिन साथ आने के बाद ये अपना प्रभाव ज़रूर बढ़ा सकते हैं.
बीजेपी जिस तरह मुखर और कभी-कभी छिपे तरीकों से अपने राष्ट्रव्यापी एजेंडे को बढ़ाती है उससे मुसलमान समुदाय के प्रति एक पूर्वाग्रह बन जाता है. इससे दलित भी अछूते नहीं रहते. वे भले ही मुसलमानों के साथ हुई हिंसा में सीधे जुड़े ना हों, लेकिन मुस्लिम समुदाय के प्रति एक तरह का पूर्वाग्रह उनके दिलो दिमाग़ में भी रहता है.
तो सवाल उठता है कि क्या प्रकाश आंबेडकर के वोटर्स अपना वोट किसी मुसलमान उम्मीदवार को देंगे?
ओवैसी इस विरोधाभास से अवगत हैं. यही वजह है कि जब वे आंबेडकर की तारीफ़ करते हैं तो उसमें गांधी बनाम आंबेडकर के दशकों पुराने विचार को शामिल करते हैं.
वो ख़ुद को प्रकाश आंबेडकर से अधिक बड़ा आंबेडकरवादी बताने की कोशिश करते हैं.
ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रकाश आंबेडकर को मानने वाले लोग बाबासाहेब आंबेडकर के बारे में ओवैसी से ज्ञान प्राप्त करेंगे?
खैर सवाल तो यह भी उठता है कि आखिर इस गठबंधन से दोनों को फ़ायदा कितना होगा.
यह गठबंधन जिस सामाजिक गणित को बनाता हुआ दिख रहा है कि उससे प्रकाश आंबेडकर की बहुजन योजना को बल मिलेगा या वह कमज़ोर पड़ जाएगी? अभी फ़िलहाल इसका जवाब नहीं मिल रहा है.
अगर प्रकाश आंबेडकर के ओबीसी वोटर्स थोड़ी बहुत संख्या में भी उनसे छिटक गए तो अगले विधानसभा चुनाव में उन्हें इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है.
दोनों के सामने चुनौती
दूसरी तरफ महाराष्ट्र के पिछले चुनाव में ओवैसी को जो कामयाबी मिली वो दरअसल स्थानीय स्तर पर पैदा हुई निराशा का परिणाम थी.
यह दावा करना मुश्किल है कि महाराष्ट्र में उनकी पार्टी का वोटर किसी कैडर की तरह उन्हें वोट करेगा और दूसरी तरफं नहीं जाएगा.
यहां तक कि हैदराबाद के अलावा ओवैसी ने जब कभी किसी अन्य राज्य में अपनी पार्टी का विस्तार करना चाहा उन्हें मात खानी पड़ी.
इस तरह यह देखना होगा कि ओवैसी के निर्देश पर कितने मुस्लिम वोटर्स भरिप के उम्मीदवार को अपना वोट देते हैं.
अभी यह भी साफ़ नहीं हुआ है कि ओवैसी तेलंगाना में भरिप के उम्मीदवार को अपनी सीट देंगे या नहीं.
हैदराबाद में एमआईएम के सात विधायक हैं. अगर आंबेडकर की पार्टी वहां कुछ सीटें प्राप्त करने में कामयाब रही तो इसे आंबेडकर की राजनीति में बेहद महत्वपूर्ण चरण समझा जाएगा.
आंबेडकर और ओवैसी का सपना
प्रकाश आंबेडकर की राजनीति एक तरह से कांग्रेस की राजनीति जैसी प्रतीत होती है. साल 1989-90 से वो दो चीज़ों पर बल देते आए हैं.
पहला, सिर्फ़ दलितों की राजनीति करने की बजाय दलित-ओबीसी/बहुजन के रूप में बड़ा फ़्रंट तैयार किया जाए.
दूसरा, अपनी राजनीति को सिर्फ़ महाराष्ट्र तक सीमित रखने की बजाय उसे राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाने का प्रयास किया जाना चाहिए.
ओवैसी के साथ गठबंधन करने से उनकी बहुजन राजनीति पर तो असर नहीं पड़ेगा, लेकिन इसके ज़रिए वे राष्ट्रीय स्तर पर अपना महत्व ज़रूर बताना चाहते हैं.
अगर उनकी पार्टी महाराष्ट्र में दो या तीन सीटें जीतने में कामयाब होती है और उन्हें तेलंगाना में कुछ सीटों पर चुनाव लड़ने का मौक़ा मिल जाता है. तब उनके लिए यह गठबंधन फ़ायदे का सौदा माना जाएगा नहीं तो यह विफल रहेगा.
दूसरी तरफ़ अगर ओवैसी की बात करें कि आखिर उन्हें क्या लाभ होने वाला है.
एमआईएम शायद महाराष्ट्र में एक लोकसभा सीट जीतने में कामयाब हो सकती है. वो यहां अपने विधायकों की संख्या चार या पांच तक पहुंचा सकती है और शायद पहली बार यह पार्टी हैदराबाद के बाहर अपनी छाप छोड़ने में कामयाब हो जाए.
प्रकाश आंबेडकर की ही तरह एमआईएम भी बड़ा ख़्वाब देख रही है. एमआईएम का सपना है कि वह देशभर के मुसलमानों का नेतृत्व करे.
मुसलमानों की राजनीति पर मौजूदा वक्त तक हुई तमाम स्टडीज़ बताती हैं कि अखिल भारतीय मुस्लिम राजनीति जैसी कोई चीज़ वास्तव में नहीं है और यही वजह है कि मुस्लिम वोट-बैंक भी असल में प्रभावी नहीं है.
यह तथ्य दरअसल बीजेपी और ओवैसी दोनों को परेशान करता है.
एमआईएम की राजनीति की मूल परिकल्पना यह है कि वह मुसलमानों के बीच यह संदेश दे कि भारतीय संविधान सिर्फ़ अल्पसंख्यकों का ख़याल रखता है.
ओवैसी भरिप की राजनीति के ज़रिए खुद को राष्ट्रीय राजनीति में महत्व दिलाना चाहते हैं.
गठबंधन का बीजेपी पर असर
पहला, भरिप-एमआईएम गठबंधन इस बात का उदाहरण है कि बदलते राजनीतिक समीकरणों में छोटे दलों के पास क्या संभावनाएं हैं. आने वाले चुनावों में सभी पार्टियां यह अपनाएंगी और इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है.
दूसरा, अगर हम इस तरह के गठबंधनों का बीजेपी पर पड़ने वाले असर के रूप में विश्लेषण करें तो पाएंगे कि बीजेपी को इसका लाभ ही होगा. चाहे सीधे तरीके से हो या दूसरे तरीकों से.
तीसरा, यह गठबंधन चुनावी गणित से परे भी बहुत कुछ कहता है. यह अलग तरह की मुस्लिम राजनीति को दिखाता है.
प्रकाश आंबेडकर स्पष्ट रूप से यह कहेंगे कि उनकी पार्टी मुसलमानों के साथ जा रही है और वे एक अलग मुस्लिम राजनीति की अवधारणा को भी रेखांकित करते हैं.
हालांकि प्रकाश आंबेडकर की संवैधानिक समझ के आधार पर वे ख़ुद अल्पसंख्यकों की अलग राजनीति का विरोध करते हुए भी दिखेंगे.
ऐसे में ओवैसी के साथ गठबंधन के बाद उनके ख़ुद के तर्क भी बेहद महत्वपूर्ण हो जाते हैं. इसके साथ ही यह बीजेपी को भी बहुसंख्यकों की राजनीति करने का अवसर देती है. बीजेपी इसके ज़रिए अपने वोटों का ध्रुवीकरण कर सकती है.
पता नहीं ओवैसी इन परिणामों को लेकर चिंता करते भी हैं या नहीं. लेकिन उनके साथ जो हाथ में हाथ डालकर चलने के लिए तैयार हुए हैं उन्हें तो भविष्य में इसका जवाब देना ही होगा कि अपनी पार्टी को विस्तार देने के लिए उन्हें कितनी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी?
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं. इसमें शामिल तथ्य और विचार बीबीसी के नहीं हैं और बीबीसी इसकी कोई ज़िम्मेदारी या जवाबदेही नहीं लेती है)
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