नज़रिया: क्या नेहरू को नहीं पसंद थे भीम राव आंबेडकर?
कांग्रेस ने आंबेडकर को संविधान सभा में घुसने से रोकने का हर संभव प्रयास किया. जुनूनी व्यक्तित्व के कारण बनी उनकी सामाजिक सुधारक की छवि कांग्रेस के लिए चिंता का सबब थी. यही कारण है कि कांग्रेस ने उन्हें संविधान सभा से दूर रखने की और कुछ नरम दलित नेताओं से काम चलाने की साजिश रची.
यह ध्यान देने योग्य है कि संविधान सभा में भेजे गए प्रारंभिक 296 सदस्यों में आंबेडकर
कांग्रेस ने आंबेडकर को संविधान सभा में घुसने से रोकने का हर संभव प्रयास किया. जुनूनी व्यक्तित्व के कारण बनी उनकी सामाजिक सुधारक की छवि कांग्रेस के लिए चिंता का सबब थी. यही कारण है कि कांग्रेस ने उन्हें संविधान सभा से दूर रखने की और कुछ नरम दलित नेताओं से काम चलाने की साजिश रची.
यह ध्यान देने योग्य है कि संविधान सभा में भेजे गए प्रारंभिक 296 सदस्यों में आंबेडकर जैसे बौद्धिक व्यक्ति को जगह नहीं मिली.
जब प्रांतीय सभा संविधान सभा के लिए सदस्य चुन रही थी तो आंबेडकर के पास बंबई प्रांत की अनुसूचित जाति संघ के सदस्यों के साथ संख्या बल जुटा पाने का बहुत थोड़ा ही मौका रह गया था.
सरदार पटेल के निर्देशों के अनुसार बॉम्बे के प्रीमियर बीजी खेर ने सुनिश्चित किया कि आंबेडकर 296 सदस्यीय निकाय के लिए नहीं चुने जाएं.
....तो इसलिए आरक्षण के हिमायती थे आंबेडकर
जोगेंद्रनाथ मंडल और मुस्लिम लीग का समर्थन
जब कांग्रेस और गांधी ने आंबेडकर के चुने जाने के लिए एक भी सीट खाली नहीं छोड़ी, तब अविभाजित बंगाल में दलित-मुस्लिम एकता के आर्किटेक्ट जोगेंद्र नाथ मंडल ने आंबेडकर को मुस्लिम लीग की मदद से बंगाल से संविधान सभा में पहुंचाया.
ये जानना बेहद मजेदार है कि जिस आंबेडकर को आज हम जानते हैं वो मुस्लिम लीग की रचना हैं?
उसने ही कांग्रेस के द्वारा इतिहास के कचरे के डब्बे में डाल दिए गए आंबेडकर को बाहर निकाला.
मंडल ने मुस्लिम लीग का समर्थन किया क्योंकि वो मानते थे कि सांप्रदायिक कांग्रेस पार्टी शासित भारत की तुलना में जिन्ना के धर्मनिरपेक्ष पाकिस्तान में अनुसूचित जाति की स्थिति बेहतर होगी.
वो जिन्ना के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के बड़े प्रशंसक थे और अनुसूचित जातियों के सरपरस्त के रूप में उन्हें गांधी और नेहरू की तुलना में कहीं ऊपर आंकते थे.
इसलिए मंडल भारत से पलायन कर न केवल पाकिस्तान के पहले क़ानून मंत्री बने बल्कि वो इसके जनकों में से एक थे.
वो पाकिस्तान की सरकार में सबसे ऊंचे ओहदे वाले हिंदू और मुस्लिम बहुल वाले इस देश में धर्मनिरपेक्षता के सच्चे पैरोकार थे.
हालांकि, जिन्ना की मौत के बाद उनके सपने कुचले गए.
आंबेडकर को संविधान सभा में जाने से पहले कुछ और बाधाएं पार करनी पड़ीं.
हिंदू बहुल होने के बाद भी चार ज़िले पाकिस्तान को सौंपे
विभाजन की योजना के तहत इस पर सहमति बनी कि जिन इलाकों में हिंदुओं की आबादी 51 फ़ीसदी से अधिक है उसे भारत में रखा जाए और जहां मुस्लिम 51 फ़ीसदी से अधिक है उन्हें पाकिस्तान को दे दिया जाए.
जिन चार ज़िलों- जस्सोर, खुलना, बोरीसाल और फरीदपुर- से गांधी और कांग्रेस की इच्छा के विरुद्ध आंबेडकर संविधान सभा के लिए चुने गए वहां हिंदुओं की आबादी 71% थी.
मतलब, इन सभी चार ज़िलों को भारत में रखा जाना चाहिए था, लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने शायद आंबेडकर के पक्ष में वोट देने की सामूहिक सज़ा के तौर पर इन सभी चार ज़िलों को पाकिस्तान को दे दिया.
इसके परिणामस्वरूप आंबेडकर पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य बन गए और भारतीय संविधान सभा की उनकी सदस्यता रद्द कर दी गई.
पाकिस्तान बनने के साथ ही बंगाल अब विभाजित हो गया था और संविधान सभा के लिए पश्चिम बंगाल में नए चुनाव किए जाने थे.
जब यह स्पष्ट हो गया कि आंबेडकर अब संविधान सभा में नहीं रह सकते तब उन्होंने सार्वजनिक स्टैंड लिया कि वो संविधान को स्वीकार नहीं करेंगे और इसे राजनीतिक मुद्दा बनाएंगे. इसके बाद ही कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें जगह देने का फ़ैसला किया.
बॉम्बे के क़ानून विशेषज्ञ एम. आर. जयकर ने संविधान सभा से इस्तीफ़ा दिया था जिनकी जगह को जी. वी. मावलंकर ने भरा.
मंसूबा था कि उन्हें (मावलंकर को) तब संविधान सभा का अध्यक्ष बनाया जाएगा जब 15 अगस्त 1947 से यह भारत के केंद्रीय विधायिका के तौर पर काम करने लगेगा. लेकिन कांग्रेस पार्टी ने यह फ़ैसला किया कि जयकर की खाली जगह आंबेडकर भरेंगे.
हिंदू कोड बिल पर नाराज़गी
बाद में, जब आंबेडकर ने सितंबर 1951 में कैबिनेट से इस्तीफ़ा दिया, उन्हें लोकसभा अध्यक्ष ने अपना बयान तक नहीं प्रस्तुत करने की अनुमति नहीं दी. लोकसभा का नियम एक मंत्री को अपने इस्तीफ़े की सफ़ाई में व्यक्तिगत बयान देने की इजाजत देता है. अपने बयान में आंबेडकर ने अपने इस्तीफ़े के कारणों को रेखांकित किया.
नेहरू की उन पर विश्वास में कमी के अलावा वो सरकार के अनुसूचित जातियों की उपेक्षा से नाराज़ थे.
लेकिन आखिरकार वो चीज़ जिसने उन्हें इस्तीफ़े के लिए बाध्य किया वो था हिंदू कोड बिल के साथ सरकार का बर्ताव. यह विधेयक 1947 में सदन में पेश किया गया था लेकिन बिना किसी चर्चा के जमींदोज हो गया. उनका मानना था कि यह इस देश की विधायिका का किया सबसे बड़ा सामाजिक सुधार उपाय होता.
उन्होंने कहा कि कैसे प्रधानमंत्री ने सदन को बार बार यह आश्वस्त करने के बावजूद कि वो विधेयक को पारित कराने के लिए प्रतिबद्ध हैं, यह पक्का किया कि इसे अंततः गिरा दिया जाए. उन्होंने अंत में कहा, "अगर मुझे यह नहीं लगता कि प्रधानमंत्री के वादे और काम के बीच अंतर होना चाहिए, तो निश्चित ही ग़लती मेरी नहीं है."
नेहरू ने आंबेडकर के प्रति अपनी नापसंदगी नहीं छुपाई
इसके बाद कांग्रेस ने आंबेडकर को शांति से नहीं रहने दिया. 1952 में आंबेडकर उत्तर मुंबई लोकसभा सीट से लड़े और उन्हें कांग्रेस की ओर से खड़े उनके पूर्व सहयोगी एन. ए. काजोलकर ने हराया.
कांग्रेस ने कहा कि आंबेडकर सोशल पार्टी के साथ थे इसलिए उसके पास उनका विरोध करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था. लेकिन तथ्य यह था कि आंबेडकर ने कुछ समय पहले ही मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दिया था, खास कर हिंदू कोड बिल पर अपने रुख के कारण, और कांग्रेस ने उनके ख़िलाफ़ जातीवाद की राजनीति करते हुए उनके पूर्व सहयोगी एन. एस. काजोलकर को उतारा ताकि आंबेडकर संसद न पहुंच सकें.
नेहरू दो बार निर्वाचन क्षेत्र का दौरा किया और सीपीआई से समर्थन की मांग की ताकि उनकी हार तय हो सके. नेहरू के जी तोड़ प्रयासों के कारण आंबेडकर 15 हज़ार वोटों से हार गए.
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई, आंबेडकर को 1954 में कांग्रेस ने भंडारा लोकसभा उपचुनाव में एक बार फिर हराया.
ये घटनाएं साबित करती हैं कि कांग्रेस और उसके नेता खासकर नेहरू कभी आंबेडकर पर भरोसा नहीं करते थे और उन्होंने अपनी नापसंदगी को छुपाने का प्रयास भी कभी नहीं किया.
उनकी समानता पर क्रांतिकारी विचार और हिंदू समाज में सुधारों के विचार कांग्रेस और उसके सहिष्णु, लोकतांत्रिक और उदारवादी नेता को स्वीकार्य नहीं थे.