नज़रिया: सीबीआई में भ्रष्टाचार का कल, आज और कल
लेकिन इनमें से अधिकतर विरोध प्रदर्शन राजनीति से प्रेरित थे और सत्तारूढ़ पार्टी के ख़िलाफ़ थे. भ्रष्टाचार सिर्फ़ एक बहाना था. उम्मीद के मुताबिक़ इन आंदोलनों के बाद कुछ भी नहीं हुआ.
जांच एजेंसियों या अदालतों को संस्थागत रूप से सशक्त बनाने का सबसे अच्छा तरीक़ा यह सुनिश्चित करना है कि वे कुछ सफलता प्राप्त करें.
अब से कुछ 27 साल पहले मुझे एक विश्वस्त सूत्र से जानकारी मिली कि देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआई एक ऐसी डायरी को ख़त्म करने की कोशिश कर रही है जिसे एक व्यापारी से हासिल किया गया है.
इस डायरी में कथित रूप से उन राजनेताओं, नौकरशाहों और दूसरे बड़े लोगों के नाम थे जिन्हें एक बड़े व्यवसायी ने रिश्वत दी थी.
मेरे हाथ बस हल्की सी जानकारी लगी थी. लेकिन धीरे-धीरे मैंने इस डायरी के पन्ने जुटाने शुरू कर दिए.
इन पन्नों में उन ताक़तवर लोगों के नाम शामिल थे जिन्हें सरकारी काम हासिल करने के बदले में कमीशन दिया गया था.
इन नामों में एक राष्ट्रपति से लेकर एक पूर्व प्रधानमंत्री, ताक़तवर नौकरशाह और नेता (विपक्ष) के साथ-साथ कई सांसदों के नाम शामिल थे.
ऐसा लग रहा था कि इस चालाक व्यवसायी ने किसी को नहीं छोड़ा है. उसने बेहद कम रक़म ख़र्च करके पर पूरे देश के राजनीतिक सिस्टम को ख़रीद लिया था.
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या एक लोकतंत्र ठीक से काम कर सकता है जब सत्ता में बैठे सभी लोग एक व्यवसायी के लिए काम कर रहे हों.
ये रिपोर्ट द ब्लिट्ज़ (अब बंद हो चुकी) नाम की पत्रिका के पहले पन्ने पर छपी. इसके बाद सामने जनहित याचिका दायर हुई जिससे देश में एक राजनीतिक भूचाल आ गया था.
- 'राकेश अस्थाना जांच की आड़ में वसूली रैकेट चलाते थे'
- CBI पर मोदी सरकार के फ़ैसले से भड़के सुब्रमण्यम स्वामी
सीबीआई में कितनी ताक़त है?
इस मामले में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ रहे लोगों ने सवाल उठाया कि क्या सीबीआई अपने तत्कालीन स्वरूप में सत्ता में बैठे लोगों के ख़िलाफ़ जांच कर सकती है.
चूंकि सुप्रीम कोर्ट एक ट्रायल कोर्ट नहीं है. ऐसे में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ रहे लोगों को वो राहत नहीं मिली जिसकी वे अपेक्षा कर रहे थे.
अगर इस मामले में कोई नतीजा सामने आता तो डायरी में सामने आए कई नेताओं जिनमें एलके आडवाणी और यशवंत सिन्हा शामिल रहे हैं, को बहुत दुख होता.
इस डायरी में कांग्रेस और जनता दल के भी कई नेताओं के नाम शामिल थे जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पूर्व राष्ट्रपति ज़ैल सिंह भी शामिल थे.
अगर इस मामले में कुछ होता तो एक झटके में भारतीय राजनीति से वो भ्रष्ट लोग बाहर हो जाते जो अहम पदों पर बैठे थे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
लेकिन हवाला कांड कांग्रेस में विघटन की वजह बना जिसका असर अगले लोकसभा चुनाव में उसकी हार के रूप में सामने आया.
सुप्रीम कोर्ट ने भविष्य में सीबीआई के दुरुपयोग को रोकने के लिए एक ऐसी व्यवस्था बनाई जिससे संस्था का निदेशक ठीक तरह से चुना जा सके.
तत्कालीन चीफ़ जस्टिस जे एस वर्मा ने सोचा था कि अगर निदेशक की नियुक्ति और कार्यकाल की अवधि को नियत कर दिया जाए तो इससे जांच एजेंसी पर राजनीतिक दबाव नहीं पड़ेगा.
लेकिन इसके बाद जो हुआ वो बताता है कि जस्टिस वर्मा की सोच कितनी ग़लत थी.
सुधार के बाद सीबीआई का क्या हुआ?
निदेशक चुनने की प्रक्रिया में हुए बदलाव के बाद सीबीआई के हाथ ऐसी कई डायरियां लगी हैं जिनमें उच्च पदों पर बैठे हुए लोगों को रिश्वत दिए जाने का ज़िक्र था.
लेकिन इसके बाद भी सीबीआई ने बहुत उल्लेखनीय जांच नहीं की है.
सत्ता में बैठे तमाम लोग जिनके ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के मामले हैं, आज भी आज़ाद घूम रहे हैं.
इसके साथ ही सीबीआई को सुप्रीम कोर्ट की ओर से आलोचना का सामना करना पड़ा है.
इसमें वो वाक्या भी शामिल हैं जब सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को पिंजड़े में बंद तोते की उपाधि दी.
जब कांग्रेस सत्ता में थी तब विपक्षी दल सीबीआई को कांग्रेस ब्यूरो ऑफ़ इंवेस्टिगेशन कहा करते थे.
अब जबकि बीजेपी सत्ता में है तब भी एजेंसी के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है.
क्या आसान है जांच अधिकारी का बिकना?
एजेंसी के जांच अधिकारी अभी भी अपने राजनीतिक आक़ाओं के साथ-साथ व्यावसायिक घरानों के सामने सेवकों जैसा व्यवहार करते हैं.
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में बड़े व्यावसायिक घरानों के लिए लॉबिइंग करने वाले लोग सीबीआई अधिकारियों और अपने मालिकों के ख़िलाफ़ चल रहे मामलों को नियंत्रण में रखने में महारथ रखते हैं.
हवाला कांड के समय की तुलना में इस समय ऐसे लोगों का प्रभाव काफ़ी बढ़ गया है. क्योंकि अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ने की वजह से निजी क्षेत्र की कंपनियों का जोख़िम भी काफ़ी बढ़ गया है.
दरअसल, इस सिस्टम में पैसा ही इतना सारा है कि किसी भी जांच अधिकारी के लिए बिकना आसान है.
सीबीआई कड़ी जांच क्यों नहीं करती?
अपने अस्तित्व की ख़ातिर, सीबीआई के अधिकारी सरकार के क़रीबी व्यापारिक घरानों के ख़िलाफ़ जांच करते हुए तेज़ी नहीं दिखाते हैं. और ऐसे में मामलों को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है.
किसी को अनिल अंबानी के नेतृत्व वाले समूह के ख़िलाफ़ वो केस याद है जिसमें उनकी कंपनी के कुछ अधिकारियों को पकड़ा गया था.
अडानी समूह के ख़िलाफ़ लगे मामलों में भी कुछ नया सामने नहीं आया.
अक्सर ऐसे मामलों को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है जैसे कि हवाला स्कैंडल के रूप में सामने आया.
सीबीआई को आज़ाद रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने जो तरीक़ा निकाला था वो पर्याप्त नहीं है. क्योंकि सीबीआई के डायरेक्टर और स्पेशल डायरेक्टर को तय प्रक्रिया के तहत ही चुना गया. लेकिन इसके बाद भी वो कथित तौर पर भ्रष्ट लोगों की मदद करते हुए नज़र आ रहे हैं.
इससे भी ज़्यादा ख़राब बात ये है कि अधिकारियों पर ये आरोप भी लग रहे हैं कि वे कथित रूप से भ्रष्ट लोगों को समय से पहले टिप दे रहे हैं कि वो देश छोड़ कर चलें जाएं ताकि क़ानून के हाथ उन तक न पहुंच सकें
इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने ही सीबीआई से अपने ही डायरेक्टर रंजीत सिन्हा के कामकाज की जांच करने को कहा क्योंकि वो कोल स्कैम में व्यापारियों और दलालों की मदद कर रहे थे.
सिन्हा पर गुजरात दंगों में शामिल लोगों की मदद करने के भी आरोप लगे थे.
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सत्ताके ख़िलाफ़ सीबीआई कितनी मजबूत?
बड़ा सवाल है कि सीबीआई उन लोगों के ख़िलाफ़ कैसे जांच करेगी जिनके राजनीति करने के ढंग में ही आपराधिक प्रवृत्तियां शामिल होती हैं. और वे इन्हीं प्रवृत्तियों की वजह से सत्ता में आते हैं. बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात दंगे ऐसे ही मामले हैं जिनसे बीजेपी को राजनीतिक लाभ हुआ और वो सत्ता में पहुंची.
तत्कालीन सरकार यानी कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए को उस समय सीबीआई को वो आज़ादी देनी चाहिए थी जिससे वह गुजरात दंगों, हिंदूवादी संगठनों के ख़िलाफ़ दर्ज मामलों और इसके बाद होने वाली हत्याओं और सोहराबुद्दीन- कौसर बी फेक एनकाउंटर जैसे मामलों की जांच को तार्किक नतीजों तक पहुंचा सके. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
मनमोहन सिंह की पिछली सरकार ने भी इस पर मज़बूत रुख़ नहीं दिखाया कि सीबीआई को आज़ादी से काम करने दिया जाए.
उस दौरान भी एजेंसी की साख पर सवाल उठे थे क्योंकि तब भी ताक़तवर लोगों ने एजेंसी पर अपने प्रभाव डालने शुरू कर दिए थे.
वर्तमान मामले में सीबीआई और सरकार के बीच टकराव की वजह भी एक डायरी है. उस डायरी में भी कथित तौर पर वो तमाम मामले दर्ज हैं जिनमें राकेश अस्थाना को कथित तौर पर रिश्वत दिए गए हैं.
राकेश अस्थाना गुजरात कैडर के वही आईपीएस अधिकारी हैं जिनकी जांच के बाद 2002 के दंगों में मोदी को क्लीन चिट मिली थी.
अस्थाना को मोदी के चहेते अधिकारी के रूप में जाना जाता था. लेकिन सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा इन्हें पसंद नहीं करते थे और वह उनके ख़िलाफ़ जारी मामलों में जांच कर रहे थे.
वर्मा ने प्रधानमंत्री से अस्थाना के ख़िलाफ़ क़दम उठाने की इजाज़त मांगी लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ नहीं किया.
इसके बाद सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा ने उन लोगों के ख़िलाफ़ क़दम उठाना शुरू किया जो उनके मुताबिक़ धन उगाही का रैकेट चला रहे थे.
सुप्रीम कोर्ट में क्या होगा?
अस्थाना ने अपने वकील की मदद से दिल्ली हाईकोर्ट जाकर गिरफ़्तारी से राहत मांगी और दावा किया कि एजेंसी अभियुक्त के ख़िलाफ़ "फ़र्ज़ी साक्ष्य लगाने में" माहिर थी.
अदालत ने सीबीआई को अस्थाना को गिरफ़्तार करने से रोक दिया.
इस मामले में डायरेक्टर वर्मा के आगे बढ़ने से पहले ही पीएम मोदी ने अस्थाना और वर्मा को हटा दिया. ख़ास बात ये है कि मोदी के पास ही डीओपीटी का कार्यभार है.
इसके बाद सीबीआई निदेशक का कार्यालय सील कर दिया गया था जो कि अभूतपूर्व है.
इसके बाद वर्मा सुप्रीम कोर्ट गए ताकि सुप्रीम कोर्ट अपने पूर्व आदेश का पालन करा सके जो कि ये सुनिश्चित करता है कि कोई भी सरकार सीबीआई डायरेक्टर को कार्यकाल पूरा करने से पहले नौकरी से नहीं हटा सकती है.
भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली के लिए यह एक मुश्किल पल है.
अगर सुप्रीम कोर्ट आलोक वर्मा के हक़ में फ़ैसला देती है तो इससे प्रधानमंत्री कार्यालय की साख पर असर पड़ता है. ये क़दम वर्तमान सरकार को नैतिक रूप से भी अस्थिर कर सकता है.
मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई सत्ताधारी पार्टी को पसंद करने वाले लोगों के रूप में नहीं जाने जाते हैं और यही बात आने वाले दिनों को ज़्यादा दिलचस्प बनाती है.
इस मामले में ये भी अफ़वाह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने हस्तक्षेप कर आलोक वर्मा को तब हटाने का फ़ैसला किया जब सीबीआई निदेशक रफ़ाल विमान मामले में एफ़आईआर दर्ज करने की योजना बना रहे थे.
आम आदमी के लिए क्या है उम्मीद
ऐसे में जो भी हो लेकिन क्या इस देश के नागरिक एक ऐसी स्वतंत्र एजेंसी की अपेक्षा नहीं कर सकते जो कि ऊंचे पदों पर बैठे लोगों के ख़िलाफ़ जांच कर सके.
भारत में, बोफ़ोर्स सौदे मामले के साथ ही लोकपाल के गठन के लिए कई आंदोलन हुए हैं.
लेकिन इनमें से अधिकतर विरोध प्रदर्शन राजनीति से प्रेरित थे और सत्तारूढ़ पार्टी के ख़िलाफ़ थे. भ्रष्टाचार सिर्फ़ एक बहाना था. उम्मीद के मुताबिक़ इन आंदोलनों के बाद कुछ भी नहीं हुआ.
जांच एजेंसियों या अदालतों को संस्थागत रूप से सशक्त बनाने का सबसे अच्छा तरीक़ा यह सुनिश्चित करना है कि वे कुछ सफलता प्राप्त करें.
यह ज़रूरी है कि सत्ता में बैठे बड़े से बड़े लोग भ्रष्टाचार और उनके आपराधिक कृत्यों के मामलों में जेल जाएं जैसा कि हाल के दिनों में ब्राज़ील, पाकिस्तान और इज़राइल में देखने को मिला.
यह संविधान में लोगों की आस्था को मज़बूत करेगा. इससे नेताओं के बीच उस उम्मीद को धक्का लगेगा जिसके तहत वे ये सोचते हैं कि वे राजनीति में आकर ग़लत तरीक़े से धन अर्जित कर सकते हैं.
इसके साथ ही राजनेताओं की उस सोच को भी धक्का लगेगा जिसके तहत वे ये सोचते कि वे संविधान के नियमों से ऊपर उठकर समाज को अस्थिर कर सकते हैं जैसा कि अस्थिर लोकतांत्रिक संस्थाओं में देखा जाता है.
जब तक ये नहीं होता है तब तक इस बात की उम्मीद कम ही है कि एक आम आदमी लोकतंत्र को कॉरपोरेट सेक्टर के समक्ष खड़ी शक्ति के रूप में देख सके.
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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