नज़रिया: नीतीश के डिनर पर सीट शेयरिंग पचा पाएंगे अमित शाह
12 जुलाई की तारीख़ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कैलेंडर में बहुत अहम है. इस दिन वो ब्रेकफ़ास्ट और डिनर किसके साथ करेंगे, यह तय है. नीतीश कुमार अपने घर पर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के साथ खाना खाएंगे और बातचीत भी करेंगे.
कहा जा रहा है कि दोनों नेता 2019 के लोकसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे के बारे में बात करेंगे.
12 जुलाई की तारीख़ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कैलेंडर में बहुत अहम है. इस दिन वो ब्रेकफ़ास्ट और डिनर किसके साथ करेंगे, यह तय है. नीतीश कुमार अपने घर पर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के साथ खाना खाएंगे और बातचीत भी करेंगे.
कहा जा रहा है कि दोनों नेता 2019 के लोकसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे के बारे में बात करेंगे.
दोनों की मुलाकात को लेकर एक चुटकुला ख़ूब चल रहा है. चुटकुला यह है कि नीतीश कुमार तो अमित शाह के साथ लंच भी करना चाहते थे लेकिन शाह कहीं और व्यस्त थे इसलिए उन्होंने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया!
जब नीतीश ने डिनर कैंसल किया था
यहां उस वाकए का ज़िक्र करना दिलचस्प होगा जब इन्हीं नीतीश कुमार ने पांच साल पहले अपने यहां होने वाला बीजेपी के बड़े नेताओं का डिनर कार्यक्रम कैंसल कर दिया था. वजह- नरेंद्र मोदी भी आने वाले मेहमानों में से एक थे और उनका नाम प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए आगे किया जा रहा था.
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- आख़िर किस मजबूरी में ख़ामोश हो गए हैं नीतीश?
नीतीश ने दो टूक कहा था को वह ऐसे शख़्स को प्रधानमंत्री बनते नहीं देख सकते जिसके शासनकाल में हिंदू कट्टरपंथियों ने 3,000 मुसलमानों की बर्बरतापूर्वक हत्या की हो. साल 2014 में आख़िर जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तब नीतीश ने एनडीए के साथ गठबंधन तोड़ने से पहले पलक भी नहीं झपकाई.
विडंबना यह है कि आज वही नीतीश कुमार, उन्हीं नरेंद्र मोदी को ख़ुश करने के लिए अमित शाह को डिनर पर बुला रहे हैं. ये वही नीतीश कुमार हैं जिन्होंने तक़रीबन 15 साल तक बिहार में अपनी शर्तों पर एनडीए के साथ गठबंधन का नेतृत्व किया है. ये वही नीतीश कुमार हैं जिन्होंने बिहार में बीजेपी को किसी आज्ञाकारी पार्टी की तरह उनकी राह पर चलने को मजबूर किया था.
मोदी-शाह बनाम वाजपेयी-आडवाणी की बीजेपी
आज बिहार में सत्ता की लगाम फिर नीतीश कुमार के हाथों में है और बीजेपी गठबंधन में 'जूनियर पार्टनर' है लेकिन हालात अलग हैं. नीतीश कुमार बहुत अच्छे से समझते हैं कि मोदी-शाह की बीजेपी वाजपेयी-आडवाणी की बीजेपी में ज़मीन-आसमान का अंतर है.
वो जानते हैं कि बीजेपी नेतृत्व अपना राजनीतिक गणित दुरुस्त करने के लिए उन्हें राज्य और केंद्र दोनों जगहों से रास्ते से हटाने में ज़रा भी नहीं हिचकेगा.
भारत में अगला सबसे बड़ा राजनीतिक कार्यक्रम है 2019 का लोकसभा चुनाव. बीजेपी के चुनावी गणित का सारा ज़ोर ज़्यादा से ज़्यादा सीटें हासिल करने पर होगा ताकि नरेंद्र मोदी बिना किसी अड़चन के अगले पांच साल तक फिर से प्रधानमंत्री बने रहें.
2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 22 सीटें मिलीं थीं और इस बार उसका मक़सद ज़्यादा सीटें जीतना होगा. दूसरी तरफ़ जेडीयू मुखर होकर यह मांग कर रही है कि इस बार भी बीजेपी सीटों के बंटवारे का 2009 वाला फ़ॉर्मूला दोहराए. 2009 में जेडीयू को 20 और बीजेपी 12 सीटें मिली थीं.
वहीं, 2014 में बीजेपी और जेडीयू अलग-अलग चुनाव लड़े थे. बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से बीजेपी 29 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. सात सीटें राम विलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी और चार सीटें उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी को मिली थीं.
अगर जेडीयू अपनी मांग पर अड़ी रही तो बीजेपी को अपने सहयोगियों की सीटों के कोटे में कटौती करनी पड़ेगी.
जेडीयू की दलील है कि उसका गठबंधन सिर्फ बीजेपी के साथ है और अपने बाकी सहयोगियों का इंतज़ाम बीजेपी को ख़ुद करना होगा. ऐसे में अगर जेडीयू 2014 का फ़ॉर्मूला दुहराने की ज़िद पर अड़ी रही और बीजेपी के सहयोगी भी अपनी सीटों में कटौती न करने पर अड़े रहे तो बीजेपी को सिर्फ़ चार सीटें मिलेंगी.
बीजेपी को मजबूर कर पाएगी जेडीयू?
क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि 2014 में बिहार में 22 सीटें जीतने वाली बीजेपी को 2019 में सिर्फ़ चार सीटों पर चुनाव लड़ने को कहा जाए! और 2014 में सिर्फ़ दो सीटें जीतने वाली जेडीयू 2019 में 25 सीटों पर चुनाव लड़े! यह सुनने में अजीब लग सकता है, लेकिन जेडीयू की मांग अगर मानी जाए तो इसका नतीजा यही होगा.
अब सवाल यह उठता है कि क्या आज जेडीयू इस स्थिति में है कि वो बीजेपी को पिछलग्गू बनने पर मजबूर कर सके?
यह सच है कि अजेय सी लगने वाली बीजेपी की छवि पिछले कुछ महीनों में कई उपचुनाव हारने से धूमिल हुई है. सबसे शर्मिंदगी वाली हार का सामना इसे तो उत्तर प्रदेश में करना पड़ा. बिहार में भी नीतीश के समर्थन के बावजूद बीजेपी लोकसभा की अररिया सीट नहीं जीत पाई. यहां आरजेडी बाजी मार ले गई.
ये सही है कि बीजेपी की जीत के घोड़े की रफ़्तार धोड़ी धीमी ज़रूर हुई है. इसलिए अपने सहयोगियों के प्रति इसका अड़ियल रवैया भी थोड़ा उदार हुआ है. नीतीश कुमार के लिए ये सब किसी वरदान जैसा है.
वैसे, नीतीश कुमार भी उपचुनावों में हार से बचे नहीं है. उदाहरण के लिए पार्टी बीजेपी के समर्थन के बावजूद जोकीहाट जैसी सीट हार गई जिसे वो पिछले तीन विधानसभा चुनावों में जीतती आ रही थी. यहां भी जीत आरजेडी की ही हुई.
अकेले लोकसभा चुनाव लड़ पाएंगे नीतीश?
सच्चाई तो यह है कि जेडीयू अभी तक सिर्फ एक लोकसभा चुनाव अपने दम पर लड़ी है- 2014 में. बाकी सभी लोकसभा चुनाव वो बीजेपी के साथ मिलकर लड़ी है. इसलिए आदर्श स्थिति में साल 2014 के नतीजों को सीटों के बंटवारे का पैमाना माना जाना चाहिए.
इस हालत में जेडीयू को दो सीटें मिलेंगी, आरएलएसी को तीन, एलजेपी को छह और बीजेपी को 22 सीटें मिलनी चाहिए. इसके बाद जो सात सीटें बचेंगी जो उन पार्टियों के खाते में जानी चाहिए जिन्हें पिछले लोकसभा चुनाव में दूसरे नंबर पर रही थीं.
यह बंटवारा उचित तो होगा, लेकिन नीतीश कुमार के लिए इसे पचा पाना कतई आसान नहीं होगा. इसलिए अगर बीजेपी नीतीश कुमार को तसल्ली देना चाहे तो हो सकता है कि मोदी बची हुई सातों सीटें नीतीश के लिए छोड़ दे. ऐसा हुआ तो नीतीश कुमार के हिस्से में नौ सीटें आएंगी. फिर भी ये उनकी पार्टी की मांग के एक तिहाई के लगभग ही होगा.
नीतीश का महबूबा वाला हाल हुआ तो?
लेकिन बीजेपी अगर नीतीश के साथ महबूबा मुफ़्ती वाला सलूक करने की ठान ले तो? क्योंकि अगर जेडीयू और आरजेडी अलग-अलग चुनाव लड़ेंगी तो यह बीजेपी के लिए ही फ़ायदेमंद होगा.
नीतीश कुमार राजनीति के कुटिल खेल से अनभिज्ञ नहीं हैं. इसलिए काफ़ी संभावना है कि वह अमित शाह की ख़ातिरदारी में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. वो जानते हैं कि बीजेपी के बिना समर्थन उनका सपना पूरा होना मुश्किल है.
आरजेडी पहले ही जेडीयू के लिए अपने दरवाजे बंद कर चुकी है. ऐसे में अगर नीतीश को बीजेपी का साथ नहीं मिला तो हो सकता है कि वो दो सीटें भी न जीत पाएं.
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