उत्तराखंड: भरी शादी में दलित की ‘पीटकर हत्या’ पर देखा किसी ने नहीं
आरोप है कि जीतेंद्र को पहले शादी के पंडाल के भीतर और फिर पंडाल से थोड़ी दूर घेरकर पीट-पीट कर अधमरा कर दिया गया लेकिन किसी ने कुछ नहीं देखा.
26 अप्रैल की रात उत्तराखंड के शहरी इलाकों से अलग-थलग गाँव कोट में कालेदास के बेटे की शादी में हिस्सा लेने आस-पास के गांव से करीब 500-600 लोग पहुंचे हुए थे.
पहाड़ों के बीच छोटे-छोटे खेतों से सटे इस गांव से लगे एक बड़े मैदान में शादी का इंतज़ाम किया गया था.
कालेदास दलित हैं और 'परंपरा के मुताबिक़' शादी का खाना सवर्ण बना रहे थे. इन इलाकों में कई सवर्ण दलितों के हाथ का बना खाना नहीं खाते, पानी भी नहीं पीते.
दलितों के मुताबिक शादियों में भी सवर्णों और दलितों के अलग-अलग खाने की व्यवस्था होती है लेकिन कुछ सवर्ण इससे इनकार करते हैं.
कई दलितों ने बताया कि सवर्ण उन्हें घर के बाहर ही चाय का प्याला दे देते हैं. उनसे कहा जाता है कि वो प्याले को धोकर दें. उस प्याले को दोबारा धोया जाता है.
किसी ने कुछ नहीं देखा
26 अप्रैल की रात मेहमानों से भरे इस मैदान में 21 साल के दलित युवक जीतेंद्र को कथित तौर पर दम भरकर पीटा गया लेकिन किसी ने कुछ नहीं देखा.
आरोप है कि जीतेंद्र को पहले शादी के पंडाल के भीतर और फिर पंडाल से थोड़ी दूर घेरकर पीट-पीट कर अधमरा कर दिया गया लेकिन किसी ने कुछ नहीं देखा.
जीतेंद्र के परिवार के मुताबिक उसे पीटने का कारण था उच्च जाति के लोगों के सामने बैठकर उसका खाना खाना.
कालेदास (जिनके बेटे की उस रात शादी थी) के मुताबिक डीजे के तेज़ गढ़वाली गाने के शोर में उन्हें कुछ नहीं सुनाई दिया.
जीतेंद्र के गांव बसाणगांव के कई लोग शादी में पहुँचे थे लेकिन किसी ने कुछ नहीं देखा.
जीतेंद्र के गांव बसाणगांव से तीन किलोमीटर दूर शादी वाले गांव कोट के लोग भी शादी में पहुँचे थे लेकिन उनमें से भी किसी ने कुछ नहीं देखा.
'ये जाति से जुड़ी बात है'
लेकिन सबने सुन रखा है कि उस रात क्या हुआ.
और वो ये कि शादी में खाना खाते वक्त जब जीतेंद्र कुर्सी पर बैठा और उसने मुंह में निवाला डाला तो एक अभियुक्त ने कथित तौर पर जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल करके कहीं और बैठने को कहा.
जब जीतेंद्र ने बात नहीं मानी तो अभियुक्त ने लात मारकर उसकी थाली गिरा दी.
गहमागहमी में अभियुक्त और उसके साथ के कुछ लोगों ने जीतेंद्र को पीटना शुरू कर दिया.
आरोप के मुताबिक़ जब जीतेंद्र बचबचाकर रोते बिलखते शादी समारोह से निकला तो थोड़ी ही दूर पर अभियुक्तों ने घेरकर फिर बेरहमी से पीटना शुरू कर दिया.
मामले की जांच कर रही उत्तराखंड पुलिस के महानिदेशक (लॉ एंड ऑर्डर) अशोक कुमार कहते हैं, "मारपीट कहीं न कहीं खाने के समय हुई है... कुर्सी पर बैठने पर विवाद हुआ जिससे उनके कपड़े पर खाना गिरा जिससे मारपीट हुई... एससी-एसटी एक्ट की धारा लगाना दर्शाता है कि ये जाति से जुड़ी बात है."
अगले दिन जब जीतेंद्र की मां गीता देवी तड़के उठीं तो घर के दरवाजे पर जीतेंद्र अधमरा पड़ा था.
शादी के लिए उसने जो गहरी चेक कमीज़ पहनी थी वो जगह-जगह से फटी हुई थी.
जीतेंद्र के सीने, चेहरे, हाथों, गुप्तांगो पर चोट के निशान थे.
जीतेंद्र को घर के बाहर कौन छोड़ गया?
मां गीता बदहवास सी पास ही चढ़ान से होते हुए अपने रिश्तेदार के घर बेटी पूजा को बुलाने के लिए दौड़ीं और मुक्के से दरवाज़े को पीटना शुरू किया. उन्हें ज़िंदगी में एक बार फिर अनहोनी का अंदेशा था.
करीब पांच साल पहले परिवार की अनुपस्थिति में उनके पति का शव घर के कमरे में लटका मिला था.
सभी ने इसे आत्महत्या बताया लेकिन परिवार को शक़ था कि उनकी हत्या कर दी गई थी.
अपने दो कमरे के झोपड़े के बाहर मिट्टी की मेढ़ के किनारे बैठी पूजा ने बताया, "जीतेंद्र थोड़ा बहुत ही बोल पा रहा था. जिसके साथ उसकी लड़ाई हुई वो उसी का नाम ले पा रहा था. वो मुंह से बोल नहीं पा रहा था. वो बोलने की कोशिश तो कर रहा था... ज़्यादा समझ नहीं आ रहा था."
वो कहती हैं, "पता नहीं जीतेंद्र को घर के बाहर कौन छोड़ गया था. मोटरसाइकिल पास में खड़ी थी. चाबी भी पैंट में रखी थी."
जांच के आदेश
नौ दिनों बाद देहरादून के अस्पताल में जीतेंद्र की मौत हो गई.
भाई की मौत पर लगातार रोने के कारण उनका गला बैठ गया था और मुश्किल से ही आवाज़ निकल पा रही थी.
क़ानून की विभिन्न धाराओं में सात लोगों को गिरफ़्तार किया गया है. एससी-एसटी एक्ट में मामला दर्ज होने के कारण जांच एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के हाथ में है.
स्थानीय दलित लोगों ने बताया कि घटना के कई चश्मदीद थे लेकिन बोलने को कोई तैयार नहीं.
इलाके में काम करने वाले दलित कार्यकर्ता जबर सिंह वर्मा कहते हैं, "घटना 26 अप्रैल की है लेकिन 29 तक इसकी एफ़आईआर दर्ज नहीं हुई... इस बीच दबंग लोगों को मौका मिला... लोगों को लगा कि इस मामले में कुछ होने वाला नहीं है… तो जो गवाह थे जिन्होंने बीच बचाव में मार भी खाई वो भी मुकर गए. आदमी सोचता है कि क्यों दुश्मनी मोल ली जाए."
एफ़आईआर दर्ज में कथित देरी पर उत्तराखंड पुलिस के महानिदेशक (लॉ एंड ऑर्डर) ने बताया, "हमने जांच के आदेश दे दिए हैं क्योंकि इस तरह के आरोप मीडिया में भी आए हैं.... थाना अध्यक्ष और चौकी इंचार्ज को वहां से हटाकर पुलिस लाइन भेज दिया गया है और जांच के आदेश दे दिए गए हैं."
दलितों पर अत्याचार के मामले
दूसरे कारण हैं डर और सवर्णों पर आर्थिक निर्भरता.
जबर सिंह वर्मा बताते हैं, "इलाका बहुत अंदर घुसकर है. ये दलित परिवार है. इन लोगों के पास अपनी ज़मीन नहीं हैं. इनकी आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब है. हर गांव में मात्र चार पांच परिवार अनुसूचित जाति के होते हैं और ये सवर्णों पर निर्भर रहते हैं. इस कारण उनमें भय है. और ये पहली घटना नहीं है. ये घटनाएं बार-बार होती हैं जिससे उनके भीतर दब्बूपन रहता है."
"ये प्रेशर का मामला है. सामने वाला पैसे वाला है, उसकी पहुंच है, उसके घर से अधिकारी है, उसके पास अपनी ज़मीन है, पैसा है, उसके लिंक हैं, और इधर एक छोटा सा एक कमरे में रहने वाला परिवार है. जिसके पास एक वक्त की रोटी के लिए चारा नहीं है... परिवार की आर्थिक स्थिति थोड़ी अच्छी होती तो शायद लोग खड़े रहते लेकिन ऐसा है नहीं. लड़के के पिता की मृत्यु हो चुकी है…. तो लोगों को लगा कि एक परिवार के चक्कर में कौन अपने दुश्मन पालेगा इलाके के अंदर."
जीतेंद्र के गांव बसाणगांव में करीब 50 परिवार रहते हैं जिनमें 12-13 दलित परिवार हैं. यही हाल आस-पास के गांवों का भी है जहां गिने-चुने ही दलित परिवार रहते हैं.
उत्तराखंड की जनसंख्या का 19 प्रतिशत दलित है.
राज्य के अनुसूचित जाति आयोग के मुताबिक उसके पास हर साल दलितों पर अत्याचार के क़रीब 300 से ज़्यादा मामले पहुंचते हैं और असली संख्या कहीं ज़्यादा है.
कौन था जीतेंद्र
जीतेंद्र बाजगी समुदाय का थे. इस समुदाय के लोग शादी में ढोल या अन्य वाद्य यंत्र बजाकर शादी और अन्य शुभ अवसरों पर रौनक बढ़ाते हैं.
जीतेंद्र को जानने वाले बताते हैं वो बेहत शांत किस्म और कम बातचीत करने वाला व्यक्ति था.
पांच साल पहले पिता की मौत के कारण उसे सातवीं कक्षा में पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी.
माहौल तनावपूर्ण
बसाणगांव, कोट और आस-पास में गांवों के दलितों में जीतेंद्र की मौत पर खासा रोष है.
कुछ अपना गुस्सा खुलकर ज़ाहिर कर रहे हैं, पर ज़्यादातर खामोश हैं.
इलाके के सवर्ण इसे जातिगत हिंसा मानने को तैयार नहीं.
एक ने कहा, "शादी में थोड़ी बहस हुई होगी जिससे जीतेंद्र को शर्मिंदगी हुई और उसने आत्महत्या कर ली होगी."
एक अन्य ने कहा, "जीतेंद्र ने मार खाने की शर्मिंदगी से बचने के लिए मिर्गी की 20-30 गोलियां खा लीं जिससे उसकी मौत हो गई."
जीतेंद्र पिछले चार सालों से मिर्गी से पीड़ित था और उसका आयुर्वेदिक तरीक़े से इलाज चल रहा था लेकिन जीतेंद्र के परिवार के मुताबिक उसने कोई गोली नहीं खाई.
जीतेंद्र के घर के बाहर जब एक सवर्ण मोटरसाइकिल सवार ने जीतेंद्र की मौत के कारणों पर सवाल उठाए तो साथ खड़ा एक दलित युवक आगबबूला हो गया और तेज़ आवाज़ में उसकी बात को गलत बताने लगा.
सोशल मीडिया पर भी बहस ज़ोरों पर है जहां कई सवर्ण जीतेंद्र की मौत को जातिगत हिंसा मानने को तैयार नहीं.
जीतेंद्र की मौत की मेडिकल जांच रिपोर्ट में क्या कारण दिए गए हैं, ये साफ़ नहीं.
देहरादून पुलिस हेडक्वार्टर में एक सवर्ण व्यक्ति ने जैसे ताना देने के अंदाज़ में कहा - "तो दलित का मुद्दा अंतरराष्ट्रीय हो गया है?"
'ये साज़िश है'
जीतेंद्र की मौत मामले में अभियुक्त उसके गांव के पास के भटवाणी गांव में एक परिवार से थे.
अभियुक्तों के घर पर हमें प्रियंका मिलीं जिनकी गोद में उनका एक महीने का बेटा सो रहा था.
उनके पिता, चार चाचा और दो भाई मामले में अभियुक्त हैं और पुलिस हिरासत में हैं.
प्रियंका शादी में नहीं गई थीं और वो आरोपों को 'साज़िश' बताती हैं.
वो कहती हैं, "मेरे पापा ने मुझे यही बताया कि उन पर झूठा इल्ज़ाम डाला (गया)... हमने (उनसे) पूछा तो उन्होंने कहा, न हमने कुछ कहा, न कुछ देखा... अगर (वो) जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करते तो उनकी शादी में क्यों जाते?.. अगर (इतने) सारे लोग एक आदमी को मारते तो (वो) वहीं मर जाता."
प्रियंका से बातचीत के दौरान हमें कई सवर्णों ने घेर लिया. वो ज़ोर देकर कह रहे थे कि वो जातिगत आधार पर कोई भेदभाव नहीं करते. 41 परिवारों के इस गांव में 11-12 दलित परिवार हैं.
एक ने ऊंची आवाज़ में एक दलित की ओर इशारा करके कहा, "पूछिए उनसे कि हम उनसे कोई भेदभाव करते हैं."
इससे पहले मैं कुछ समझ पाता वो दलित व्यक्ति मुड़कर वहां से चला गया.
सामाजिक दबाव?
कमाई के एकमात्र स्रोत जीतेंद्र के जाने के बाद मां, बेटी और छोटे भाई के लिए उच्च जाति के प्रभुत्व वाले इस समाज में चुनौतियां कम नहीं.
जब हम जीतेंद्र के घर पर थे तो सांत्वना देने वालों में शूटर जसपाल राणा के पिता और आरएसएस से जुड़ी संस्था क्रीड़ा भारती से संबद्ध नारायण सिंह राणा भी वहां पहुंचे थे. वो लखनऊ से अपने 'समधी' राजनाथ सिंह के चुनाव प्रचार से लौटे थे.
जीतेंद्र की मां गीता देवी नारायण सिंह राणा के घर झाड़ू-बर्तन करती थीं.
पूर्व एमएलसी और मंत्री नारायण राणा जीतेंद्र के घर चावल का एक बोरा लेकर पहुंचे थे.
उन्होंने जीतेंद्र की मौत को 'दर्दनाक और पीड़ादायक' बताया लेकिन साथ में कहा, "एक घटना घट गई, जानबूझकर तो किसी ने नहीं किया... ये दारू नहीं होती तो ये घटना नहीं होती… घटना घट गई छोटी सी और उसका बड़ा इशु हो गया."
आप इसे छोटी से घटना समझते हैं, मैंने उनसे पूछा. इस पर नारायण राणा बोले, "ये छोटी सी घटना नहीं, बहुत बड़ी घटना है."
जीतेंद्र की मां गीता देवी के मुताबिक जीतेंद्र की मौत के बाद उनसे मिलने कुछ लोग आए थे.
वो कहती हैं, "(वो लोग हमें) डराने की कोशिश कर रहे हैं. राज़ीनामा कर लो. तुम्हारा कसूर है. (उन्होंने मेरे बेटे को) मारा, बहुत बुरी तरह मारा. (वो) खाना (भी) नहीं खा पा रहा था... (हमारे) आगे पीछे कोई नहीं है. (हम) परेशान हैं."
सुदूर गांव में राज़ीनामे के लिए दबाव नई बात नहीं. उधर पुलिस परिवार में डर और दबाव से इनकार करती है.
नारायण राणा कहते हैं, "इनको अभी समाज में रहना है. हमें इनका बचाव करना है. हमें इनकी सुरक्षा करनी है... अभी इनका भरण पोषण करना है."
शायद समाज का यही ताना-बाना ज़िम्मेदार है, जिस कारण इस गांव और आस-पास के गांव का हर व्यक्ति कह रहा है- उसने कुछ नहीं देखा.
दलितों के ख़िलाफ़ अत्याचार का इतिहास
उत्तराखंड अनुसूचित जाति आयोग में वरिष्ठ सलाहकार देव सिंह के मुताबिक आयोग को हर साल दलितों के ख़िलाफ़ अत्याचार के करीब 300 मामले मिलते हैं लेकिन असल संख्या कहीं ज़्यादा है.
वो कहते हैं, "गावों में दलितों के सामाजिक तिरस्कार की घटनाएं आम हैं. उच्च जाति के लोग उनकी ज़मीन के पट्टों पर कब्ज़े कर लेते हैं. कई मामले में पुलिस एफ़आईआर दर्ज करने से मना कर देती है."
लेकिन उत्तराखंड में दलितों के ख़िलाफ़ मामलों का इतिहास पुराना है.
साल 1980 में कफ़ल्टा में उच्च जाति के लोगों ने बिरलगांव गांव में 14 दलितों की हत्या कर दी थी.
जब एक बारात कफ़ल्टा गांव से गुज़र रही थी तो कुछ औरतों ने भगवान बद्रीनाथ का मान रखने के लिए दूल्हे को डोली से उतरने को कहा था. दलितों ने कहा कि दूल्हा मंदिर के सामने उतरेगा न की गांव के किसी और छोर पर.
कुछ महीने पहले उत्तराखंड पुलिस के जवान की बारात को मंदिर में घुसने नहीं दिया गया.
उसी बारात में मौजूद दलित कार्यकर्ता दौलत कुंवर बताते हैं, उस गांव में दलितों की सख्या कम है.... मैंने गांव के उच्च जाति के व्यक्ति के लोगों से कहा, ये पुलिस वाला है, भेंट चढ़ाना चाहता है. आप इसे भेंट चढ़ाने दीजिए, तो उन्होंने मुझसे कहा, तुम ज़्यादा नेतागिरी मत करो. भेंट चढ़ानी है तो दरवाज़े के बाहर फाटक पर रख दो."
साल 2016 में जब दौलत कुंवर पूर्व सांसद तरुण विजय के साथ राज्य के चकराता क्षेत्र के पुनाह देवता के मंदिर गए थे तो उन पर पथराव हुआ था जिसमें दोनों को चोटें लगी थीं.
बागेश्वर में जब एक दलित व्यक्ति ने आटे की चक्की को 'दूषित' किया तो उसका सिर कलम कर दिया गया.
राज्य के एक कॉलेज में जब एक दलित भोजन माता को नियुक्त किया गया तो उसे हटाने के लिए प्रदर्शन हुए थे.
दलित कार्यकर्ता दौलत कुंवर बताते हैं, "दलित भोजन माता सिर्फ़ लकड़ी छूती थी. वो लकड़ी लेकर रसोई के बाहर रख देती थी. बस. लेकिन किसी भी बच्चे ने तीन दिन तक स्कूल में खाना नहीं खाया."
दलित कार्यकर्ता बताते हैं राज्य के जौनसार क्षेत्र में क़ानूनी हस्तक्षेप के बावजूद अभी भी ऐसे मंदिर हैं जहां दलित नहीं जा सकते.