काश! जाग जाती सरकार तो फिर से न बहता 'उत्तराखंड'
2013
का
वो
सैलाब
जो
उत्तराखंड
को
खंड
खंड
कर
गया,
हजारों
लोगों
को
लाशों
में
तब्दील
कर
गया
उसे
भूल
पाना
संभव
नहीं
है।
कुछ
जमीन
के
नीचे
बाढ़
के
चलते
खुद
ब
खुद
दफन
हो
गए
तो
कुछ
को
बाढ़
न
जाने
कहां
बहा
ले
गई
आज
तक
पता
नहीं
चल
पाया।
लेकिन उस भयानक मंजर को देखकर कयास लगाई जा रही थी कि कम से कम अब तो सरकारें सबक लेकर जमीनी तौर पर सुधार करेगी ताकि फिर से ये स्थितियां उत्तपन्न न हो। पर, सरकारों ने उस घटना से क्या सबक लिया वो इस बार फिर से तैयार हो रही स्थितियों से साफ तौर पर पता चलता है। हालांकि इसे उत्तराखंड का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यहां मॉनसून तबाही को साथ लेकर आता है। कहने का मतलब ये है कि मॉनसून की पहली दस्तक लोगों के जहन में डर भर देती है।
तबाही और सिर्फ तबाही!
नंदप्रयाग हो या फिर दशोली, पिथौरागढ़ के डीडीहाट, चमोली जिले के घाट लगभग सभी जगहों से प्राप्त हो रही खबरों के मुताबिक लोग त्राहिमाम्-त्राहिमाम् कर रहे हैं। तबाही उन्हें अपनों से बिछुड़ जाने का भय दिखा रही है। प्रभावित इलाकों में करीबन सैकड़ों मवेशियों के मारे जाने की खबर है। पर इन खबरों के साथ लोगों के जहन में सवाल हैं।
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जी हां सवाल सरकार की नीयत पर, नजरंदाजगी पर, नीति पर उठ रहा है। क्योंकि पहले हो चुकी बर्बादी से किसी भी आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता था। फिर भी कोई सुधार नहीं किए गए। मॉनसून के औसतन ज्यादा रहने की सूचना ने जहां देश के कई क्षेत्रों में लोगों को राहत की सांस दी, वहीं उत्तराखंड के मद्देनजर लोगों के चेहरे में चिंता की रेखाएं बढ़ गईं।
लुटता रहा खजाना लेकिन व्यवस्थाओं को महरूम रहा उत्तराखंड
साल 2013 के उस भयानक जलजले से सरकारों ने कोई खास सीख नहीं ली, हालांकि उस वक्त 263 क्षेत्रों को जो कि अति संवेदनशील थे उन्हें चिन्हित किया गया। राजनीतिक अस्थिरता की वजह से तमाम निर्णय गफलत में फंसकर दम तोड़ते रहे हैं। सहायता राशि हवा हो गई और जिसकी लूट से उत्तराखंड शर्मसार हुआ। बीते कुछ महीनों पहले सीएम हरीश रावत को सरकार बचाए रखने की चिंता जरूर थी लेकिन उत्तराखंड में आने वाले संकट की नहीं। जिसका परिणाम हम सभी के सामने है।
ये हैं खामियां!
आपको बताते चलें कि यह वही राज्य है जहां 52 किलोमीटर की झील टिहरी बांध के नाम पर इसके माथे टिका दी गई। मॉनसून विज्ञान के मुताबिक कहें या फिर वैज्ञानिकों के द्वारा दिए जा रहे तथ्यों के मुताबिक बहते पानी के बजाए स्थिर पानी से ज्यादा वाष्पोत्सर्जन होता है। जो बादल बनने और फटने की बड़ी वजह हो सकती है।
इन सबके इतर दूसरी बड़ी खामी है आपदा नीतियों का लचर होना। राज्य आपदा प्रबंधन विभाग खस्ताहाल हो चुका है। इसमें दोषी प्रबंधन विभाग से कहीं ज्यादा सरकारे हैं। क्योंकि सरकारों द्वारा इन विभागों में पसरी हुई अव्यवस्थाओं पर शायद ही कभी निगहबानी की जाती हो। जबकि आपदा के वक्त त्वरित रूप से इनके हरकत में आ जाने की उम्मीद लगाई जाती है। भूमि व्यापार का धंधा अवैध रूप से धड़ल्ले से संचालित हो रहा है। सुरक्षामानकों को खुलेआम ठेंगा दिखाया जा रहा है। पर कार्यवाही के नाम पर निल बटे सन्नाटा।
पहाड़ों का टूटना यानि प्रलय का आगाज
विशेषज्ञों की मानें तो उत्तराखंड को सबसे ज्यादा नुकसान जल विद्युत परियोजनाओं ने पहुंचाया है। एक बांध के लिए 5 से 25 किलोमीटर लंबी सुरंगें बनाने लिए विस्फोटों का सहारा लिया गया। यह विस्फोट भूस्खलन के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार है। विशेषज्ञों ने बताया कि बांधों के निर्माण के लिए पहाड़ों पर किए जा रहे बेतहाशा डायनामाइट विस्फोटों से जर्जर हो चुके पहाड़ों की भीतरी जलधाराएं रिसने लगी है। इससे पेड़ों को मिलने वाली नमी कम हो गई है। जिससे पहाड़ों की हरियाली घट रही है। जिस पर लगाम कसनी जरूरी है।
जनविहीन न हो जाए उत्तराखंड!
करीबन हर वक्त बाढ़ की तबाही के डर से जूझने वाले उत्तराखंड में कुछ और निर्णयों की हिमायत लोगों को पलायन पर मजबूर कर सकती है। लखवाड़, कसाउ व पंचेश्वर जैसे बड़े बांधों की वकालत लोगों को चेहरे पर भय की सिलवटें पैदा कर रही है। उम्मीद है कि सरकार तमाम बातों का ध्यान रखते हुए इन निर्णयों पर विचार करे ताकि जनविहीन न हो जाए उत्तराखंड..क्योंकि लोग अभी तक अपनों को खोने के दर्द से उबर नहीं पाए हैं। जबकि यह पूरी तबाही खुद ब खुद स्वरचित है..प्रकृति से खिलवाड़ के जरिए।