उर्मिला मातोंडकर पहली नहीं है, कई धाकड़ सेलेब्रिटीज छोड़ चुके हैं सियासी रण
बेंगलुरू। सियासी जमीन से महज 5 महीने में ही फारिक हुईं फिल्म अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर भले ही अंदरूनी कलह को कांग्रेस छोड़ने की वजह बता रही हैं, लेकिन यह बात उर्मिला मातोंडकर भी अच्छी तरह से जानती हैं कि राजनीति से तौबा करने की वजह उनकी निजी है। सिने पर्दे के रुपहले पर्दे से उतर कर जमीन पर लोगों के लिए काम करने में जमीन-आसमान का अंतर होता है और जैसे ही यह एहसास उर्मिला का हुआ राजनीतिक पारी को अलविदा कहने में उन्होंने देर नहीं की।
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हालांकि ऐसे कई उदाहरण अभी भी इंड्स्ट्री में मौजूद हैं तो राजनीति में मिस फिट हो चुके हैं, यह अलग बात है कि वो अभी भी सियासी सीढ़ियों पर पैर जमाकर बैठे हैं। सदी के महानायक अमिताभ बच्चन आज भी राजनीति में उतरने को अपनी सबसे बड़ी भूलों में से एक मानते है। वहीं, फिल्म शोले में उनके जोड़ीदार वीरू यानी धर्मेंद्र मिस फिट होते हुए भी राजनीतिक को कभी अलविदा नहीं कह सके।
अभिनेता से नेता बने बहुत कम ही लोग राजनीतिक में लंबे समय तक सियासी पारी खेल सके। बॉलीवुड के कुछ नामचीन चेहरे हैं, जिन्होंने राजनीति, निजी और पेशेवर जिंदगी में सांमजस्य बिठाकर सियासी सड़क पर लंबी पारी खेल पाए। इनमें सबसे पहला नाम कांग्रेस पार्टी से जुड़े सुनील दत्त साहब का आता है। सुनील दत्त वर्ष 1984 में कांग्रेस पार्टी के टिकट पर मुम्बई उत्तर पश्चिम लोक सभा सीट से चुनाव जीता और वहां के सांसद बने। इतना ही नहीं, सुनील दत्त साहब उत्तर पश्चिम मुंबई लोकसभा सीट से लगातार पांच बार चुने गए और उनकी मृत्यु के बाद उनकी बेटी प्रिया दत्त को भी लोगों ने चुनकर लोकसभा में भेजा।
हालांकि लंबी राजनीतिक पारी खेलने वालों में अगला नाम दिवंगत विनोद खन्ना का भी लिया जा सकता है, जिन्होंने पंजाब के गुरदासपुर लोकसभा सीट से वर्ष 1997 और 1999 में दो बार सांसद चुने गए थे। सियासत की जमीन पर विनोद खन्ना की पकड़ ही थे कि उन्हें बीजेपी की अटल बिहारी सरकार में पहले संस्कृति और पर्यटन के केन्द्रीय मंत्री बनाया गया और उसके छह बाद उन्हें अति महत्वपूर्ण विदेश मामलों के मंत्रालय में राज्य मंत्री बना दिया गया। बीजेपी में अभी कई सिने अभिनेता और अभिनेत्री सियासी पारी में हैं। इनमें हेमामालिनी, सनी देओल जैसे सांसद शामिल हैं, जो उनकी सियासी पारी को पार्ट टाइम ही कहना मुनासिब होगा।
गौरतलब है 2019 लोकसभा चुनाव में कई सिने स्टार चुनकर आए हैं, इनमें सनी देओल, रवि किशन और नुसरत जहां का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है, जिन्हें पार्ट टाइमर कहा जाए तो बुरा नहीं कहा जा सकता है। सनी देओल जहां बेटे को लांच करने में जुटे हैं वहीं भोजपुरी सिनेमा के सुपरस्टार रविकिशन भी फिल्मी पारी में व्यस्त हैं। वहीं, शादी और हनीमून के बाद नुसरत जहां ने अभी हाल ही में नई फिल्म साइन करने की घोषणा कर चुकी है।
कहने का अर्थ यह है कि राजनीति में क्राउड पुलिंग और कैंपेनिंग के लिए फिल्मी सितारों का इस्तेमाल हमेशा होता आया है, लेकिन सियासी जमीन पर उतरे अधिक सितारे फिसलते ही नजर आए हैं। हालांकि साउथ की राजनीति में यह बात सटीक नहीं बैठती है, जहां अभिनेता से नेता बने फिल्मी सितारे सत्ता के शिखर पर तक पहुंचने में कामयाबी हासिल की।
राजनीति की जमीन पर फिसलकर बाहर हुए नेताओं में कई ऐसे नाम शुमार है, जिनकी राजनीतिक पारी लंबी जरूर रही थी पर वास्तविकता की जमीन पर खरी नहीं उतर सकी। इनमें सबसे पहला नाम बीकानेर से बीजेपी सांसद चुने गए धर्मेंद्र का लिया जा सकता है, जिन्हें बीकानेर का लापता सांसद तक पुकारा गया। मीडिया में अभिनेता धर्मेद्र की संसद में उपस्थिति को लेकर चर्चा भी खूब होती थी।
मथुरा से सांसद चुनी गई धर्मेंद्र की पत्नी और अभिनेत्री हेमामालिनी भी सियासत और पेश में सामंजस्य नहीं बिठा पाईं, जिससे चलते मथुरा में लापता सांसद के पोस्टर सुर्खियां बनीं। विरार से कांग्रेस की टिकट पर सांसद बने गोविंदा की राजनीतिक छवि तब खराब हो गई जब रुपहले और वास्तविक जिंदगी सामंजस्य नहीं बिठा पाने पर उन्होंने एक फैन पर हाथ उठा दिया और अंततः उन्हें राजनीतिक को अलविदा कहना पड़ गया।
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अमिताभ बच्चन में राजनीतिक पारी को बताया बड़ी भूल
1984 में अमिताभ बच्चन का इलाहाबाद से हेमवती नंदन बहुगुणा से चुनाव लड़ना उस समय की सबसे बड़ी खबर थी। राजनीति ने ऐसी करवट ली कि बोफोर्स घोटाले में नाम आने के बाद अमिताभ का राजनीति से मोह भंग हो गया और उन्होंने राजनीति छोड़ दी। कभी गांधी परिवार के साथ करीबी संबंध रहे अमिताभ बच्चन की दूरियां भी बढ़ गईं। बाद में अमिताभ बच्चन ने कहा था कि राजनीति में जाना उनकी एक भूल थी और वो दोबारा कभी राजनीति में नहीं लौटेंगे।
राजेश खन्ना को भी नहीं रास आई सियासी राहें
1991 के चुनाव के समय अमिताभ फिल्मों और राजनीति दोनों से दूर हो चुके थे। उस समय राजीव गांधी ने राजेश खन्ना से नई दिल्ली में लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ लड़ने के लिए आग्रह किया। 1991 के चुनाव में राजेश खन्ना आडवाणी से बहुत ही कम अंतर से हारे थे। जब 1992 में उपचुनाव हुआ तो राजेश खन्ना फिर नई दिल्ली से लड़े। राजेश खन्ना ने जल्दी ही राजनीति छोड़ दी और उनकी यह पारी फ्लॉप रही।
धर्मेंद्र को भी सियासी राह लगी उबड़-खाबड़
धर्मेंद्र साल 2004 से 2009 तक बीकानेर से भाजपा से सांसद थे, लेकिन बहुत कम समय धर्मेद्र बीकानेर को दे पाए, जिससे नाराज लोगों ने 'हमारा सांसद गुमशुदा है' के पोस्टर लगाए। धर्मेंद्र ने इसके बाद तय कर लिया को राजनीति छोड़ देंगे। इसके बाद धर्मेंद्र ने राजनीति से किनारा कर लिया।
गोविंदा राजनीतिक पारी में घुसते ही हीरो से विलेन बने
गोविंदा की राजनीतिक पारी भी फ्लॉप साबित हुई। साल 2004 में गोविंदा कांग्रेस की ओर से लोकसभा चुनाव लड़े। उन्होंने बीजेपी के बड़े नेता राम नाईक को 50 हजार वोटों से हराया था। साल 2008 में गोविंदा ने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया और कहा कि वो कभी राजनीति में नहीं लौटेंगे। गोविंदा की राजनीतिक पारी बड़ी विवादों में भी रही जब उन्होंने अपने एक फैन को जोरदार तरीके तमाचा जड़ दिया। इससे उनकी राजनीतिक और सामाजिक दोनों छवि धूमिल हुई।
राजनीति में अनफिट साबित हो गए संजय दत्त
पांच बार लगातार कांग्रेस के टिकट जीत दर्ज करने वाले पिता सुनील दत्त के पुत्र और अभिनेता संजय की राजनीतिक पारी शुरू ही नहीं सकी और उसके पहले उनका राजनीति से मोह भंग हो गया। साल 2009 में लोकसभा चुनाव में संजय दत्त लखनऊ से समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनावी मैदान में उतरे लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने संजय दत्त के चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी और जल्द ही संजय दत्त ने राजनीति को अलविदा कह फिल्मों की ओर लौट गए।
रविकिशन, सनी देओल और नुसरत जहां का भविष्य
2019 लोकसभा चुनाव में जीतकर संसद पहुंचे बीजेपी से सनी देओल और रविकिशन बॉलीवुड में आज भी ज्यादा वक्त देते हैं जबकि टीएमसी से सांसद चुनकर संसद पहुंची नुसरत जहां को उनके सियासी दांव-पेंचों से कम अन्य वजहों से अधिक सुर्खियों में बनी रहती हैं। सनी देओल जहां बेटे करन देओल के करियर बनाने में अधिक बिजी हैं। वहीं रविकिशन आज भी बॉलीवुड और भोजपुरी सिनेमा को अधिक तवज्जों दे रहे हैं। वहीं, टीएमएसी सांसद नुसरत जहां चुनाव जीतने के बाद से शादी, हनीमून से छुट्टी के बाद उन्होंने एक फिल्म साइन करने की घोषणा करके जता दिया है कि राजनीति को कितना वक्त देने जा रही हैं।