न्यायिक समीक्षा भी होगी और निरस्त भी होगा 124वां संविधान संशोधन, जानिए क्यों?
नई दिल्ली। संविधान में 124वां संशोधन। लोकसभा ने दो तिहाई बहुमत से संशोधन बिल को पारित कर दिया है और बहुत मुमकिन है कि राज्यसभा भी इसे पास कर दे। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर भी हो जाएं। तो, कानून बन जाता है। परम्परा और आम धारणा के हिसाब से अदालत को भी इसे बतौर कानून मानकर ही चलना पड़ता है। अगर 9वीं अनुसूची में इस कानून को सरकार डाल दे, तो न्यायिक हस्तक्षेप की गुंजाइश ख़त्म हो जाती है। मगर, क्या वास्तव में ऐसा है? क्या वाकई 124वें संशोधन बिल को अंतिम मान लिया जाए? नहीं, जल्दबाजी न करें। जनवरी 2007 में ही सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाईके सभरवाल की अध्यक्षता वाली 9 सदस्यों की संवैधानिक खंडपीठ ने यह व्यवस्था दी थी, "संसद ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती जो न्यायिक समीक्षा के दायरे में ना हो।"
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संविधान में 124वां संशोधन
अगर आपको याद हो तो हाल में अप्रैल 2016 में उत्तराखण्ड हाईकोर्ट ने राष्ट्रपति के फैसले को भी न्यायिक दायरे में बताया था। उत्तराखण्ड हाईकोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस केएम जोसफ और बीके बिस्ट की पीठ ने उत्तराखण्ड में राष्ट्रपति शासन लागू करने की समीक्षा करते हुए कहा था, "राष्ट्रपति के समक्ष रखे गये तथ्यों के आधार पर किए गये उनके निर्णय की न्यायिक समीक्षा हो सकती है। " खुद अरुण जेटली ने संसद में 124वें संशोधन बिल पर चर्चा के दौरान यह साफ किया है कि पहले आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की कोशिशें अदालत में नहीं ठहरीं क्योंकि उनकी शक्ति का स्रोत संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 थे और उन्हीं आधारों पर अदालत ने उन्हें खारिज कर दिए। मगर, वर्तमान कानून का आधार संविधान संशोधन है। इसका मतलब ये हुआ कि वे न्यायिक समीक्षा की बात से इनकार नहीं कर रहे हैं, बल्कि कह रहे हैं इसमें भी सरकार का नया कानून परीक्षा में खरा उतरेगा।
संसद में अरुण जेटली ने क्या कहा
अब चर्चा करें कि क्या वास्तव में वित्तमंत्री अरुण जेटली सही कह रहे हैं? क्या जो 124वां संशोधन बिल को कानून बन जाने के बाद अदालत गलत नहीं ठहराएगी? यानी अदालत के पास आर्थिक आधार पर आरक्षण को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं होगा? वित्तमंत्री अरुण जेटली ने आर्थिक आधार पर अनारक्षित वर्ग को 10 फीसदी आरक्षण देने की कोशिश को कानूनी और तार्किक रूप से पुख्ता बताया है।
क्या
हैं
जेटली
के
तर्क
पहला
तर्क
:
"वर्तमान
आरक्षण
व्यवस्था
को
नहीं
छेड़ता
है
124वां
संशोधन
बिल।"
दूसरा
तर्क:
"अनारक्षित
वर्ग
के
लिए
50
फीसदी
हिस्सा
सुरक्षित
रखना
वर्तमान
कानून
की
मूल
भावना
है।"
तीसरा
तर्क:
"अनारक्षित
वर्ग
के
हिस्से
से
ही
उन्हें
10
फीसदी
आरक्षण
देने
में
वर्तमान
कानून
का
उल्लंघन
नहीं
होता।"
चौथा
तर्क:
"अनारक्षित
वर्ग
में
हिन्दू,मुस्लिम,सिख,
ईसाई
सभी
शामिल
हैं
यानी
यह
जाति
आधारित
नहीं
है।"
आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ़
मगर ऐसा नहीं है कि अरुण जेटली के ये तर्क अकाट्य हैं। 124वां संशोधन बिल आरक्षण का आधार पलट रहा है। यह शैक्षणिक या सामाजिक रूप से पिछड़े तबकों को आरक्षण के आधार के उलट है। आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था संविधान में कभी रही नहीं। आरक्षण की मूल भावना में आर्थिक आधार नहीं है। ऐसे में सवाल ये है कि आरक्षण के आधार को पलटना क्या संवैधानिक व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ नहीं है?
जाति
आधारित
आरक्षण
पर
जेटली
की
सोच
गलत
वित्तमंत्री
जेटली
कह
रहे
हैं
कि
वर्तमान
आरक्षण
व्यवस्था
जाति
आधारित
है।
यह
सच
नहीं
है।
मंडल
जजमेंट
वर्तमान
आरक्षण
व्यवस्था
को
जाति
आधारित
नहीं
मानता।
वह
इसे
समूह
आधारित
बता
चुका
है।
चूकि
पूरी
जाति
की
पहचान
ही
एक
समूह
के
रूप
में
और
शैक्षिक
व
सामाजिक
रूप
से
पिछड़े
के
तौर
पर
हुई
है
इसलिए
वह
जाति
आरक्षण
की
पात्र
है।
समूह
को
आरक्षण
है
व्यक्ति
को
नहीं
कहने
का
मतलब
ये
है
कि
संविधान
में
समूह
को
आरक्षण
है,
व्यक्ति
को
नहीं।
ऐसे
में
सवाल
ये
उठता
है
कि
आर्थिक
आधार
पर
10
फीसदी
आरक्षण
के
लिए
जिस
समूह
को
चुना
जाने
वाला
है
क्या
वह
वास्तव
में
‘समूह'
है?
संशोधन बिल में आर्थिक आधार तय करने के मानक हैं व्यक्तिगत
आर्थिक आधार को तय करने के लिए जो मानक बनाए गये हैं कि व्यक्ति की आमदनी की सीमा 8 लाख रुपये वार्षिक से कम हो या उसके पास 1000 वर्गफीट से कम का मकान हो या निश्चित सीमा से ज्यादा ज़मीन नहीं हो, ये सभी आधार एक व्यक्ति के लिए हैं। हर व्यक्ति के लिए यह आधार भिन्न-भिन्न होता है। ऐसे में नयी व्यवस्था में आरक्षण के लाभुक समूह नहीं रह जाते, व्यक्ति बन जाते हैं। फिर यह आधार न्यायिक समीक्षा के दौरान टिकेगा, ऐसा दावे के साथ नहीं कहा जा सकता।
नहीं
हो
सकता
है
धार्मिक
आधार
पर
आरक्षण
124वें
संविधान
संशोधन
बिल
को
इस
रूप
में
भी
देखा
जा
सकता
है
कि
इसमें
सभी
धर्म
के
लोगों
को
आरक्षण
का
प्रावधान
है।
जबकि,
धार्मिक
आधार
पर
आरक्षण
संविधान
में
मना
ही
है।
नयी
व्यवस्था
में
‘सभी
लोग
शामिल'
का
तर्क
भी
गलत
124वें
संविधान
संशोधन
बिल
में
आरक्षित
वर्ग
शामिल
नहीं
है।
इसलिए
‘सभी
लोग
शामिल'
का
तर्क
भी
गले
नहीं
उतरता।
अनारक्षित
वर्ग
को
‘सभी
लोग'नहीं
बोल
सकते।
सरकार
ने
अपने
बचाव
में
सभी
धर्मों
को
जरूर
शामिल
किया
है,
लेकिन
इस
कोशिश
में
वे
जातियां
छूट
गयी
हैं
जिन्हें
आरक्षण
का
लाभ
तो
मिल
रहा
है
लेकिन
इन
जातियों
में
आर्थिक
रूप
से
पिछड़े
लोगों
की
तादाद
बहुत
ज्यादा
है
जिन्हें
आरक्षण
नहीं
मिल
पा
रहा
है।
वर्तमान आरक्षण व्यवस्था को नहीं छेड़ने के तर्क पर सवाल
अरुण जेटली का यह तर्क भी हजम नहीं होता कि वे वर्तमान आरक्षण व्यवस्था को छेड़े बगैर अनारक्षित वर्ग को आरक्षण देने जा रहे हैं। आरक्षण की सीमा जब 50 फीसदी से ऊपर चली जाती है तो ओबीसी की तरफ से भी सवाल उठते हैं जिन्हें वर्तमान में 27 फीसदी आरक्षण मिल रहा है। उनका कहना है कि यह सीमा ही उसे आबादी के हिसाब से आरक्षण देने के मार्ग में बाधा रही है। जब एससी और एसटी को उनकी आबादी के हिसाब से आरक्षण मिला हुआ है तो उन्हें भी 54 फीसदी आबादी के हिसाब से 54 फीसदी आरक्षण मिलना चाहिए।
न्यायिक
समीक्षा
को
रोका
नहीं
जा
सकता
अरुण
जेटली
चाहे
जितने
दावे
कर
लें
लेकिन
यह
बात
साफ
है
कि
124वें
संविधान
संशोधन
की
न्यायिक
समीक्षा
को
वे
रोक
नहीं
सकते।
न
ही
इस
समीक्षा
में
आरक्षण
के
आधार
को
बदलने
की
कोशिश
रद्द
करने
की
सम्भावना
से
वे
इनकार
कर
सकते
हैं।
बीजेपी
के
लिए
अरुण
जेटली
ने
बड़ा
काम
जरूर
किया
है।
जनमानस
में
बहस
की
गुंजाइश
बनी
रहेगी।
चुनाव
के
दौरान
बीजेपी
आर्थिक
आधार
पर
आरक्षण
के
आधार
पर
अपने
वोट
बैंक
को
आकर्षित
करती
रहेगी।
राजनीतिक
रूप
से
बीजेपी
ने
इस
मामले
में
विपक्ष
को
ऐसे
भी
निहत्था
कर
दिया
है
क्योंकि
वे
पार्टियां
भी
उनका
समर्थन
करने
को
मजबूर
हैं।
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