यौन उत्पीड़न पर महिला पत्रकारों की बेख़ौफ़ आवाज़ें
'द न्यूज़ मिनट' वेबसाइट की संपादक, धन्या राजेंद्रन ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि पिछले सालों में महिला पत्रकार आपस में ही ऐसे अनुभव बांटती रही हैं और सोशल मीडिया पर शुरू हुई इस चर्चा के बाद भी कई हैं जो अपनी बात सार्वजनिक तौर पर कहने की हिम्मत नहीं महसूस कर रहीं.
उन्होंने कहा, "अब ये बातें बाहर आई हैं और संस्थानों को समझ में आया है कि ऐसा बर्ताव ग़लत है और इसके लिए कुछ करना होगा, ये सिर्फ़ शुरुआत है, औरतों के लिए बेहतर माहौल बनाने की ओर पहला क़दम."
"अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न के बारे में खुलकर बोलने में कोई शर्म नहीं है, बल्कि मुझे लगा कि बोलने से जो शर्म और गिल्ट - कि क्या ये मेरी ग़लती से तो नहीं हुआ था - जिसे मैं अपने अंदर महसूस करती रही थी उससे निकल पाऊंगी और जिसे शर्मिंदा होना चाहिए उसे समाज की नज़र में ला पाऊंगी."
'द वायर' समाचार वेबसाइट में रिपोर्टर अनु भुयान उन औरतों में से हैं जिन्होंने सोशल मीडिया पर अपने यौन उत्पीड़न के अनुभव लिखने शुरू कर दिए हैं.
यौन उत्पीड़न, यानी किसी के मना करने के बावजूद उसे छूना, छूने की कोशिश करना, यौन संबंध बनाने की मांग करना, सेक्सुअल भाषा वाली टिप्पणी करना, पोर्नोग्राफ़ी दिखाना या कहे-अनकहे तरीके से बिना सहमति का सेक्सुअल बर्ताव करना.
ये भारत में कितना आम हो चुका है, कितनी औरतों के साथ निजी स्तर पर या काम की जगहों पर हो रहा है, और इस पर कितनी चुप्पी है, ये सब शुक्रवार को सोशल मीडिया में #MeToo के साथ आई टवीट्स की बाढ़ में दिखा.
अभिनेत्री तनुश्री दत्ता के नाना पाटेकर पर आरोप लगाने और कई औरतों के कॉमिक आर्टिस्ट उत्सव चक्रवर्ती द्वारा यौन उत्पीड़न पर बोलने के बाद, ऐसी कई और आवाज़ें सोशल मीडिया पर बुलंद होने लगीं.
पत्रकारिता जगत से उठी आवाज़ें
इनमें से ज़्यादातर आवाज़ें पत्रकारिता जगत से उठीं. कई औरतों ने मर्दों के नाम लेकर लिखा तो कई ने बिना नाम लिए.
कुछ वाक़ये काम की जगहों पर बिना सहमति से किए सेक्सुअल बर्ताव के बारे में था, कई यौन संबंध बनाने की मांग के बारे में, और कई पोर्नोग्राफ़ी दिखाने के बारे में.
कई में साथ काम करने वाले मर्दों या बॉस के ग़लत बर्ताव का उल्लेख था.
इनमें, एक तरह का गुस्सा भी दिखा, झुंझलाहट भी दिखी और अपनी बात कहने का बेख़ौफ़ अंदाज़ भी नज़र आया.
अनु ने बिसनेस स्टैंडर्ड अख़बार के पत्रकार मयंक जैन का नाम लेकर अपने ट्वीट में लिखा कि उन्होंने उनसे सेक्स करने की मांग की थी क्योंकि उन्हें लगा कि अनु 'वैसे टाइप की लड़की हैं', जिस वजह से अनु ये सोचती रहीं कि क्या वो सचमुच वैसी हैं.
अनु के ऐसा लिखने के बाद 'फ़ेमिनिज़मइनइंडिया' नाम की वेबसाइट चलानेवाली जपलीन पसरीचा समेत कई और औरतों ने जैन के ख़िलाफ़ पिछले कुछ सालों में ऐसे बर्ताव के कई आरोप लगाए.
बीबीसी ने जब इन आरोपों के बारे में बिसनेस स्टैंडर्ड से प्रतिक्रिया मांगी तो उन्होंने कहा कि 'जब हमें इस मसले पर कुछ कहना होगा, हम तभी कहेंगे.'
दफ़्तर में उत्पीड़न
जपलीन पसरीचा ने बीबीसी से बातचीत में बताया कि उन्होंने अपने अनुभव को ट्वीट करने का फ़ैसला किया क्योंकि उन्हें लगा कि इस मुद्दे पर बोल रही दूसरी औरतों के साथ खड़ा होना ज़रूरी है.
वो बोलीं, "मैं दो सालों से ख़ुद को समझाती रही थी कि कोई बात नहीं ये एक वाक़या था, पर जब सबने बताना शुरू किया तो पता चला कि ऐसा कितनी ही औरतों के साथ हुआ है, और #MeToo इसी चुप्पी को तोड़ने और यह सामने लाने के लिए है."
अमरीका, जहां क़रीब एक साल पहले #MeToo मुहिम की शुरुआत हुई थी, वहां सुप्रीम कोर्ट में जज बनाए जाने की दौड़ में शामिल ब्रेट कैवनौ पर यौन हिंसा के आरोप लगे हैं और जर्मनी में फ़ुटबॉल खिलाड़ी क्रिस्टियानो रोनाल्डो पर बलात्कार के.
लेकिन इस साल के दौरान कुछ एक आवाज़ों के अलावा भारत में यौन उत्पीड़न पर अजीब सी ख़ामोशी रही थी. और ये तब है जब भारत में इस अपराध के ख़िलाफ़ क़ानून लाए गए हैं.
2012 में ज्योति सिंह के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के बाद यौन हिंसा के ख़िलाफ़ बनाए क़ानून को और व्यापक किया गया और उसमें यौन उत्पीड़न के लिए तीन साल की जेल की सज़ा और जुर्माने का दंड शामिल किया गया.
काम की जगह पर यौन उत्पीड़न के लिए 1997 में बनाए गए दिशा निर्देश को 2013 में क़ानून की शक्ल दी गई जिसके तहत संस्थानों को अपने यहां शिकायत समितियां बनाने के लिए बाध्य किया गया.
क़ानून के तहत यौन उत्पीड़न की शिकायत किए जाने पर संस्था की ज़िम्मेदारी है कि वो एक शिकायत कमेटी का गठन करे जिसकी अध्यक्षता एक महिला करे, उसकी आधी से ज़्यादा सदस्य महिलाएं हों और उसमें यौन शोषण के मुद्दे पर काम कर रही किसी बाहरी ग़ैर-सरकारी संस्था की एक प्रतिनिधि भी शामिल हो.
ऐसी कई कमेटीज़ में बाहरी प्रतिनिधि के तौर पर रहीं फ़ेमिनिस्ट लक्ष्मी मूर्ति के मुताबिक ये क़ानून बहुत अहम है क्योंकि ये औरतों को अपने काम की जगह पर बने रहते हुए अपराधी को कुछ सज़ा दिलाने का उपाय देता है.
यानी ये जेल और पुलिस के कड़े रास्ते से अलग न्याय के लिए एक बीच का रास्ता खोलता है.
'सज़ा की पुरानी परिभाषा बदल रही है'
लेकिन सोशल मीडिया पर लिख रहीं पत्रकार कहती हैं कि समितियों का रास्ता हमेशा कारगर नहीं रहता है.
संध्या मेनन ने दस साल पहले टाइम्स ऑफ़ इंडिया अख़बार के केआर श्रीनीवास की ओर से अपने कथित उत्पीड़न के बारे में लिखा और आरोप लगाया कि समिति को शिकायत करने पर उन्हें सलाह दी गई कि वो, उस पर 'ध्यान' ना दें.
टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने अब आरोपों की जांच की बात कही है पर समिति के बर्ताव पर बीबीसी के सवाल पर अभी अपना जवाब नहीं दिया. उधर पत्रकार केआर श्रीनिवास ने ट्वीट किया कि वे इस जांच में पूरा सहयोग देंगे.
बीबीसी से बातचीत में संध्या ने कहा, "मैंने उस व़क्त बहुत अकेला महसूस किया और कुछ महीने बाद वो नौकरी भी छोड़ दी, लेकिन पिछले सालों में मैंने उस व्यक्ति के ख़िलाफ़ कई ऐसे आरोपों के बारे में सुना और तय किया कि अब मुझे लिखना चाहिए."
सज़ा की पुरानी परिभाषा अब बदल रही है. औरतें एक-दूसरे को हिम्मत देना चाहती हैं और इसी मंशा से बोल रही हैं.
जपलीन के मुताबिक, "इन समितियों से जो न्याय मिलता है उसमें बहुत व़क्त लगता है और पिछली कुछ घटनाओं में हमने देखा है कि संस्थान अक़्सर औरत के प्रति संवेदनशील रवैया नहीं रखते हैं, ऐसे में सार्वजनिक तौर पर किसी व्यक्ति के ग़लत बर्ताव की चेतावनी देना बेहतर रास्ता हो सकता है."
क्या हासिल होगा?
कितने संस्थानों ने ऐसी समितियां बनाई हैं, इस बारे में कोई जानकारी सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं है.
जहां समिति बनाई गई है वहां कई चिंताएं ज़ाहिर की गई हैं. जांच समिति का गठन संस्था की ज़िम्मेदारी है और उसके सदस्य भी वही चुनती है तो ऐसे में संस्था का इस प्रक्रिया पर बड़ा प्रभाव होता है.
हर समिति पक्षपात करे ये कतई ज़रूरी नहीं पर जब शिकायत किसी रसूख़वाले व्यक्ति के ख़िलाफ़ की जाए तो औरत पर दबाव का माहौल बनाने के आरोप लगते रहे हैं.
पर सोशल मीडिया पर अपने साथ हुए ऐसे निजी अनुभव लिखकर भी क्या हासिल होगा?
संध्या के मुताबिक उन्हें उम्मीद है कि इससे संस्थान समझेंगे कि उन्हें अपने यहां काम करनेवाले मर्दों से बेहतर बर्ताव की अपेक्षा करनी होगी और वैसा ना होने पर कड़े कदम उठाने होंगे.
'द न्यूज़ मिनट' वेबसाइट की संपादक, धन्या राजेंद्रन ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि पिछले सालों में महिला पत्रकार आपस में ही ऐसे अनुभव बांटती रही हैं और सोशल मीडिया पर शुरू हुई इस चर्चा के बाद भी कई हैं जो अपनी बात सार्वजनिक तौर पर कहने की हिम्मत नहीं महसूस कर रहीं.
उन्होंने कहा, "अब ये बातें बाहर आई हैं और संस्थानों को समझ में आया है कि ऐसा बर्ताव ग़लत है और इसके लिए कुछ करना होगा, ये सिर्फ़ शुरुआत है, औरतों के लिए बेहतर माहौल बनाने की ओर पहला क़दम."
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