उद्धव ने साबित कर दिया कि वही हैं बालासाहेब ठाकरे के सच्चे वारिस!
बेंगलुरू। कट्टर हिंदू पैरोकारी वाली पार्टी शिवसेना आजकल राजनीतिक बिसात की वजीर बनी हुई है। बालासाहेब ठाकरे के स्वाभाविक वारिस में कभी शुमार नहीं किए गए उद्धव ठाकरे को शिवसेना की कमान मिली तो सभी चौंके थे, लेकिन स्वाभाविक वारिस में नंबर वन चल रहे बालासाहेब के भतीजे राज ठाकरे ने खुद को तब ठगा हुआ महसूस किया और शिवसेना छोड़कर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के नामक एक नई पार्टी बना ली। लोग मानते थे कि राज ठाकरे में बालासाहेब का अक्स दिखता था और उद्धव में बालासाहेब ठाकरे की परछाई भी नहीं है।
वर्ष 2004 में शिवसेना चीफ बनाए गए उद्धव ठाकरे की राजनीतिक सिद्धहस्थता को लेकर विपक्षी दल ही नहीं, शिवसैनिक भी आशंकित थे, क्योंकि राज ठाकरे की तुलना में उद्धव बहुत कम बोलते थे। यही कारण था कि फोटोग्राफी और कला प्रेमी उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना शुरूआत में कुछ खास उभार नहीं हुआ।
राज ठाकरे चाचा बालासाहेब ठाकरे की राजनीतिक क्रिया-कलापों से जहां अधिक प्रेरित थे वहीं, उद्धव ठाकरे राजनीति और रणनीति दोनों के कारीगर हैं, जो न केवल पार्टी की राजनीतिक गतिविधि की रूपरेखा तैयार करते थे बल्कि रणनीतिक कदमों पर बिसात तैयार करते थे।
वर्ष 2006 में राज ठाकरे ने शिवसेना से अलग होकर महाराष्ट्र नवनिर्माण (मनसे) नामक पार्टी बनाई और वर्ष 2009 में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में 288 सीटों पर लड़कर मनसे 13 सीटों पर विजयी भी रही, लेकिन राज ठाकरे को बालासाहेब ठाकरे की राजनीतिक राह अधिक दूर तक नहीं ले जा पाई, लेकिन राजनीतिक और रणनीतिक चालों के समन्वय को समझने वाले उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र में पार्टी की प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए बीजेपी के साथ गठबंधन जारी रखा।
उद्धव ठाकरे ने पिता बालासाहेब ठाकरे की राजनीतिक और रणनीतिक दोनों पैतेरों पर बराबर से ध्यान दिया। यही कारण था कि उद्धव राजनीतिक सीढ़ी में ऊपर चढ़ते रहे जबकि राज ठाकरे सांप-सीढ़ी के खेल में एक बार ऊपर चढ़े तो जरूर, लेकिन बिहार और यूपी जैसे मुद्दों के बनाए अपने ही सपोले ने ही उसे डस लिया। वर्तमान में मनसे की महाराष्ट्र् में जमीन पूरी तरह से खिसक चुकी है जबकि शिवसेना महाराष्ट्र की सत्ता के शीर्ष पर काबिज होने जा रही है।
बाल ठाकरे की जीवनी 'हिंदू हृदय सम्राट- हाऊ द शिवसेना चेंज्ड मुंबई फ़ॉर एवर की लेखिका सुजाता आनंदन के अनुसार शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे कट्टर हिंदूवादी जरूर थे, लेकिन यह उनका राजनीतिक एजेंडा था, लेकिन उनका राजनीतिक एजेंडा उनके रणनीति एजेंडे से बिल्कुल जुदा होता था और जहां जरूरी होता था, वो सुविधानुसार उसमें रणनीतिक परिवर्तन कर लिया करते थे।
राजनीतिक फायदों के लिए बालासाहेब ठाकरे ने जहां दूसरे दलों की मदद भी की और जब जरूरत हुई तो विपक्षी दलों से भी मदद लेने से नहीं कतराए। दिलचस्प बात यह है कि शिवसेना का जानने और समझने का दावा करने वाले राजनीतिक पंडित भी अब तक बालासाहेब ठाकरे को समझने में गच्चा खा चुके हैं।
एक दिलचस्प वाक्या शेयर करते हुए सुजाता आनंदन ने बालासाहेब ठाकरे की जीवनी में लिखती हैं कि वर्ष 2009 में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी दो दशक तक तत्कालीन शिवसेना चीफ बालासाहेब ठाकरे का समर्थन किया था, क्योंकि शुरूआती दिनों में कांग्रेस ने महाराष्ट्र में कम्युनिस्ट आंदोलन को तोड़ने में शिवसेना की मदद ली थी।
यही नहीं, कांग्रेस ने शिवसेना का इस्तेमाल महाराष्ट्र कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाईयों में हिसाब चुकता करने के लिए भी खूब किया। यही कारण था कि उन दिनों मजाक में शिवसेना को महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंतराव नायक और वसंतदादा पाटिल के नामपर वसंत सेना तक कहा गया।
यह महज एक संयोग नहीं था। वर्ष 2007 के राष्ट्रपति चुनाव में शिवसेना बीजेपी के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ रही थी, लेकिन शिवसेना ने बीजेपी से इतर चलकर कांग्रेस उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल का समर्थन किया था। यही नहीं, वर्ष 2012 में भी कांग्रेस के बिना कहे वो राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी के समर्थन में उतर आए थे।
वर्ष 1975 के आपातकाल में भी शिवसेना चीफ कांग्रेस के साथ रही और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का समर्थन करती रही। यही नहीं, वर्ष 1978 में जब जनता सरकार ने इंदिरा गांधी को गिरफ्तार किया तो शिवसेना ने इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी के विरोध में महाराष्ट्र में बंद के आयोजन में जोरशोर से हिस्सा लिया था। मालूम हो कि जनता सरकार में तब की भारतीय जनसंघ और अब की बीजेपी भी शामिल थी।
शिवसेना चीफ बालासाहेब ठाकरे की रणनीतिक और राजनीतिक चालों में भिन्नता का एक और दृष्टांत रखते हुए सुजाता आनंदन बालासाहेब के बॉयोपिक में लिखती है कि भारत में घोषित आपातकाल के दौरान तत्कालीन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शंकरराव चाह्वाण ने शिवसेना बालासाहेब ठाकरे के पास अपने दूत भेजकर कहा कि उनके पास दो विकल्प है। एक, दूसरे विपक्षी नेताओं की तरह गिरफ्तारी के लिए तैयार हो जाएं अथवा दूसरा विकल्प है कि वो अपना बेहतरीन सूट पहनकर दूरदर्श के मुंबई स्टूडियो में पहुंचकर इमरजेंसी का समर्थन करें।
आपको जानकर यकीन नहीं होगा कि मुख्यमंत्री शंकरराव चाह्वाण ने बालासाहेब ठाकरे को फैसला लेने के लिए आधा घंटा दिया था, लेकिन बालासाहेब ठाकरे 15 मिनट के भीतर ही दूरदर्शन स्टूडियो जाने के लिए बाहर आ गए थे। कहने का मतलब यह है कि बालासाहेब राजनीतिक रूप से जितने कठोर थे, वो रणनीतिक रूप से उतने ही लचीले थे। भतीजे राज ठाकरे को चाचा बालासाहेब का राजनीतिक व्यक्तित्व को अंगीकार किया, लेकिन कुशल रणनीतिककार के रूप में नजर आ रहे उद्धव ठाकरे में पिता बालासाहेब के राजनीतिक और रणनीतिक दोनों व्यक्तित्वों का समावेश था।
शिवसेना चीफ के तौर पर उद्धव ठाकरे की अब तक राजनीतिक यात्रा बालासाहेब ठाकरे की परछाई ही दर्शाती है। एक तरफ शिवसेना चीफ उद्धव ठाकरे राजनीतिक फायदे के लिए हिंदू, हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुद्दे को लेकर कट्टर दिखते हैं, तो महाराष्ट्र की सत्ता के लिए एक कुशल रणनीतिकार की भूमिका अदा करते हुए बीजेपी को सत्ता से दूर रखने में कामयाब हो रहे हैं, जिसके साथ शिवसेना पिछले 30 वर्षों से गठबंधन करके चुनाव लड़ती आई है।
तीन बार सत्ता का स्वाद भी चख चुकी है। माना जा रहा है कि शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे पिता बालासाहेब ठाकरे के पद चिन्हों पर चलते हुए एनसीपी के साथ महाराष्ट्र में आसानी से सरकार बनाएगी, जिसे कांग्रेस बीजेपी को महाराष्ट्र की सत्ता से दूर रखने के लिए बाहर से समर्थन हासिल होगा।
शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे की रणनीतिक कुशलता की बानगी मिलती है लोकसभा चुनाव 2019 के बाद उद्धव ठाकरे के पुत्र आदित्य ठाकरे का ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के दरगाह का दौरा और वहां जाकर चादर चढ़ाना, जो यह बतलाता है कि शिवसेना भले ही राजनीति हिंदू, हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुद्दे की करती है, लेकिन राजनीतिक फायदों के लिए रणनीत में बदलाव करने से गुरेज नहीं करती है।
आदित्य ठाकरे ने अजमेर स्थित ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के दरगाह का दौरा लोकसभा चुनाव 2019 में शिवसेना के अच्छे प्रदर्शन के बाद किया था। आदित्य ठाकरे ने 8 जून, 2019 को अजमेर का दौरा मुंबई से सटे लोनावाला में अपनी कुलदेवी एकवीरा देवी और अंबाबाई के दर्शन करने के बाद किया था,
निः संदेह शिवसेना की राजनीतिक विरासत संभालने के लिए तैयार आदित्य ठाकरे का अजमेर शरीफ दरगाह का दौरा ऐतिहासिक था, जो शिवसेना के कट्टर हिंदुवादी राजनीति की लिबरल रणनीतिक चाल है। महाराष्ट्र के भावी मुख्यमंत्री में शुमार हो चुके आदित्य ठाकरे फिलहाल राजनीति में उतर चुके है।
महाराष्ट्र की सत्ता पर भविष्य में काबिज होने के लिए शिवसेना को उसकी कट्टर हिंदूवादी छवि से निकालने के लिए कुशल रणनीतिकार उद्धव ठाकरे आदित्य ठाकरे की उदार छवि गढ़ रहे हैं, यह अलग बात है कि शिवसेना को अपनी सोच के अनुरूप सफलता महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2019 में नहीं मिली।
गौरतलब है महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना अभी तक अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति तक नहीं पहुंच पाई है। 19 जून, 1966 को शिवसेना की स्थापना दिवंगत बालासाहेब ठाकरे ने की थी। एक कट्टर हिन्दू राष्ट्रवादी दल के रूप में पहचान रखने वाली शिवसेना की राजनीति महाराष्ट्र तक सीमित है, जिसके पीछे पार्टी की राजनीतिक विचारधारा को माना जाता है।
माना जा रहा है बालासाहेब ठाकरे के पोते आदित्य ठाकरे पार्टी की इसी छवि से छुटकारा दिलाने के लिए लोकसभा चुनाव 2019 में अजमेर शरीफ दरगाह का दौरा किया था ताकि उन वोटरों का समर्थन हासिल कर सकें जो शिवसेना को उसकी कट्टर हिंदूवादी छवि के चलते वोट नहीं देते आए हैं।
हालांकि हिन्दू हृदय सम्राट कहे जाने वाले बालासाहेब ठाकरे ने शिवसेना पार्टी का गठन एक कट्टर हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन के रूप में की थी, जिसे शुरूआती सफलता नहीं मिली, लेकिन जल्द ही शिवसेना सत्ता की सीढ़ियों पर पहुंच गई। महाराष्ट्र नगर निगम में पिछले कई दशक से विराजमान रही शिवसेना ने वर्ष 1995 में पहली बार भाजपा के साथ मिलकर महाराष्ट्र में सरकार बनाने में सफल हुई है और अब तक बीजेपी के साथ मिलकर महाराष्ट्र में तीन बार सत्ता की शीर्ष पर शिवसेना पहुंच चुकी है। उद्धव ठाकरे के कुशल नेतृत्व में शिवसेना का विस्तार दूसरे प्रदेशों में भी करने की खूब कोशिश हो रही है।
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2019 में एनडीए गठबंधन 161 सीट जीतकर बहुमत के जरूरी आंकड़े पर पहुंचने के बाद शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे बीजेपी से 50-50 फार्मूले के तहत सरकार में शामिल होने की शर्त रखते हैं, लेकिन बीजेपी इसके लिए तैयार नहीं हुई तो आर और पार के मूड में शिवसेना नए समीकरण तलाश लिया है और अब एनसीपी के सहयोग से सत्ता का सुख हासिल कर सकती है।
तय है कि एनसीपी और शिवसेना गठंबधन को कांग्रेस बाहर से समर्थन देने जा रही है। यह सच है कि आदित्य ठाकरे के लिए शिवसेना को उसकी पारंपरिक छवि निकालने में अभी वक्त लग सकता है, लेकिन कांग्रेस-एनसीपी और शिवसेना गठबंधन सरकार अगर सत्ता तक पहुंचती है और आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार चुना जाता है तो एक नए शिवसेना का जन्म अश्वमभावी है।
यह भी पढ़ें- शिवसेना सरकार में आदित्य की जगह उद्धव ठाकरे क्यों बन सकते हैं CM ? ये रही वजह