मैदान में मुझे देखकर लोग हंसते थे, पहले मेडल ने बदल दी जिंदगी, देवेंद्र झझड़िया संघर्ष को याद कर हुए भावुक
मैदान में मुझे देखकर लोग हंसते थे,पहले मेडल ने बदल दी जिंदगी,जैवलिन थ्रोअर देवेंद्र झझड़िया संघर्ष को याद कर हुए भावुक
नई दिल्ली, 17 सितंबर। 40 साल की उम्र, लोग कहने लगे कि अब तुम्हारे बाजुओं में ताकत नहीं है, भाला कैसे फेंक पाओगे। सबकी सुनी, लेकिन मन में प्रण ले चुका था, जब तक जीवित हूं देश के लिए खेलूंगा। पैरालिंपिक मेडल की हैट्रिक लगाने वाले जैवलिन थ्रोअर देवेंद्र झझड़िया को अपना एक हाथ 8 साल की उम्र में गंवाना पड़ा। बिजली का करंट लगने के कारण वो बुरी तरह से घायल हो गए। डॉक्टरों को उनकी जान बचाने के लिए हाथ कांटना पड़ा। अगर किसी आम इंसान के साथ ऐसा होता तो वो सदमे से उबर नहीं पाता, लेकिन देवेंद्र तो खास हैं। शुरुआत में दर्द हुआ, लोगों की निगाहें जब उन्हें लाचारी और सहानुभूति की नजरों से देखती थी तो उन्हें अपने दिव्यांग होने का अहसास और पीड़ा देता था। मां ने हिम्मत बंधाई और उन्हें बाकी बच्चों की तरह खेल के मैदान ले जाना शुरू किया।
देवेंद्र फुटबॉल खेलना चाहते थे, लेकिन पिता ने उन्हें कोई ऐसा खेल चुनने की सलाह दी, जिसमें जीत-हार की पूरी जिम्मेदारी सिर्फ खिलाड़ी की होती है। देवेंद्र ने पिता की सलाह को माना और भाला भेंकने लगे। स्थिति ऐसी नहीं थी कि भाला खरीद सकें, लकड़ी का भाला बनाकर खेतों में, रेत के धौरों में प्रैक्टिस की। एक हाथ से देवेंद्र चारप-पांच घंटे तक भाला फेंकने की प्रैक्टिस करते थे। जब भाला फेंकने की प्रैक्टिस करते तो लोग उन्हें देखकर हंसते, उन्हें घर लौट जाने को कहते। उनके आसपास के लोग उन्हें बेबसी की निगाहों से देखते हुए कहते कि खेल में मैदान में तुम्हारा क्या काम। एक वक्त तो ऐसा भी आया जब लोगों की बातों से देवेंद्र की हिम्मत टूट गई,लेकिन मां फिर से ढ़ाल बनकर खड़ी हुई।
बिना किसी ट्रेनिंग के देवेंद्र अपने आत्मविश्वास को ही अपना गुरु मानकर अभ्यास करते रह। 10वीं क्लास में उन्होंने पहली बार जिला स्तर की एथलीट प्रतियोगिता में हिस्सा लिया और गोल्ड मेडल अपने नाम कर लिया। देवेंद्र ने बताया कि जिला स्तर के के उस एथलेटिक्स टूर्नामेंट में जब मैंने स्वर्ण पदक हासिल किया, उस वक्त जो खुशी मिली, वैसी खुशी आज तक नहीं मिली।
देवेंद्र की कला को उनके कोच आरडी सिंह ने पहचान लिया और उन्हें अपने साथ ले गए। हनुमानगढ़ कस्बे की नेहरू कालेज में कोच के साथ देवेंद्र के ओलंपिक की तैयारी शुरू हो गई। साल 2004 पैरालिंपिक में गोल्ड, 2016 पैरालिंपिक में दूसरा गोल्ड और 2020 के टोक्यो पैरालिंपिक में सिल्वर जीतकर देवेंद्र ने मेडल की हैट्रिक लगा दी। प्रैक्टिस के कारण घर परिवार से लंबे वक्त तक दूर रहने का एक दर्द देवेंद्र झझड़िया के आवाज में सुनाई देता है। देश के लिए खेलने वाले देवेंद्र का लक्ष्य़ अपने जैसे हजारों खिलाड़ी तैयार करने का है। देवेंद्र अपनी इस सफलता का श्रेष्य अपनी पत्नी और परिवार को देते हैं, जो हर वक्त उन्हें खेल के लिए उत्साहित करता है।
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