हज़ारों किसानों के दिल्ली कूच से पहले आधी रात की आंखों देखी
प्रेम लाल कहते हैं कि जो बाजरा उन्हें 1,000 रुपये में बेचने को मजबूर होना पड़ता है, बाद में वही खरीदना होता है तो दोगुने दाम पर मिलता है.
ये पूछने पर कि अब तो सरकार लागत से डेढ गुना क़ीमत किसानों को देने का दावा कर रही है, वो हंसकर कहते हैं, ''सुना तो हमने भी है, मेरे पास तो टीवी नहीं लेकिन पड़ोसियों के यहां सुना भर ही है.''
गुरुवार को सूरज की तपिश जब धीरे-धीरे तेज़ हो रही होगी, देश के कोने-कोने से आए हज़ारों किसान और खेतिहर मज़दूर दिल्ली के रामलीला मैदान में जमा हो रहे होंगे.
बढ़ता क़र्ज, लागत से कम पर फ़सल का बिकना और किसानों के आत्महत्या की ख़बरें गाहे-बगाहे मीडिया में आती रहती हैं.
लेकिन क्या वजह है कि किसानों को अपने हक़ के लिए बार-बार अपनी आवाज़ ऊंची करनी पड़ रही है?
किसानों को दिल्ली और मुंबई कूच करना पड़ रहा है. उस दिल्ली और मुंबई में, जहां के हज़ारों बाशिंदों ने किसी किसान को उसके खेत में हल चलाते या बुआई करते हुए शायद ही कभी देखा हो.
पिछले चंद महीनों में ये तीसरी बार है जब किसानों और खेतिहर मज़दूरों को राजधानी में बैठे हुक्मरानों को जगाने के लिए दिल्ली का रुख़ करना पड़ा है.
200 किसान संगठनों का प्रदर्शन
29 और 30 नवंबर को होने वाले 'किसान मुक्ति मार्च' का आयोजन 'ऑल इंडिया किसान संघर्ष समन्वय समिति'ने किया है, जिसमें 200 से अधिक किसान संगठन शामिल हैं.
इस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए सैकड़ों किसानों का एक जत्था दो दिनों से दिल्ली के बिजवासन में जमा था.
पश्चिम बंगाल से आई संध्या मंडल ने कहा, ''हम जिस इलाक़े से आते हैं, वहां सिंचाई का कोई साधन नहीं है. पंपिंग सेट चलाने के लिए डीज़ल का इस्तेमाल करना पड़ता है, जिसकी क़ीमत दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है.''
लेकिन संध्या मंडल कहती हैं कि उन्हें लागत के हिसाब से फ़सल की सही क़ीमतें नहीं मिल पा रही हैं.
खेती की बढ़ती लागत और किसानों को फसल की लागत से कम दाम मिलना भारत के कृषि-संकट की बड़ी समस्याओं में से एक है.
किसी किसान का पूरे ट्रैक्टर की ट्रॉली भर टमाटर को सड़क पर फेंककर चले जाना शायद एक बड़े वर्ग के लिए तस्वीर भर हो.
लेकिन यही हालात एक किसान को पहले तो क़र्ज़ में ढकेलते हैं और फिर जब यही हालात साल-दर-साल जारी रहते हैं तो उसके पास अपने हाथों अपनी जान लेने के सिवाए शायद कोई चारा नहीं बचता.
- यह भी पढ़ें:- किसानों का 'गाँव बंद' आंदोलन कितना असरदार
20 साल में तीन लाख किसानों की आत्महत्या
सरकार के आंकड़ों के मुताबिक़, 1995 से 2015 के बीच, यानी 20 सालों में तीन लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है.
किसान संगठनों का कहना है कि ये तादाद तो महज़ उन मामलों की हैं, जो पुलिस के सामने आए हैं. बहुत सारे अंदरूनी इलाक़ों में तो इस तरह के मामले दर्ज भी नहीं हो पाते.
इस सबके बावजूद कई सूबों की सरकारों ने साल 2011 के बाद से अपने क्षेत्रों में शून्य किसान आत्महत्या का दावा करना शुरू कर दिया है. इनमें जैसे राजस्थान, बिहार, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ आदि शामिल हैं.
किसान संघर्ष समिति के अविक साहा ने बीबीसी से कहा कि दो दिनों का किसान मुक्ति मार्च इन्हीं समस्याओं को लोगों के सामने फिर से सामने लाने की एक और कोशिश है.
देश भर के किसान इन्हीं मागों को लेकर दिल्ली में जमा हुए हैं. बुधवार को उन्हें दिल्ली के अलग-अलग इलाक़ों में ठहराया गया था, जहां से वो गुरुवार सुबह रामलीला मैदान के लिए रवाना हुए और वहां से 30 नवंबर को संसद भवन तक एक रैली निकालेंगे.
किसानों की मांग है कि उनकी समस्याओं पर बहस के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाया जाए और किसानों की कर्ज़ माफ़ी और फसल की कीमतों पर जो दो बिल सदन में पेश हो चुके हैं, उन्हें पारित किया जाए.
इन दोनों बिलों को 20 से अधिक राजनीतिक दलों ने समर्थन देने का वादा किया है.
- यह भी पढ़ें:- किसानों की चिंता या चुनावों में जीत है बीजेपी का इरादा?
'किसानों का बीमा भी एक धोखा'
सर पर बंधी चुनरी की पगड़ी बताती है कि वो राजस्थान के हैं. वो अपना नाम ढेरा राम बताते हैं और कहते हैं कि नागौर के तेतरी गांव के रहने वाले हैं.
ढेरा राम के परिवार में बंटवारे के बाद उनके हिस्से पांच बीघा खेत आए हैं लेकिन वो उनके और परिवार के गुज़ारे के लिए काफ़ी नहीं हैं. ऐसे में उन्हें और घर के दूसरे लोगों को मज़दूरी भी करनी पड़ती है.
बीकानेर के नौखा तहसील के प्रेम लाल कहते हैं, "हमारे इलाक़े में खेती बारिश पर निर्भर है, बिजली की भी सुविधा ठीक से नहीं. लेकिन बावजूद इसके हमें हमारी फ़सल की क़ीमत नहीं मिल पाती."
प्रेम लाल कहते हैं कि जो बाजरा उन्हें 1,000 रुपये में बेचने को मजबूर होना पड़ता है, बाद में वही खरीदना होता है तो दोगुने दाम पर मिलता है.
ये पूछने पर कि अब तो सरकार लागत से डेढ गुना क़ीमत किसानों को देने का दावा कर रही है, वो हंसकर कहते हैं, ''सुना तो हमने भी है, मेरे पास तो टीवी नहीं लेकिन पड़ोसियों के यहां सुना भर ही है.''
कुछ ही देर पहले स्टेशन से बिजवासन के कम्यूनिटी हॉल पहुंचे ओडिशा के बेरधर के सुभाष भुई कहते हैं, "किसानों के बीमा की बात भी एक धोखा है क्योंकि फसल बर्बाद होने पर उसके पैसे किसानों को नहीं मिलते."
- यह भी पढ़ें:- किसानों को कर्ज से मुक्ति कैसे मिल सकती है?