राजस्थान के वो नेता जो बदल सकते हैं गुजरात का गणित
इस बार गुजरात में कांग्रेस के प्रदर्शन का बहुत कुछ श्रेय अशोक गहलोत को जाएगा.
चैत्र-वैशाख में जब पार्टी हाई कमान ने अशोक गहलोत को गुजरात का प्रभार देकर भेजा तो राजस्थान में पार्टी के अंदर और बाहर उनके विरोधियो के चेहरों पर एक सियासी मुस्कान उतर आई.
यह उनके समर्थकों के लिए मायूस करने वाली ख़बर थी क्योंकि इसे राजस्थान की सियासत से गहलोत को दूर करने के संदेश के रूप में पढ़ा गया. मगर गुजरात के चुनाव अभियान ने उन्हें फिर मज़बूत भूमिका में ला दिया. वो इस कदर चुनाव अभियान में जुटे कि दिवाली पर भी अपने घर नहीं लौटे.
वो ना तो किसी प्रभावशाली जाति से हैं, ना ही किसी प्रभावशाली जाति से उनका नाता है, वो दून स्कूल में नहीं पढ़े. वो कोई कुशल वक्ता भी नहीं हैं. वो सीधा-सादा खादी का लिबास पहनते हैं और रेल से सफ़र करना पसंद करते हैं.
विरोधियों के लिए हैं औसत दर्जे के नेता
1982 में जब वो दिल्ली में राज्य मंत्री पद की शपथ लेने तिपहिया ऑटोरिक्शा में सवार होकर राष्ट्रपति भवन पहुंचे तो सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें रोक लिया. मगर तब किसी ने सोचा नहीं था कि जोधपुर से पहली बार सांसद चुन कर आया ये शख्स सियासत का इतना लम्बा सफ़र तय करेगा.
उनके साथ काम कर चुके पार्टी के एक नेता ने कहा कि गहलोत कार्यकर्ताओं के नेता हैं और नेताओं में कार्यकर्त्ता. उनकी सादगी, विनम्रता, दीन दुखियारों की रहनुमाई और पार्टी के प्रति वफ़ादारी ही उनकी पूंजी है.
मगर विरोधियों की नज़र में वो एक औसत दर्जे के नेता हैं जो सियासी पैंतरेबाज़ी में माहिर हैं.
कांग्रेस में उनके विरोधी तंज़ के साथ कहते हैं 'गहलोत हर चीज़ में 'मैसेज' देने की राजनीति करते हैं. इसी मैसेज के चक्कर में दो बार कांग्रेस को विधानसभा चुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा.
चिट्ठियां लिखने से की शुरुआत
गहलोत कांग्रेस में उन थोड़े से नेताओं में शुमार हैं जिन्हें 'पार्टी संगठन' का व्यक्ति कहा जाता है और जो अपने सामाजिक सेवा कार्य के ज़रिए इस ऊँचाई तक पहुंचे हैं.
गहलोत ने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत जोधपुर के अस्पतालों में भर्ती मरीज़ों को संभालने से की थी. वो दूर दराज़ के गावों से आकर भर्ती हुए मरीज़ों से मिलकर उनके गांव-परिजनों को कुशलता की चिट्ठियां लिखते थे.
फिर वो जोधपुर में तरुण शांति सेना से जुड़े और शराब की दुकानों के विरोध आंदोलन में खड़े मिले. गहलोत पर कांग्रेस नेतृत्व की नज़र तब पड़ी जब वो 1971 में पूर्वी बंगाल के शरणार्थी शिविरों में काम करते दिखे.
इसके बाद राज्य में पार्टी के छात्र संघठन के अध्यक्ष नियुक्त हुए और फिर संगठन में आगे बढ़ते गए.
गांधी को मानते हैं प्रेरणा का स्रोत
जब वो बहुत कम उम्र में राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष नामजद किए गए तो उन्होंने जातिवाद के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ी और लोग उन्हें अशोक भाई के नाम से पुकारने लगे.
लेकिन बाद में अशोक भाई फिर से अशोक गहलोत हो गए. किसी ने पूछा तो बोले "कुछ लोगों ने टिप्पणी की कि वो यह सब मुख्यमंत्री बनने के लिए कर रहे हैं तो उन्हें यह बुरा लगा."
गहलोत गाँधी, मार्टिन लूथर किंग और कबीर से प्रेरित हैं. जब वो पहली दफ़ा मुख्यमंत्री बने तो राज्य सचिवालय में गाँधी की बड़ी प्रतिमा लगवाई.
उनके दफ़्तर में प्राय: गाँधी, मार्टिन लूथर किंग और गाँधी परिवार के नेताओं की तस्वीरें मिलती थीं.
साल 2010 में जब गुर्जर नेता आंदोलन पर उतरे तो किरोड़ी सिंह बैंसला के नेतृत्व में गुर्जर नेताओं को बातचीत के लिए बुलाया गया.
बातचीत के बाद गहलोत इन नेताओं को गाँधी और मार्टिन लूथर किंग की तस्वीरों तक ले गए और बोले, "इन दो नेताओें ने अपना जीवन शांति और सद्भाव को समर्पित कर दिया. आप कुछ भी करें तो इन दोनों का ज़रूर ध्यान रखें."
वो प्राय: सूत की माला पहनना पसंद करते हैं और हर साल लोगों को गाँधी डायरी भेंट करना नहीं भूलते.
गुजरात से गहलोत का नाता
गुजरात से गहलोत का पुराना रिश्ता रहा है. जब 2001 में गुजरात में भूकंप आया, उस वक्त शायद राजस्थान पहला राज्य होगा जो मदद के लिए सबसे पहले पहुंचा. उस वक्त गहलोत मुख्यमंत्री थे.
उन्होंने तुरंत टीम गठित करवाई और अपने अधिकारियों को राहत सामग्री के साथ गुजरात भेजा. गुजरात दंगों के बाद राजस्थान में पीड़ितों के लिए राहत कैंप खोले.
कांग्रेस ने 2005 में जब दांडी मार्च की हीरक जयंती मनाई और साबरमती से दांडी तक 400 किलोमीटर की यात्रा निकाली तो गहलोत को समन्वयक बना कर भेजा गया. राहुल गाँधी इस यात्रा में बोरसाद से शामिल हुए और कुछ किलोमीटर तक साथ चले.
फूंक-फूंक कर कदम रखनेवाले गहलोत सियासत और राजकाज में नाते रिश्तेदारों और परिजनों को दूर रखते रहे हैं. लेकिन उनके पिछले कार्यकाल में पुत्र को आगे बढ़ाने और कुछ रिश्तेदारों को संरक्षण देने के आरोप लगे.
वो इन आरोपों को विपक्ष की चाल बताते रहे हैं. उनके समर्थक याद दिलाते हैं कैसे उन्होंने अपनी बेटी सोनिया का विवाह अत्यंत सादगी से किया था और बारात को छ़ोडने रेलवे स्टेशन गए तो एक-एक मेहमान की गिनती कर प्लेटफ़ॉर्म टिकट खरीदे थे.
उनके पिता स्वर्गीय लक्ष्मण सिंह जादूगर थे. गहलोत को भी जादू की कला विरासत में मिली है. वे जादू के करतब दिखाते भी रहे हैं.
2008 के विधानसभा चुनाव में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में किसी ने याद दिलाया क्या वे अपने जादू का मुजाहिरा भी करेंगे. वो पलट कर बोले "मेरा जादू तो जब परिणाम आए तब देखना."
चंद्रास्वामी का विरोध किया
एक वक्त जब कांग्रेस की राजनीति में चंद्रास्वामी प्रभावी बन कर उभरे, गहलोत ने उनका जमकर विरोध किया.
यहाँ तक कि पहले से स्वीकृत एक कार्यक्रम में यह कह कर जाने से इंकार कर दिया क्योंकि उसमें चंद्रास्वामी भी आमंत्रित थे. चंद्रास्वामी को उस वक्त के प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव के निकट समझा जाता था.
इसके कुछ वक्त बाद ही गहलोत का केंद्रीय मंत्री पद चला गया था.
वो गाहे-बगाहे परिजनों के साथ मंदिरों की फेरी लगाते रहे हैं, मगर ज्योतिष और भविष्यवक्ताओें से दूर रहते हैं.
उनके साथ काम कर चुके एक नेता बताते हैं, "यूँ वे बहुत सीधे-सादे दिखते हैं, लेकिन 2003 में प्रवीण तोगड़िया को उस वक्त गिरफ्तार कर जेल भेज दिया जब उत्तर भारत की सरकारें उन पर हाथ डालने से बचती थीं. ऐसे ही आशाराम बापू के मामले में पुलिस को सख्त कार्रवाई का निर्देश दिया और यही कारण है कि आशाराम बापू अब तक जेल में है."
कांग्रेस में उनसे असहमत एक नेता कहते हैं, "गहलोत की राजनैतिक समझ का कोई मुकाबला नहीं है, वो भविष्य का अनुमान लगाने की समझ रखते हैं. पर वो जब सत्ता में आते हैं तो शक्ति का केन्द्रीयकरण कर लेते हैं. अपने दूसरे कार्यकाल में गहलोत बेपरवाह हो गए थे, नतीजा सामने है."
बीबीसी रेडियो सुनते हैं
राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री रह चुके गहलोत टीवी की चमक-धमक से दूर रहना पसंद करते हैं. वो रेडियो के आशिक हैं. बीबीसी सुनते रहे हैं.
इसीलिए एक बार जब उनकी पसंद का ट्रांज़िस्टर कहीं खो गया तो बहुत परेशान हुए.
वो अपना राजनैतिक बयान खुद लिखते हैं और एक-एक शब्द पर गौर करते हैं. बीजेपी के एक पूर्व मंत्री कहते है, "गहलोत के बयान बहुत मारक होते हैं."
गहलोत उस वक्त पहली बार राजस्थान के मुख्यमंत्री बने जब सूबे की सियासत में स्वर्गीय भैरों सिंह शेखावत का जलवा था.
विपक्ष में रहते गहलोत स्वर्गीय शेखावत के प्रति बहुत आक्रामक थे. लेकिन मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही वो सबसे पहले उनसे मिलने पहुंचे और उनका आशीर्वाद लिया. जब शेखावत बीमार हुए तब गहलोत उन लोगों में से थे जो लगातार उनकी देखरेख करने जाते रहे.
गहलोत को मुफ्त दवा योजना और अकाल राहत के बेहतर प्रबंधन के लिए याद किया जाता है. साल 2003 में विधानसभा के चुनाव हुए तो गहलोत अपनी वापसी के लिए ज़ोर लगा रहे थे.
उस वक्त नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे. मोदी ने चुनाव अभियान में भीलवाड़ा की एक सभा में गहलोत और उनकी कांग्रेस सरकार पर जम कर प्रहार किए.
मोदी ने गहलोत के बोलने की शैली की खिल्ली उड़ाई, कहा, "मुख्यमंत्री क्या बोलते हैं, समझना मुश्किल है."
अब गहलोत बीते छह महीने से गुजरात में हैं. चुनाव के नतीजे ही बताएंगे कि इस बार गहलोत अपने बोल से कितना कुछ समझा पाए है.