अयोध्या कांड के वो सात दिन, आज भी रुला देते हैं
नई दिल्ली। 1992 का अयोध्या कांड कभी भूल नहीं सकता। कुछ ही महीने बीते थे, नई दुनिया भोपाल में रिपोर्टर के तौर पर काम करते हुए। ये इत्तफाक ही था कि पत्रकारिता की शुरूआत में जो भयानक मंजर झेला, न तो उसके बाद ऐसा कभी मौका आया और यही दुआ करता हूं कि आगे भी न आए। भोपाल ने भी उसके बाद ऐसी त्रासदी नहीं झेली। भोपाल गैस त्रासदी के बाद भोपाल में तबाही का ये दूसरा मौका था जो मेरी आंखों से गुजरा। वो एक हफ्ता था जब भोपाल में मारकाट मची हुई थी। ऐसी मारकाट जो अब तक केवल फिल्मी पर्दे पर ही देखी थी। आग तो ऐसे लगाई जा रही थी मानो पूरा भोपाल धुआं धुआं होने को था। ये संकट का समय था जिसमें खुद को बचाना था और दूसरों को भी। पत्रकारिता की एबीसीडी सीखने के दौरान ही ऐसे दिन देखने को मिलेंगे, कभी सोचा नहीं था।
क्या थे उस समय हालात
उस वक्त मोबाइल नहीं थे, टीवी चैनल नहीं थे। इंटरनेट नहीं था, मीडिया का मतलब था सिर्फ अखबार, जो सुबह सुबह लोगों को सारी खबरों से रूबरू कराते थे। ऐसे में पूरा दायित्व इन्हीं का था। भोपाल के चार-पांच प्रमुख अखबारों की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा थी क्योंकि इनका सर्कुलेशन ही न केवल भोपाल बल्कि पूरे मध्यप्रदेश में था। ऐसे में पत्रकारिता को जीना भी था, और संयत भी बरतना था। कर्फ्यू लग चुका था। देखते ही गोली मारने के आदेश थे। अपने पास एक लूना थी जिसकी तेजी की एक सीमा थी। प्रशासन की ओर से कर्फ्यू पास थे जिसे सीने पर चिपका कर चल रहे थे ताकि दूर से ही दिख जाए कि प्रेस वाले हैं। फिर भी ऐसे मौके आए जो दिल दहलाने वाले थे। पुलिस तक सांप्रदायिक हो चुकी थी। , हम तीन चार साथी उस वक्त साथ में चलते थे ताकि सुरक्षित रहें।
बाबरी मस्जिद विध्वंस के 25 साल पूरे
हमारे एक घनिष्ठ मित्र हैं जो अब पीआईबी में वरिष्ठ अधिकारी हैं, ब्राह्मण हैं, हम तीन चार साथी उस वक्त साथ में चलते थे ताकि सुरक्षित रहें। आधी रात का वक्त था, हम लोग प्रेस से करीब तीन चार किलोमीटर की दूर पर जोखिम उठाकर घर रवाना हुए थे। सड़कें वैसे ही इस वक्त सूनसान रहती हैं और कर्फ्यू लगा हो, दंगे भड़के हो तो सवाल ही नहीं कि कोई सरसराहट की आवाज भी सुनाई दे जाए। अचानक अंधेरे से चार पांच साए निकले और सड़क पर बींचोबीच खड़े हो गए, पास पहुंचे तो जान में जान आई वो हथियारबंद पुलिस वाले थे। गाड़ी रोकने का इशारा कर रहे थे। पास में आए और हमारे कर्फ्यू पास पर देखने लगे। एक पुलिस वाले ने हमारे मित्र से कहा कि ये दाढ़ी कटवा लेना, नहीं तो दिक्कत हो जाएगी। हिंदू या मुस्लिम, सब भोपाल का भाईचारा भूल गए थे, तनाव इतना था कि कर्फ्यू पास के बावजूद एक महिला मजिस्ट्रेट ने हमारे एक साथी के वाहन को रोक लिया और दुर्व्यवहार किया। बाद में ये मामला राजभवन तक पहुंचा और दिल्ली के अखबारों तक में ये सुर्खियां बना।
कभी न भूलने वाला था उस समय का मंजर
कई घटनाएं तो ऐसी हैं कि जिन्हें लिखना नहीं चाहता, ऐसे वाक्ये कि लोग इंसानियत ताक पर रख चुके थे। सैकड़ों लोग मारे गए, हिंदू भी मुस्लिम भी। पुलिस वाले भी। हालात इतने बिगड़ते जा रहे थे कि अखबार के दफ्तर में भी सोच रहे थे कि जान बचेगी या नहीं क्योंकि प्रेस कॉम्पलेक्स की कई दुकानों को भी दफ्तर की छत से धूं धूं होते देखा। चाहे चाय की गुमटी हो या फिर साइकिल पंचर की दुकान, किसी को नहीं बख्शा गया। उपद्रवी तत्वों ने जमकर फायदा उठाया। शो रूम में आग लगाकर सामान उठाकर घर ले गए। सड़कों पर पुलिस के ही वाहन थे और इन बंद वाहनों से बाहर केवल बंदूकों की नाल बाहर निकली हुईं थी। जहां न सवाल था, न जवाब था, लग रहा था कि कहीं कोई गोली न चल जाए। दफ्तर में ही पूड़ी सब्जी खाकर रात गुजारी गईं, जितना मिला उतने में ही संतोष किया। तमाम घरों में राशन की किल्लत हो चुकी थी।
उस समय भोपाल में कैसे थे हालात
हम जिस मकान में किराए से रह रहे थे वो प्रेस कॉम्पलेक्स के ही दबंग पुलिस सब इंस्पेक्टर का घर था। उस घर के पीछे रेलवे लाइन थी और उसे सटी झुग्गी बस्ती। पूरी की पूरी बस्ती आंखों के सामने जल रही थी। और सब इंस्पेक्टर हमें और अपनी पत्नी को नसीहत देकर जाते थे कि छत पर बड़े बड़े पत्थर रख लेना, कभी कोई भीड़ आए तो पत्थर फेंकना। न जाने कितने वाक्ये हैं वो सात दिन के, कर्फ्यू खुलने के बाद साप्ताहिक अवकाश में जब ललितपुर स्थित अपने घर पहुंचा तो घर के दरवाजे पर ही मां ने ऐसा गले से लगाया कि दोनों की आंखों के आंसुओं की धार से कपड़े गीले हो गए । उनकी उस दिन की रुलाई आज भी रुला देती है।
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